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06 July 2017

क्या सचमुच हम भीड़ में अकेले ही हैं ?

सुसाइड के किसी मामले के बारे में सुनती हूँ सबसे पहले यही सवाल मन में आता है कि क्यों ? आखिर क्यों यह कदम उठाया  होगा ? आमतौर पर  ऐसी ख़बरें अखबारों में पढ़ती हूँ तो कारण भी जानने को मिलता   है | कई बार कारण भीतर तक हिला देने वाले होते हैं तो कई बार बहुत मामूली सी वजह होती है अपनी ही जान ले लेने की | लेकिन वे सब अनजाने चेहरे होते हैं इसीलिए कुछ दिन में एक आम  ख़बर की तरह ऐसे  समाचार भी भूल जाती हूँ |  

बीते कुछ समय में आभासी दुनिया में कुछ जाने-पहचाने या यूँ कहूं कि वास्तविक तौर  पर अनजाने चेहरों ने आत्महत्या जैसा कदम उठाया |  हालाँकि इनमें से कोई भी मेरे दोस्तों की  फ़ेहरिस्त  में नहीं रहे | पर ऐसी कोई ख़बर मिलते ही लगता है एक बार उनकी प्रोफ़ाइल देखूं | दुनियाभर की व्यस्तताओं के बीच मैं उनमें से कुछ चेहरों की आभासी दीवार पर पहुँचती भी हूँ | पता तो होता ही है अब कुछ नहीं किया जा सकता | पर   लगता है कि शायद उस आखिर क्यों  का जवाब मिल जाए, उनके लिखे शब्दों में |  तभी तो उनकी इस आभासी वॉल पर मेरे मन और आँखों  को तलाश होती है, सोच के उस सिरे की जो अगर आस -पास कोई और पकड़ता दिखे तो मैं भागकर झटक दूँ उसे | लेकिन कुछ समझ नहीं आता | फ़ोटो, अपडेट्स, लेख, कविता या शेयर किये  गए पोस्टस,अधिकतर बहुत साधारण से ही होते हैं | कोई अंदाज़ नहीं लगा पाती हूँ कि ऐसा क्या  असामान्य चल रहा होगा उनके मन जो यहाँ तो प्रतिबिंबित नहीं हुआ पर उनके जीवन की तस्वीर हमेशा के लिए धुंधली हो गई |  तब कई ऐसे  सवाल उठते हैं मन में..... 

क्या  सचमुच  हम भीड़ में अकेले ही हैं ?

भीतर ऐसा क्या रिसता है कि आभासी हो या  असल दुनिया किसी को भनक तक नहीं लगती ? 

ज़िन्दगी का हर रंग और उतार-चढ़ाव देख चुके लोग भी कैसे यूँ हार मान लेते हैं ? 

आख़िर ऐसा क्या छूट रहा है  कि हम ज़िन्दगी को नहीं पकड़ पा रहे ? 

 ऐसी मायूसी क्या इतना अँधेरा लिए होती है कि उजाले की एक किरण भी ना दिखे ? 

हम मन की कहना भूल गए हैं या कोई सुनना नहीं चाहता ? 

कोई हमसे कुछ पूछता नहीं या हम ही ज़िन्दगी में किसी को दाख़िल नहीं होने देते ? 


ऐसे कितने ही सवाल मन को भेदते हैं | ये प्रश्न लाजिमी भी हैं | क्योंकि  समाज का कोई भी वर्ग ( महिला,पुरुष, बच्चे ) (अमीर,गरीब , ग्रामीण, शहरी )..... ( युवा, बुजुर्ग ) हो |  लगता तो ऐसा ही है कि ज़िन्दगी पहले आसान  ही हुई है | या फ़िर दुनियाभर की सहूलियतों के बीच निराशा  की कुछ ऐसी वजहें आ धमकी हैं जो बस तोड़ना जानती हैं | हमारे आपसी संवाद की कड़ी को तोड़ना, हमारे रिश्तों को तोड़ना, हमारे आत्मबल को तोड़ना |   ऐसे में हमारे परिवेश और परिस्थितियों को देखते हुए में जितना सोच-समझ पा रही हूँ, यह टूटन तो यहाँ भी नहीं रुकेगी |  रुके भी कैसे ? इसके लिए कोई विशेष प्रयास भी नहीं किये जा रहे |  प्रयास  किये भी कैसे जायें  ? या तो हम सब कुछ समझ रहे हैं या कुछ भी समझ ही नहीं आ रहा | यानि वही सवालों के घेरे और  नैराश्य का कुचक्र |  क्यों ????? 



17 comments:

Dr Kiran Mishra said...

भीड़ के दुहराव दूर सहज होकर जीवन जीने में ही जीवन की सार्थकता है। विचारणीय आलेख।

shikha varshney said...

समझना इतना मुश्किल नहीं ....बस बहुत ज्यादा भौतिकवादी हो गए हैं हम और सब्र कम होता जा रहा है. इस भागती दौड़ती दुनिया में हर वस्तु बस उसी क्षण चाहिए, नहीं मिले तो घोर निराशा और अवसाद.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (07-07-2015) को "शब्दों को मन में उपजाओ" (चर्चा अंक-2660) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अपनों के पास अपनों के लिए वक़्त नहीं है .सब कुछ होते हुए भी संवादहीनता व्यक्ति को अकेला कर देती है .नैराश्य की स्थिति में शायद मन इतना अवसादग्रसित हो जाता है कि उस स्थिति से उबर नहीं पाता .

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत ही सामयिक विशःअय को उठाया आपने. हम अपनी सामाजिक व्यवस्था से दूर होते जारहे हैं.हमारा पुराना सामाजिक या घरेलू ढांचा ऐसा नही था जिसमें हम किन्हीं भी आशा निराशा के पलों में अकेले हो सकें. धीरे धीरे कुछ जानबूझ्हकर और कुछ मजबूरीवश एकांकी परिवार होते गये और मुझे सबसे ज्यादा वजह यहि लगती है. बहुत बढिया और सामयिक विषय पर लिखा आपने, बहुत शुभकामनाएं.
रामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग

vandana gupta said...

क्योंकि सब खुद में जो सिमट गए हैं

राजीव कुमार झा said...

मनुष्य जितना भौतिक संसाधनों से समृद्ध होता जा रहा है उतना ही ज्यादा अवसादग्रसित भी होता जा रहा है.

anshumala said...


हर व्यक्ति को अपने जीवन के संघर्षो से खुद ही लड़ना होता है बाहर के लोग उन्हें लडके और सकरात्मक रूप से प्रोत्साहित ही कर सकते उसकी जगह लड़ नहीं सकते | किन्तु कई बार लोगो पर अविश्वास भी दुसरो के सामने खुलने में बाधा डालता है |

Arvind Mishra said...

आवश्यक यह है कि कि हम ऐसे नकारात्मक विचार आते ही सर झटक कर तुरन्त कोई और सृजनात्मक कार्य में लगकर व्यस्त हो जायं। ऐसे मूड स्विंन्ग्स सभी के जीवन में आते हैं। कुछ लोग इनके आगे परास्त हो लेते हैं और कुछ इन्हे परास्त कर पाने में सफल हो पाते हैं। हमेशा हमें यह सोचना चाहिए कि समाज को हमने क्या दिया है और क्या दे सकते हैं। जिस दिन कोई भी मनुष्य खुद अपने लिये जीना छोड़ दूसरों के लिये जीना शुरु कर देता है वह अमरता की ओर कदम बढ़ा देता है, आत्महत्या की तो बात ही छोड़िये।

प्रतिभा सक्सेना said...

फ़ालतू के साधनो में दिमाग इतना उलझ जाता है किहृदय की पुकार सुनाई नहीं देती मन आश्वस्त कैसे हो न अवकाश है किसी के पास न विश्वास .

प्रतिभा सक्सेना said...

नई विधाओँ ने भीड़ बढ़ा दी है लेकिन सबकी निजता अलग-अलग- बिना जुड़ाव के संबंध रूखे हो गये हैं.

गिरधारी खंकरियाल said...

अन्नत आवश्यकतायें और सीमित संसाधनो के बीच की रस्साकस्सी, बढ़ती हुयी महत्वाकांक्षाये, आपाधापी,और असन्तुलित जीवन, यही सब इसके मध्य केन्द्र में है।

Unknown said...

Esa kyu?

Amrita Tanmay said...

ऐसी घटनाएँ विचलित कर जाती है और सोचने के लिए विवश भी .... आखिरकार हम कहाँ हैं ?

Atoot bandhan said...

तकनीकी के विकास से अपनापन कम होने लगा है | दुनिया से जुड़ कर अपनों से कट रहे हैं | थोड़ी सी भी निराशा बहुत बड़ी प्रतीत होती है | कब ये जीने की इच्छा ही लील ले कह नहीं सकते | रह जाते हैं प्रश्न और दर्द |

सोहेल कापड़िया said...

जैसे जैसे भौतिक संसाधन बढ़ते जायेगे इंसान अकेला होते जाएगा।

शारदा अरोरा said...

हाँ मोनिका जी भरी भीड़ में भी हम अकेले ही होते हैं क्योंकि अंतर्मन की यात्रा तो खुद को ही तय करनी पड़ती है . असल दुनिया को इसकी भनक इसलिए नहीं लगती क्यूंकि हर कोई खुद से ही फुर्सत नहीं पाता कि किसी और को पढ़ सके .मन गिरा और काम तमाम . आपका आलेख अच्छा लगा .

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