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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

29 October 2014

घर लौटा लाती हैं परम्पराएँ

परम्पराएँ ज़मीन से जोड़ती हैं । बांधती नहीं बल्कि हमें थामें रखती हैं । इनमें जो विकृति आई है वो हमारा मानवीय स्वाभाव और स्वार्थ ही लाया है । गहराई से देखें तो रीत रिवाज़ और परम्पराओं ने हमें बिखरने नहीं दिया । हमारी जड़ों को मज़बूती ही दी है । तभी तो जब भी कोई त्योहार आता है गाँवों  से शहर आये बच्चों से लेकर देश से विदेश जा बसे  बड़ों तक, हर कोई बचपन की स्मृतियाँ बाँटने लगता है । याद करता है हर रंग और ढंग जो हमारे त्योहारों ने हमारे जीवन में भरे हैं । रंग जो कभी विस्मृत नहीं होते । तभी तो हमारे पर्व त्योहार हमारी संवेदनाओं और परंपराओं का जीवंत रूप हैं जिन्हें मनाना या यूँ कहें की बार-बार मनाना, हर साल मनाना हर भारतीय को  अच्छा लगता है। 

आँगन के रंग .... चैतन्य के ब्लॉग से  
पिछले कई दिनों से सोशल साइट्स से लेकर अख़बार पन्नों और समाचार चैनलों तक त्योहारी रंगत दिखी । नवरात्री, करवाचौथ, दिवाली और छठ । सबके रंग छाये रहे । ये भी दिखा कि जो त्योहार पर घर नहीं जा पाये उन्होंने मन का दर्द साझा किया और जो अपनों के पास पहुँच सके उन्होंने वहां की छटा सबके सामने परोस दी । देश के एक कोने के उत्सव से दूसरे कोने में बैठा इंसान जुड़ गया । उत्सवीय रंग लिए इन परम्पराओं को जानने और मानने से जुड़े विचारों को गति मिली । यही वो उत्सवधर्मिता जीवन को गतिशील करती है । घर के बाहर रोज़ी रोटी के लिए बिखरे जीवन को देहरी के भीतर एक करती है । सब घर लौट आते हैं । ऐसे मौकों पर जो व्यस्तताओं के चलते सचमुच में घर नहीं पहुँच पाते उनका भी मन तो घर पहुँच ही जाता है । 

ये सब देखकर लगता है कि हम परम्पराओं से दूर नहीं हो रहे हैं , संभवतः कभी  हो भी  नहीं पायेंगें । बस, उन्हें नए ढंग से समझने और उनकी व्याख्या करने की कोशिश कर रहे हैं । कितने वीडियो और गीत  देश के हर हिस्से से जुड़े त्योहारों के विषय में साझा किये जा रहे हैं । किसी में जानकारियां छुपी हैं तो कोई वहां के सुर ताल लिए है । सब कुछ वापस लौटने की उस चाह को दिखाता है जो अपनी जड़ों से जुड़े रहना चाहती है । हमारा मन और जीवन दोनों ही उत्सवधर्मी है | मेलों और मदनोत्सव के इस देश में ये उत्सव हमारे मन में संस्कृति बोध भी उपजाते हैं | हर बार स्मरण हो आता है कि हमारी उत्सवधर्मिता परिवार और समाज को एक सूत्र में बांधती है। संगठित होकर जीना सिखाती है। सहभागिता और आपसी समन्वय की सौगात देती है ।  

हमारी अधिकतर परम्पराओं का आधार तार्किक और प्राकृतिक है । इन्हें समझने जानने के लिए इनके प्रति समपर्ण भरी सोच की आवश्यकता है ।  महिलाओं के लिए तो ये पर्व त्योहार उल्लास और उमंग के साथ ह्रदय के हर भाव को खुलकर कहने, खुलकर जीने का उत्सव हैं । सच, कभी छठ की छटा तो कभी दीपावली की रौशनी, परम्पराएँ घर लौटा लाती  हैं । आँगन से जोड़ देती हैं । हर साल वे हमें एक अदृश्य डोर से खींचती हैं और हम ख़ुशी ख़ुशी उस राह पर मुड़ जाते हैं | अपनों से जुड़ जाते हैं । जब तक ये अपनापन और घर का आँगन हमें बाँधे हैं  हम भी स्वयं को थामने और सहेजने में कामयाब रहेंगें । शिखर पर जा पहुंचेंगें पर विस्तार और गहराई से नाता नहीं टूटेगा, और चाहिए ही क्या हमें ? 

18 October 2014

ये कैसा प्रेम है

बड़ौदा शहर की घटना जिसमें एक गोद ली हुई  बेटी ने ही अपने प्रेमी के साथ मिलकर माता-पिता की हत्या कर दी, के विषय में देख-पढ़ कर मन उद्वेलित है । यह मामला इंसानियत से भरोसा उठाने वाला सा है । जो निसंतान दम्पत्ति बरसों पहले एक अनाथ बच्ची को बेटी बनाकर घर लाये थे उन्होंनें सपने में भी नहीं सोचा होगा कि भविष्य में उनके साथ ऐसा दर्दनाक खेल खेला जायेगा । लगता है जैसे भले बुरे की सीख और सही समझाइश देना ही उन बुजुर्गों की गलती थी । जिसका मोल उन्हें जान गवांकर चुकाना पड़ा ।  प्रेम प्रसंग में पड़ी बिटिया से उन बुजुर्गों ने रोक-टोक की तो प्रेमी के साथ मिलकर उनकी जान ही ले ली और कई दिनों तक दोनों शवों को घर में बंद कर उस पर तेजाब डालते रहे ।

सवाल ये है कि आखिर ये कैसा प्रेम है ? इतनी छोटी उम्र में इतने हिंसक इरादे और अमानवीय सोच । वो भी अपने ही माता पिता के प्रति । या यूँ कहें कि माता-पिता से भी बढ़कर इंसानों के प्रति । क्योंकि इस अनाथ बच्ची को घर लाकर जिन लोगों ने उसका जीवन संवारने की सोची वो तो जन्म देने वाले माता-पिता से भी बढ़कर थे । प्रश्न ये भी है कि आज के ज़माने में जब दो लोगों के विचार और व्यवहार सामान्यतः विरोधी ही होते है इन दोनों में इतना समन्वय और बेहूदा समझ रही कि इक्कीस साल का प्रेमी भी इस पीड़ादायी हादसे को अंजाम देने में साथ हो लिया । प्यार के जिस पावन भाव के लिए इन दोनों ने इस कुत्सित कर्म को अंजाम दिया, इन्हें उसकी समझ भी है ? ये प्रेम का अर्थ ही समझते तो संभवतः ऐसा कुछ  करने का विचार भी मन में ना आता । 

 न वर्तमान की समझ न भविष्य की सोच । इस पीढ़ी को बस आज़ादी चाहिए। अपने निर्णय आप करने की सनक लिए है आज की किशोर पीढ़ी । क्या ये सोचते भी हैं कि ऐसे ही तथाकथित प्रेम में पड़कर स्वतंत्रता नहीं पाई जा सकती है । आखिर जा किस ओर रही है ये नई  पौध ? प्रश्न ये भी है कि समाज में बेटियों अस्मिता और आत्मसम्मान वाली छवि भी किस रंग में रंगी जा रही है ? बीते कुछ बरसों में किशोरों की सोच एक नकारात्मक मार्ग पर जाती दिख रही है । दुष्कर्म और चोरी डकैती से लेकर हत्या और लूटपाट तक में कम उम्र के अपराधियों  की भागीदारी बढ़ी है । ऐसे में अब ये ज़रूरी हो चला है कि इन्हें इनके अपराध की कड़ी से कड़ी सजा मिले । बड़ौदा में हुई इस घटना में भी लड़की की उम्र नाबालिग है जिसके चलते  उसे सुधार गृह ही भेजा जायेगा । जो और भी दुखद है । ऐसा लगता है जैसे  भोलेपन और कम  उम्र की आड़ में हम अपराध को पोषित कर रहे हैं ।

जिस तरह हमारे समाज में कम उम्र के अपराधियों की संख्या बढ़ रही है निश्चित रूप से अब मासूमियत के मापदण्ड नए सिरे तय किये जाने जरूरी भी हैं। हर तरह के कुकृत्य और अपराधों में बर्बरता दिखाने वाले अमानुष और दरिंदों के चेहरे पर मासूमयित देखने वाले कानून में बदलाव अब समय की जरूरत है । आज नई पीढ़ी को यह पुख्ता संदेश देना भी जरूरी है कि सज़ा उम्र नहीं अपराध की गंभीरता तय करेगी ।इस विषय में सोचा जाना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि ऐसे नियम कानून पूरे समाज के मनोविज्ञान को प्रभावित करते हैं। घर के भीतर हो या बाहर ऐसी वीभत्स घटनाओं को अंजाम देकर लचर कानूनों के चलते बच निकलने वाले इन किशोर अपराधियों के बढ़ते आँकड़े आमजन को मनोबल तोड़ते हैं। उनके मन में असुरक्षा और आक्रोश भरते हैं। 
जिस समाज में किसी अच्छे काम को स्वीकार्यता दिलाने के लिए अनगिनत उदहारण भी कम पड़ते हैं उसी समाज का  मनोबल तोड़ने और नकारात्मकता लाने  के लिए एक हादसा ही काफी होता है । ऐसे में किसी अनाथ बच्चे को घर लाकर उसकी परवरिश करने और बेहतर ज़िन्दगी देने की सोच रखने वाले जाने कितने ही दंपत्ति  इस घटना के बारे में जानने के बाद शायद अपने निर्णय पर पुनर्विचार करें ।