Pages

05 May 2016

क्यों इन बच्चों की मुस्कुराहटों को नज़र लगी ?



क्यों इन बच्चों की मुस्कुराहटों को नज़र लगी ?
क्यों बिना ख़ता के इन बड़ों के हिस्से ये दर्द आया ? ये बड़े सवाल हैं और अनुत्तरित भी ।
मुंबई की एक विशेष अदालत ने पाँच साल पहले इस शहर के अंधेरी इलाके में हुए दो दोस्तों की हत्या के मामले के चारों अभियुक्तों को दोषी करार दे उम्र क़ैद की सजा सुनाई है। 20 अक्टूबर 2011 रात खाना खाने के बाद दोस्तों का यह ग्रुप होटल के नज़दीक ही पान की दुकान पर गया । जहाँ कुछ लोग आये और इनकी महिला दोस्तों से छेड़खानी शुरू कर दी । कीनन ने उनका विरोध किया तो कहासुनी के बाद छेड़छाड़ करने वाले लोग वहाँ से चले गए लेकिन वह जल्द ही हथियार और अन्य लोगों के साथ लौटे । सबने कीनन पर हथियारों से हमलाकर उन्हें मौके पर ही मार डाला । कीनन को बचाने के लिए रुबेन बीच में आए तो उन्हें गंभीर रूप से घायल कर दिया जिसके चलते इलाज के दौरान अस्पताल में रुबेन की भी मौत हो गई थी ।
हमारी न्यायिक लचरता के बीच यह निर्णय एक उम्मीद की किरण ज़रूर है पर क्या बात यहीं खत्म हो जाती है ? उन माता-पिता का क्या जो इस अब जीवन भर अपने बच्चों के दुनिया से चले जाने का दंश भोगेंगें । वो बिना उन युवा चेहरों की कोई गलती के । साथ ही एक बड़ा सवाल यह भी है कि यूँ लोगों की भीड़ जब किसी पर टूटेगी या देख रहे हैं कि आये दिन टूट ही रही है... कोई साथ देने आगे आएगा ? क्यों कोई अपनी महिला साथी, बहन या फिर किसी अनजान लड़की को छेड़खानी और अपमान झेलते देख मदद करने की पहल करेगा ?
हम सब भूले नहीं है कि कुछ समय पहले छेड़खानी की ऐसी ही एक दिल दहला देने वाली घटना में मेरठ सेना के जवान ने एक लड़की को छेड़खानी से बचाने में अपनी जान गंवा दी थी । ऐसे में आमजन से तो महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों का प्रतिकार करने की उम्मीद ही बेमानी है । ऐसे मामले शायद बढ़ भी इसीलिए रहे हैं कि इन अराजक तत्वों के चलते अब आमजन में भय है । यह डर होना एक लाजिमी और व्यावहारिक सी बात भी है क्योंकि आवाज़ उठाने की हिम्मत रखने वाला कोई इंसान भी अपनी जान तो नहीं गंवाना चाहेगा ना ? आज के समय में तो ख़ुद अभिभावक ही यह समझाइश देकर बच्चों को घर से बाहर भेजते हैं कि... देखो किसी के मामले में उलझना नहीं है ।
ऐसे में वाकई बात तो ऐसे मामलों से शुरू होती है ।आख़िर किस समाज में जी रह रहे हम ? और यूँ अकेले ही जूझना है तो फिर सामजिकता कैसी ? सोचना ज़रूरी हो जाता है कि न्यायिक लचरता और प्रशासनिक जवाबदेही की कमी का यह आलम आख़िर कब तक ऐसे अपराधियों की हिम्मत बढ़ाता रहेगा ?

7 comments:

Anonymous said...

चिंतनीय

जयकृष्ण राय तुषार said...

सामयिक मुद्दों पर आपके आलेख सदैव हमारा ध्यानाकर्षित करते हैं |ऐसे आलेख समाज को सदैव सोचने और कुछ करने की प्रेरणा देते रहेंगे |आभार

गिरधारी खंकरियाल said...

समाज संवेदन शीलता को खोता जा रहा है।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (07-05-2016) को "शनिवार की चर्चा" (चर्चा अंक-2335) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

डॉ. मोनिका शर्मा said...

आभार आपका

दिगम्बर नासवा said...

चिंता की बात है हमारा तंत्र ... पहले तो हादसा और फिर हादसे के न्याय ...
न्याय व्यवस्था कब और कैसे बदलेगी देश में इस तरफ किसी का ध्यान नहीं है ... न तंत्र का न मिडिया का ही ... आम आदमी तो बेचारा परेशान है ही ....

Onkar said...

विचारणीय विषय

Post a Comment