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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

22 April 2018

किरदारों ज़रिए एक शहर से मिलना




हर शहर का अलग रंग-अलग ढंग होता है | वहां के बाशिंदों का जीने का तरीका हो या बतियाने का अंदाज़ उस शहर की पहचान बन जाता है | इस मामले मामले में मुंबई  ( जिसे कभी बॉम्बे कहा जाता  था ) की देश ही नहीं दुनियाभर में खास पहचान है |  मायानगरी की भागमभाग हो या एक दूजे से जुड़कर भी कोई जुड़ाव ना रखने वाले यहाँ के लोग | यहाँ की हवा में एक अलग ही अंदाज़ की गंध  है | पत्रकार और लेखिका जयंती रंगनाथन ने अपनी किताब ‘बॉम्बे मेरी जान में’ मुंबई के इसी अंदाज़ को बखूबी शब्दों में उकेरा है  । संस्मरण  रूपी  इस  किताब में जिन असल किरदारों की कहानियाँ हैं वे इस शहर की असलियत को भी पाठकों के समक्ष जीवंत कर देती हैं  | लेखिका को घर और दफ्तर की भागदौड़ के बीच इस शहर के जो रंग दिखे,  उन्हें जीते हुए संवेदनशील मन से वे हर पहलू को सोचती रही हैं | तभी तो ये किरदार इस नगर के ही नहीं उनकी जिंदगी से जुड़े भी लगते हैं | पढ़ते हुए लगता है मानो यह शहर ही उनके मन में रच-बस गया है | जहाँ सड़क, बस, ऑटो या  लोकल ट्रेन में में दिखने वाले चेहरों के पीछे का सच जानने-समझने को उनका अपना मन भी उद्वेलित रहा | जयंती जी ने भूमिका का शीर्षक ही 'एक शहर बन गयी मैं.....'  दिया है |   उन्होंने लिखा भी है कि ' एक बार जब आप इस मायानगरी के रंग में रंग जाते हैं, तो रात-दिन की भाग-दौड़, आसपास की भीड़ में भी अपनेपन का अहसास होने लगता है। हर दिन दफ्तर आते-जाते मुम्बई की लोकल ट्रेन में आपको नये किरदार देखने-बुनने को मिलते हैं। ना जाने कितनी कहानियाँ हर वक़्त आपके आसपास तैरती रहती हैं। मुम्बई को अगर जानना है, तो ख़ुद एक कहानी बनना होगा।' जो कि यकीनन एक सहज सा सच  है |  
दरअसल, यह किताब कुछ खास किरदारों के माध्यम से हमें मुंबई की ख़ासियतों का परिचय देती है |  असल में देखें तो दौर कोई भी हो, हर इस शहर का हर बाशिंदा जिसे मुम्बईकर कहा जाता है, यहाँ से एक ख़ास रिश्ता जोड़ता है | दुनियाभर की आपाधापी के बीच भी यहाँ जीने वालों के दिलो-दिमाग पर तारी रहते हैं यहाँ के रंग | जयंती रंगनाथन के शब्दों को पढ़ते हुए कुछ ऐसा ही लगता है | अजनबी  होकर भी जो अपनापन इस शहर में दिखता है वो शायद ही कहीं और हो |  'बॉम्बे मेरी जान'  किताब में तीन किरदारों के बारे में तीन अध्याय हैं | जो इन खास चरित्रों की ऐसी कहानियाँ हैं जिनमें यह शहर भी साथ चलता है  | यह  किताब लेखाजोखा है कि    कैसे लेखिका इन तीनों से  मिलीं ?   कैसे उनके साथ उस  दुनिया की  झलक देखी,  जो मुंबई नगरिया  की जीवनशैली का पागलपन भी लिए है और पीड़ा भी |  हाँ, इन किस्सों को पढ़ते हुए बहुत सहजता के साथ मुंबई शहर रंग भी  पाठकों को  दिखते रहते हैं |   'वो छोकरा', 'वो थी एक शबनम' और 'उस दुनिया की ज्योति' | ये तीनों संस्मरण के तौर पर कही गई कहानियाँ व्यक्तित्व और विचार वो सारे अंदाज़ लिए हैं, जो बॉम्बे की बेपरवाही और हरदम व्यस्त और भागते चेहरों के पीछे के ठहराव और पीड़ा को बताते हैं  |  'वो छोकरा' लोकल ट्रेन में गाने-बजाने  वाले एक लड़के की कहानी है जो हर तरह के शोषण को झेलने को अभिशप्त रहा | कहानी बताती है कि  कैसे  एक किशोर में यहाँ जीने के लिए जूझते हुए कई अवगुण आ गए | पर हीरा नाम का यह किशोर पर मन से बच्चा ही रहा  | स्वयं लेखिका ने भी उसके मन-जीवन के संघर्ष  की  पीड़ा को  समझते  हुये उसे कई बार समझाइश भी दी है | हीरा की कहानी पढ़ते हुए मुंबई की लोकल ट्रेन में गा-बजा कर या छोटा-मोटा सामान बेचकर गुजरा करने वाले  ग़रीब बच्चों की दयनीय स्थिति की हकीकत से सामना होता है | हीरा बचपन में अपने घर से भाग कर मुंबई आ गया है। दादर स्टेशन पर कूड़ा-कचरा बीनने का काम करता है। लेकिन हालात के मारे दूसरे बच्चों की तरह   ही मासूम मन वाला हीरा भी   शोषण, अपराध, बुरी लत और नकारात्मक व्यवहार के चक्रव्यूह में  फंस जाता है  | उसे इन  हालातों में फँसा देख लेखिका के संवेदनशील मन ने भी कई बार व्यावहारिक सी प्रतिक्रिया दी है | जो इस जुड़ाव को पुख्ता करती है कि वे इस शहर और इसके मिजाज़ को अच्छे से समझ चुकी थीं |

‘वो थी एक शबनम’ में  अपने गुरूर में रहने वाली बार डांसर शबनम  की कहानी भी कई रंग लिए है |  यह किस्सा कहीं  व्यावहारिक  धरातल पर इस पेशे से जुड़ी  बद्तमीज़ी और बड़बोलापन सामने रखता है तो कहीं अपने ही जीवन से जुड़े चिंता के मानवीय रंग भी | यही वजह है कि बारबाला शबनम से मुलाक़ात का यह शाब्दिक चित्रण दिलचस्प भी  है और मर्मस्पर्शी भी | किताब में  अस्सी के दशक  के जिस दौर  के बॉम्बे का जिक्र किया गया है, उस समय बार बालाओं के प्रति अच्छी खासी दीवानगी थी | 'वो थी एक शबनम' किस्से में मुंबई के बियर बार का जीवंत वर्णन है।  अमजद और शबनम  के प्रेम प्रसंग के बैकग्राउंड में इन बार बालाओं की हसरतों  के साथ  बुनियादी   ज़रूरतें  जुटाने की जद्दोज़हद का ज़िक्र भी है  | लेखिका के लिए भी अक्खड़पन और मुंहफट अंदाज वाली शबनम से मिलना और बार डांसरों के बारे में  जानना हैरानी भरे अनुभव लिए था | ज़िन्दगी के प्रति बहुत सहज सी प्रतिक्रिया रखने वाली शबनाम दुबई जाकर पैसा कमाना चाहती थी | ताकि आगे किसी की मोहताज ना रहे |  वो अमजद से पीछा छुड़ा रही थी क्योंकि रिश्तों पर भरोसा करने का रिवाज  शायद उसकी दुनिया का हिस्सा ही नहीं था |  ऐसे ही कई मोड़ शबनम की कहानी  को भी दिल छूने वाला किस्सा बना देते हैं | जिसे लेखिका ने बहुत मर्मस्पर्शी ढंग से उकेरा है | 

जयंती लिखती हैं -‘धीरे से और बहुत चुपके से यह शहर कब आपके अन्दर बसने लगता है और कब आपकी रगों में यह उल्लास और गति बनकर दौड़ने लगता है, आपको पता ही नहीं चलता | किताबे के एक किरदार का भी बॉम्बे से यूँ ही मिलना हुआ |  उस दुनिया की ज्योति’ जो हिजड़ों की दुनिया से है, किताब के तीसरे संस्मरण के केंद्र में है   | ज्योति जो बचपन में  सुरेश नाम का लड़का थी  | जन्म से सुरेश के ज्योति बनने का यह किस्सा संवेदनाओं को झकझोरता है और कई संवेदनशील सवाल भी उठाता हैं | ज्योति का किन्नरों की बस्ती में रहते हुए भी अपने माता-पिता को याद करना पाठक को  भी भावुक  कर जाता है | ज्योति की दुनिया का दुखद सच और समस्याएं जानने  के बाद हम सोचने को विवश भी होते  हैं कि आखिर क्यों  समाज के इतने बड़े तबके के हिस्से इंसानी हक़ भी नहीं आये | जयंती एक डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाने के सिलसिले में ज्योति से  मिलती हैं । कई मुलाकातों में वे हिजड़ों के रहन-सहन, शादी ब्याह, गुरु-चेली के रिश्तों और किन्नर समाज के जीवनयापन से  जुड़ी  दूसरी कई दुश्वारियों से रूबरू होती हैं |  ऐसी अधिकतर बातें आमजन भी नहीं जानते | इन बातों और किस्सों को लेखिका ने बहुत सहज अंदाज़ में संजोया है | यही वजह है कि जीवन के कटु सच दुश्वारियों  को सामने रखते ये किरदार उनके मन के करीब  प्रतीत होते हैं |  मन से जुड़ीं ये कहानियां पढ़ने वालों के मन पर भी दस्तक देती हैं |  जो ज़िंदगी की जद्दोज़हद समझा जाती हैं | जयंती कहती भी हैं कि मुंबई एक शहर भर  नहीं है  |  ज़िंदगी जीने और अपने आप को समझने का गेटवे भी है |  

8 comments:

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन प्लास्टिक प्रदूषण की समाप्ति कर बचाएं अपनी पृथ्वी : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (24-04-2017) को "दुष्‍कर्मियों के लिए फांसी का प्रावधान हो ही गया" (चर्चा अंक-2950) (चर्चा अंक-2947) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Jyoti Dehliwal said...

सुंदर समिक्षा!

गिरधारी खंकरियाल said...

वास्तव में मुम्बई जीवन को समझने का एक गेटवे ही है।

Sadhana Pal said...

बहुत ही खूबसूरत समीक्षा की मैडम

वाणी गीत said...

मुंबई वाकई मायानगरी है. कितने कितने किरदारों को समेटे.
रोचक समीक्षा!

वाणी गीत said...

मुंबई वाकई मायानगरी है. कितने कितने किरदारों को समेटे.
रोचक समीक्षा!

alavpani said...

आपकी लेखन शैली में एक तरलता हैं जो पाठक को विचलित होने नहीं देती।

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