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29 February 2016

देहरी के अक्षांश पर सतत सक्रिय स्त्री

 आमतौर पर अपने ब्लॉग में समसामयिक विषयों पर सार्थक और सटीक टिप्पणी करने वाले  रायटोक्रेट कुमारेन्द्र जी ने  मेरे काव्य संग्रह को पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया भेजी है । गृहिणी के मन-जीवन से जुड़ी रचनाओं से लेकर बेटियों की जद्दोज़हद तक, सभी रचनाओं को लेकर मिली उनकी इस समीक्षात्मक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार । 
         
 ‘मुट्ठी भर सपनों/और अपरिचित अपनों के बीच/देहरी के पहले पायदान से आरम्भ होती है/ गृहिणी के जीवन की/अनवरत यात्रा’ महज यात्रा नहीं होती वरन अनेकानेक संसारों को रचते-सँवारते हुए उन्हें शिखर पर पहुँचाने का आख्यान होती है. देहरी के अक्षांश पर खड़े होकर एक स्त्री भले ही ‘स्त्रीत्व और अस्तित्व’ को लेकर अपने आप से ‘एक प्रश्न’ करे ‘कि कितनी मैं बची हूँ मुझमें’, भले ही अपने आपको निरुत्तर समझे, अपने आपको ‘अनुबंधित परिचारिका सी’ मानते हुए किसी वीतरागी की तरह हर बार अनाचार सह जाती हो किन्तु सत्यता यही है | 

वही‘स्त्री हर रूप में आलोकित/करती है आँगन को/सजाती है दीपमालाएँ/बिखेर देती है प्रकाश/छत-मुंडेरों पर/और दमक उठता है/सबका जीवन.’ डॉ० मोनिका शर्मा अपने कविता-संग्रह ‘देहरी के अक्षांश पर’ के द्वारा स्त्री के विविध पहलुओं को उभारती हुई उन्हें कविता रूप में प्रदर्शित करती हैं. आलोचना की दृष्टि से संग्रह की रचनाओं को कविता कहना उन रचनाओं के मर्म को, भाव-बोध को कम करना ही होगा, उनके भीतर रची-बसी एक स्त्री की अंतर्वेदना, उसकी संवेदना, उसकी विलक्षणता को नकारना सा होगा. मोनिका शर्मा का ये कहना कि “कुछ देखा जिया सा शब्दों में ढालना हो तो कविताएँ सोच समझकर नहीं लिखी जातीं. मन को छूने और ह्रदय को उद्वेलित करने वाला हर भाव स्वतः शब्दों में बंधकर कविता का स्वरूप ले लेता है.” स्पष्ट करता है कि उनकी रचनाएँ महज कविता नहीं बल्कि एक स्त्री के जीवन के विविध रंग-रूप का भावनात्मक चिंतन है. 

          गृहिणी की अनवरत यात्रा से आरम्भ उनका कविता-संग्रह शिखर के अकेलेपन तक जाता है  गृहिणी  तो है ही बेटी भी है, माँ भी है, परिवार भी है और सबसे बड़ी बात कि ‘स्त्रियों का संसार’ भी है, ‘स्त्री की छवि’ भी है, ‘स्त्री का अस्तित्व’ भी है, स्त्री का स्त्री होना भी है. इस होने में, समझने में, अनुभूत करने में उनकी देखी हुई, एहसास की हुई, जी हुई स्त्री सिर्फ शोषित नहीं है, सिर्फ प्रताड़ित नहीं है; वह सिर्फ ‘पीड़ा’, ‘नैराश्य’, ‘संबंधों का दर्द’ ही नहीं सह रही है वरन एक‘असाधारण भूमिका’ में है. इस भूमिका में वो ‘सूत्रधार’ है और सगर्व उद्घोष सा करती है ‘सूत्रधार हूँ और सहायिका भी/.... सहेज कर रखती हूँ अपनी ऊर्जा/मुश्किलों से रूबरू रहने का आदम विश्वास/ताकि गतिशील रहे सभी का जीवन.’उनकी स्त्री महज उद्घोष ही नहीं करती वरन ‘स्त्री हूँ मैं/मेरे शब्दों में दमकता है अंतर्मन का ओज/मुट्ठियों में पकड़ रखी है/आत्मविश्वास की रस्सी/मन चेतना से लबालब है/और तन है दृढ़ता से पूरित/मुझे शिखर पर नहीं जाना/मुझे तो विस्तार पाना है.’ का पथ प्रशस्त करती हुई अपने स्त्री होने पर गर्व करती है। 

          मोनिका शर्मा की स्त्री चहारदीवारी के भीतर की दुनिया में रंग भरने के लिए, अपने घर-आँगन को सजाने के लिए तत्पर दिखती है; अपने आपको  गृहिणी  की भूमिका में देखकर अपनी उपलब्धियों को संदूक में दफ़न सा कर देने की अदम्य क्षमता रखती है; घर-परिवार की धुरी होते हुए भी खुद को अधूरी सा अनुभव करती है इसके बाद भी वो नैराश्य के गहन अन्धकार में विलुप्त नहीं हो जाती है. वो जागृत अवस्था में दिखती है, कभी अपने लिए, कभी अपने अंश के लिए. जिम्मेवारियों, अंतहीन दायित्वों के बोध से परिपूर होने के बाद भी वो स्त्री ‘संबंधों के सवाल’ उठाती है. सम-विषम होती जा रही भावनाओं के बीच भी वो भावनात्मकता को जिन्दा रखते हुए वो स्त्री अपनी भावी पीढ़ी को जगाने का काम भी पूरी दृढ़ता से करती है. यद्यपि ‘आखिर क्यों जन्में बेटियां?’ के द्वारा मोनिका शर्मा ने न केवल स्त्री मन की वरन समाज के प्रत्येक संवेदित दिल की भावना को सामने रखा है साथ ही ‘क्यों बढ़ाये कोई स्त्री तुम्हारी वंश-बेल?/जब तुम खेलते हो ये तिरस्करणीय खेल/शक्ति-स्वरूपा कहते-कहते/रक्त-रंजित करते हो उनका अस्तित्व/और अमानुष बन/अनावृत करते हो उनकी देह.’ जैसे कठोर वचनों के द्वारा पुरुष-प्रधान समाज पर, अपनी वंश-बेल वृद्धि के लिए सिर्फ पुत्र-जन्म को लालायित समाज पर भी प्रहार भी कहती हैं. वे ‘क्यों अभिव्यक्ति की/संभावनाओं से परे/केवल सुनना और हर मत को/निर्विरोध स्वीकार लेना सीख लेती हैं’ के द्वारा यदि स्त्री बेटियों के तर्क, उनकी ऊर्जा को प्रश्नचिन्ह के घेरे में खड़ा करके उनमें आत्मबोध जगाना चाहती है तो ‘कुछ बनो ना बनो/निर्भीक बनो/स्वयं को हरगिज नहीं खोना’ के द्वारा बेटियों को निडरता सिखाती हैं.

          ‘देहरी के अक्षांश पर’ की रचनाएँ स्त्री के रोजमर्रा की भूमिका का चित्रण करती हैं. इन रचनाओं को घर-बाहर कई-कई भूमिकाओं में कार्यरत दिखती स्त्री, जिम्मेवारी से परिपूर्ण स्त्री, दायित्व-बोध में उलझी-लिपटी स्त्री की सहजता से असहजता, सामान्यता से असामान्यता, समानता से विषमता, कोमलता से कठोरता, सुख से नैराश्य आदि-आदि का शब्द-चित्र कहा जा सकता है. सामान्य स्त्री की विभिन्न भूमिकाओं, उसकी भावनाओं, उसके यथार्थ को सामने लाने के लिए कवियत्री ने कोमलकांत शब्दों के द्वारा ही रचनाओं को पद्य-रूप प्रदान किया है. सामान्य, सहज, रोजमर्रा के शब्दों के कारण पाठक सामान्य रूप से, सहजता से कविताओं के साथ तादाम्य बैठा लेता है. ये लेखिका की लेखनी और वैचारिकता की सफलता ही कही जाएगी कि सामान्य स्त्री के जीवन का आख्यान अत्यंत सरलता, सहजता से दिल तक अपनी पैठ बना लेता है और फिर उसी के रास्ते पाठकों के मन-मष्तिष्क को उद्वेलित भी करता है.

                                                                                                    समीक्षक – डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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31 comments:

Anonymous said...

बधाई

सु-मन (Suman Kapoor) said...

बहुत सुंदर समीक्षा

vandana gupta said...

शानदार समीक्षा .........बधाई

priyadarshini said...

आपकी इन रचनाओं को मैंने पढ़ा है ..दो-दो बार , पहली बार तो किताब हाथ में आते ही ..सारी की सारी एक साथ पढ़ गई .फिर कुछ दिनों बाद दोबारा इत्मीनान से पढ़ा ...बड़ी सहजता के साथ आपने एक स्त्री के विभिन्न रूपों और उसकी मनोस्थिति का वर्णन किया है ..हाँ ..यह स्त्री कभी थकती है या निराश होती भी है तो ..पल भर के लिए .फिर दोगुने उत्साह और हिम्मत के साथ अपनों के लिए खड़ी हो जाती है ....पूरे परिवार का आधार बन कर ....और यही सच्चाई भी है ..और हमें इस पर गर्व भी है ....डॉ ० सेंगर जी की समीक्षा बेजोड़ है

गिरधारी खंकरियाल said...

कारवां यूं ही चलता रहे।

दिगम्बर नासवा said...

बहुत सुन्दर समीक्षा है पुस्तक की ... और हो भी क्यों नहीं ... भावों की सहज अभिव्यक्ति होता है आपका लिखा ...

ब्लॉग बुलेटिन said...

आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की १२५० वीं पोस्ट ... तो पढ़ना न भूलें ...
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " ब्लॉग बचाओ - ब्लॉग पढाओ: साढे बारह सौवीं ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

मुकेश कुमार सिन्हा said...

बधाई व शुभकामनायें,
मुझे तो अब तक नहीं मिली :)

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

सुन्दर और बेहतरीन समीक्षा.....

डॉ. मोनिका शर्मा said...

पहुँचती ही होगी :)

डॉ. मोनिका शर्मा said...

आभार.... संबल मिला | यूँ भी कुछ देखा जिया सा ही सहेजने की कोशिश की है |

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बहुत बहुत धन्यवाद

डॉ. मोनिका शर्मा said...

धन्यवाद सुमन

डॉ. मोनिका शर्मा said...

आभार वंदना जी

डॉ. मोनिका शर्मा said...

शुक्रिया आपका

डॉ. मोनिका शर्मा said...

आभार आपका

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बहुत बहुत आभार

डॉ. मोनिका शर्मा said...

आभार

कविता रावत said...

आपके काव्य संग्रह के बारे में इस समीक्षात्मक टीप से बहुत कुछ जानना अच्छा लगा ...
आपको हार्दिक बधाई!

कविता रावत said...

आपके काव्य संग्रह के बारे में इस समीक्षात्मक टीप से बहुत कुछ जानना अच्छा लगा ...
आपको हार्दिक बधाई!

डॉ. मोनिका शर्मा said...

आभार कविता जी

Unknown said...

आपकी किताब घर पर आज मिली , पढ़ूँगा , निःसंदेश अच्छी ही होगी .

डॉ. मोनिका शर्मा said...

जी ...आभार

Vinars Dawane said...

संग्रह योग्य समीक्षा। धन्यवाद

Jyoti Dehliwal said...

मोनिका जी, बहुत-बहुत बधाई! आप इसी तरह अग्रेसर होती रहे यहीं शुभेच्छा।

गिरधारी खंकरियाल said...

होली की शुभकामनायें।

महेन्‍द्र वर्मा said...

एक अच्छी कृति समीक्षक को लिखने के लिए स्वाभाविक रूप से प्रेरित करती है ।
आपको और सेंगर जी को बहुत-बहुत बधाई ।

Asha Joglekar said...

सुंदर समीक्षा पढने को प्रेरित करती सी।

Asha Joglekar said...

आपको बहुत बधाई।

Himkar Shyam said...

सुंदर समीक्षा

Mahesh Yadav said...

बहुत ही सुन्दर समीक्षा !!

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