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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

31 August 2014

बच्चों की परवरिश के सही मायने समझें हम

परिवार पोषित करे समझ और संवेदनशीलता

मॉल के एक मंहगे से आउटलेट के सामने पांच साल के एक बच्चे ने पानी की खाली बोतल ठोकर मार कर उछाल दी । बोतल उस क़ीमती सामान वाली दुकान के दरवाज़े पर खड़े गार्ड के मुंह पर जाकर लगी । देखकर लगा कि गार्ड के चेहरे पर मजबूरी मिश्रित गुस्सा था पर उसने कुछ कहा नहीं । ये सारा खेल वहीँ खड़े संभ्रांत परिवार के दिखने वाले पढ़े लिखे माता पिता ने भी देखा । मुझे हैरानी इस बात पर हुई कि सब कुछ देखने बाद भी उन्होंने बच्चे को कुछ नहीं कहा । फिर सोचा कि संभवतः यहाँ पब्लिक प्लेस में बच्चे को कुछ नहीं कहना चाहते होंगें । जब ध्यान से देखा तो पाया कि उन्होंने तो बच्चे की इस हरकत को उसका सामान्य खेल ही  समझा है । तभी तो ख़ुशी ख़ुशी लाडले का हाथ पकड़ा और वहां से चले गए । ऐसे में मन में यह विचार आया कि कम से कम उन्हें उस गार्ड से जो कि पूरी जिम्मेदारी और मुस्तैदी से अपना काम कर रहा था, माफ़ी तो ज़रूर मांगनी चाहिए थी । मन में ये सवाल भी उठा कि उस गार्ड के मुंह पर जाकर लगी बोतल के बारे में जिन अभिभावकों ने सोचा तक नहीं वे अगर बच्चा घर का कोई छोटा सा सामान या गैजेट तोड़ दे तो क्या इसी तरह चुप रहेगें और अपने सभ्य व्यवहार को बनाये रखेंगें ? 

सवाल ये है कि जब हम बच्चों को मनुष्यता का मान करना ही नहीं सीखा रहे हैं तो वे कैसे नागरिक बनेगें ? यह एक अकेला मामला नहीं है । ऐसी कई घटनाएँ इन दिनों में देखीं तो लगा कि आजकल बच्चे बेधड़क यही सीख रहे हैं कि उन्हें ना तो किसी के श्रम का मान करना है और ना ही उम्र का लिहाज । जबकि मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं बालमन पर छोटी छोटी बातों का गहरा असर पड़ता है । उनकी सोच और समझ की दिशा बचपन में मिली सीख से ही दृढ़ता पाती है । निःसंदेह ये समझाइश सकारात्मक होगी तो बच्चों की सोच और व्यवहार को भी सही दिशा मिलेगी । ठीक इसी तरह यदि उन्हें ऐसे समय पर टोका न जाय तो उनकी सोच और आचरण नकारात्मक मार्ग ही पायेंगें । हमारे आसपास होने वाले ऐसे वाकये इसी बात को पुख्ता करते हैं कि जाने अनजाने अभिभावक ही बच्चों को इंसानियत से ज़्यादा का चीज़ों का मान करना सीखा रहे हैं । ऊँच-नीच और छोटे-बड़े का भेद बता रहे हैं । अब यह समझना तो किसी के लिए भी मुश्किल नहीं कि वे किस आधार पर दूसरों को कमतर या बेहतर समझ रहे हैं या अपनी नई पीढ़ी को समझा रहे हैं ?   

हमारे परिवेश में आये दिन होने वाली अमानवीय घटनाओं को लेकर हम चिंतित रहते हैं । सरकार को कोसते हैं । कानून की कमज़ोरियों की दुहाई देते हैं। पर इन सबके बीच भूल जाते हैं तो बस ये कि अभिभावक होने के नाते बच्चों की फीस और ज़रूरत का सामान जुटाने के अलावा भी हमारी कुछ जिम्मेदारियां है । जिम्मेदारियां, जो सही ढंग से न निभाई जाएँ तो बच्चों का व्यक्तित्व कुछ ऐसा बनेगा जो न केवल अभिभावकों को बल्कि परिवार और समाज को भी प्रभावित करेगा । मन में किसी के प्रति सम्मान और संवेदनशीलता न होना समाज में पनपने वाली अधिकांश समस्याओं की जड़ है । क्या हमें बच्चों में इस विचारशीलता और सही बर्ताव का आधार बनाने की आवश्यकता नहीं ? छोटी सी उम्र में ही व्यवहार की उग्रता और असंवेदनशीलता आगे चलकर उन्हें हर तरह जिम्मेदारी से उदासीन और भावशून्य ही बनाएगी । मैं जो कह रही हूँ वो कोई नया विचार नहीं है । बच्चों के पालन पोषण को लेकर यह बात शायद हज़ारों बार कही और सुनी गयी है । इस दौरान अभिभावक और सचेत और शिक्षित भी हुए हैं । पर हम सब कहीं गुम हैं । समझ और सहूलियत होने के बावजूद भी अपनी ही जिम्मेदारी के प्रति उदासीन ।  हाँ,  चेतते ज़रूर हैं, पर अक्सर देरी हो जाने के बाद । जबकि ज़रुरत इस बात है कि हम समय रहते चेतें और बच्चों की परवरिश के सही मायने समझें । 


25 August 2014

बहती भावनाओं का संकलन…… तुम्हारा नदी हो जाना...

बनवारी कुमावत 'राज' 
आम जीवन से जुड़ा विमर्श और मिट्टी से जुड़ाव की महक । बनवारी कुमावत 'राज'  की कवितायेँ इन्हें अद्भुत ढंग से समेटे है । प्रेम के स्पंदित भाव को समर्पित बनवारी की कवितायेँ जीवन के हर उस रंग को लिए हैं जो कहीं गहरे दस्तक देता है । विचारणीय बात ये है कि  बनवारी की अभिव्यक्ति में भाव भी हैं और प्रभावी बिम्ब भी । दोनों साथ चलते है और पढ़ने वाले को एक प्रवाहमयी धारा  में बहा ले जाते हैं । हर कविता अपने आप में भावों का पूर्ण प्रकटन है । मन की बात बस कह दी जाती है और 'तुम्हारा नदी हो जाना' पढ़ने वाले के मन तक पहुँच भी जाती है । सहज सरल पर प्रभावी भावाभिव्यक्ति । यह बनवारी  का पहला कविता संग्रह  है। 88 कविताओं का ये संग्रह कुछ दिन पहले ही मिला और पढ़कर इस युवा कवि का दृष्टिकोण जाना । हर कविता कुछ कहती सी, बहती सी लगी । जैसे स्त्री मन की अनकही पीड़ा को बहती नदी के बिम्ब ले बनवारी ने कुछ यूँ  शब्दों में उकेरा है ।  

नदी औरत / हमेशा बहती हैं 
सवाल दोनों के मन में है / जवाब 
कोई नहीं देता । 

ऐसी ही एक मर्मस्पर्शी रचना है 'घर बनाती बेटी' । यह आम जीवन से जुड़ी सी रचना है। घरौंदा बनाती  छुटकी हर आँगन में दिख जाती है । बस, उसी भाव और अवलोकन को लिए है ये कविता  । खुश होकर बेटियां घर बनाती है पर समय के साथ कैसे ढह जाता है उनका ये मिट्टी का घरौंदा और गुम  हो जाती है उनकी खिलखिलाहट, एक कटाक्ष भी है और उस विडंबना का आइना भी जो हमारे समाज और परिवार का अनकहा सच है ।

मिट्टी का घरौंदा बनाती / आज बहुत खुश है
मेरी छुटकी………
अपना घर बनाती बेटी / नहीं जानती  
हाथों की मिट्टी धोने से पहले / ढहा दिया जायेगा घर 
और ढहते हुए घर के साथ / ढह जाएगी 
इसकी खिलखिलाहट/ इसके सपने
संसार……… सब कुछ ।  

बनवारी की कविताओं में प्रेम के रंग भी बिखरे हैं । प्रेम का सहज दृष्टिकोण इन पंक्तियों में परिलक्षित होता है जहाँ प्रेम के अहसास में गुम मन इससे बढ़कर क्या सोच सकता है कि अपने अस्तित्व को ही उसके होने से जोड़ दे । साथ ही स्वयं को मुकम्मल करने के लिए किसी और का अस्तित्त्व विलीन हो जाये ऐसी चाह भी नहीं । बनवारी की ये प्रेमपगी दो रचनाएँ ऐसी ही भाव लिए हैं । 

ये सच है / कि तुम हो 
मेरा होना / इस बात को पुख्ता करता है । 


मुझे समंदर कहकर / तुम्हारा नदी हो जाना 
और फिर दूर पहाड़ों से ज़मीन पर गिरकर / ढूंढते हुए मुझमे मिल जाना 
मुझे अच्छा नहीं लगता / मुझ में मिलकर तुम्हारा खारा हो जाना । 

कविता 'पहली जीत' युवा मन के उत्साह के उस आधार को लिए है जो सकारात्मक भी है और सुखद भी । जिसमें आशाएं तो हैं ही, विश्वास को पुख्ता करने वाले भाव भी भरे हैं । नयी उम्मीद जागती ये रचना बस मन की कहती है ।  

मुरझा गए पौधे पर /ओस की बूंदों से 
जब तुमने लिखा/ वो वक़्त पर 
मेरी पहली जीत थी । 

बनवारी की रचनाओं में गांव, खेत, खलिहान, पनघट, बरगद सब हैं । सब, जो ग्रामीण जीवन की जीवंत अनुभूति करवाते हैं । ऐसी ही एक रचना  है 'कविता में किसान', जो ज़मीन जुड़ी गहरी अभिव्यक्ति लिए है । इसमें बनवारी का ग्रामीण जीवन का देखा जिया अनुभव झलकता है । इस कविता के अंत में कुछ विचार हैं जो एक बड़ा प्रश्न उठाते हैं । कविता में अभिव्यक्त भावों को आधार देते हैं ……… 
शब्दों में महकती हैं फसलें । विज्ञापनों में खिलखिलाते हैं किसान । ये कौन है , जो हल की नोंक थामे पसीने में बह रहा, खुद को किसान कहता है………   यह एक पढ़ने वाली रचना है । मन में हमारे अन्नदाता के प्रति संवेदना जगाती  है । सोचने को विवश करती  है । इस संग्रह में ऐसी ही एक और कविता है 'क्रांति का ज्वार' , जो समाज में बदलाव के नाम पर उपजे दोगलेपन को प्रतिबिंबित करती  है । जिसमें क्रांति के नाम पर आम आदमी के छले जाने और मानवीयता के खो जाने का सन्दर्भ लिए है । ये रचनाएँ आज के दौर का कटु सच सामने रखती हैं । जो मन मष्तिष्क को  झकझोरती है । हकीकत बयां करती है । 

जब गाँव और घर छूटते हैं तो कई रिश्ते नाते भी । ऐसे में माँ से जुड़ा बंधन कभी विस्मृत नहीं होता । वो हमेशा याद आती है और माँ भी हमें याद करती है, हमारा इंतज़ार करती है, ये हम सबका मन जानता है ऐसी ही एक मर्मस्पर्शी रचना है ' माँ ' जो इस संग्रह में शामिल है । यह हर पढ़ने वाले के मन को छूने वाली कविता है ।  

माँ  के हाथों में / ये जो 
आड़ी- तिरछी लकीरें हैं / ये महज लकीरें नहीं 
पीछे छूटते  / मेरे सफर की पगडंडियां हैं ।

बुढा गये घर से पीठ सटाये / माँ घर की नींव बनी बैठी है 
गली के बच्चों से मन बहलाती / माँ तेरा बचपन देखती है ।   

युवा कवि को इस अर्थपूर्ण रचनात्मक प्रयास के लिए बधाई । बनवारी कुमावत 'राज' को सतत लेखन की शुभकामनाएं,  शब्दों और ज़मीन से जुड़ाव का ये भाव सदैव बना रहे । 

07 August 2014

स्त्री ही दोषी क्यों...

कुछ समय पहले एक पढ़े लिखे प्रोफेसर साहब का अपनी पत्नी को सड़क पर घसीट कर मारना -पीटना समाचार चैनलों की सुर्ख़ियों में रहा । कारण था घर के भीतर बैठी प्रेमिका । कल एक और ऐसा ही समाचार इन चैनल्स पर दिखा जिसमेँ एक पत्नी ने पति की प्रेमिका को भरे बाजार पीटा । इस मामले में पत्नी ने अपने पति से रिश्ता रखने वाली महिला को सज़ा दी । पहले वाले केस में पति ने दूसरा रिश्ता रखा और खुद ही पत्नी को इसकी सज़ा भी दे दी। दोनों परिस्थतियां कमोबेश एक सी हैं पर सज़ा  महिला को ही मिली । इन दोनों ही मामलों में भरी भीड़ के सामने एक स्त्री की अस्मिता ही दाव पर लगी । 

सवाल ये है कि इन रिश्तों का हिस्सा तो पति भी रहे हैं । ये  दोनों पति क्या किसी भी तरह से दोषी नहीं ? हर हाल में महिला को ही दोष देने वाली हमारी मानसिकता में कब बदलाव आएगा ? मैं यह नहीं कहती कि इन महिलाओं का कोई दोष नहीं होगा  । पहले मामले में पत्नी और दूसरे मामले प्रेमिका, निसंदेह गलती उनकी भी हो सकती है पर इस गलती में इन दोनों ही पुरुषों की भी उतनी ही भागीदारी है जितनी की इन महिलाओं की । जब ऐसा है,  तो दंड केवल स्त्री के हिस्से ही क्यों ? मामला चाहे जो हो हर बार महिला को समाज की ओर से प्रताड़ना ही क्यों मिलती है ? 

हमारे समाज में किसी महिला के सिर दोष मढ़ना सबसे सरल काम है । खासकर तब, जब ये मामला उसके चरित्र से जुड़ा हो । फिर तो सोचने विचारने की ज़रुरत ही नहीं । जो चाहे कह दीजिये लोग गंभीरतापूर्वक सुन भी लेगें और मान भी लेंगें । इन दोनों मामलों में भी यही तो हुआ । क्योंकि यदि पत्नी दोषी है तो प्रेमिका का कोई दोष नहीं । और प्रेमिका ने गलती की है तो पत्नी अपनी जगह सही है । लेकिन विडंबना देखिये की दोनों ही रूपों में महिला को दंड मिला । यदि किसी शादीशुदा पुरुष से रिश्ता रखने और उसका परिवार तोड़ने वाली महिला को सज़ा मिल सकती है तो उस पुरुष को भी भरे बाजार दंड मिलना चाहिए जो अपने ही परिवार को तोड़ने वाले इस रिश्ते में भागीदार है । अफ़सोस की बात है कि  होता इससे विपरीत ही है । ऐसे मामलों में स्वयं पत्नियों, माओं और बहनों को अचानक ये लगने लगता है कि उनका पति,बेटा या भाई तो गलत हो ही नहीं सकता । ऐसे में पत्नी हो या प्रेमिका दोनों ही पुरुष को दोष न देकर उनसे जुड़ी महिलाओं को संदेह की नज़र से देखती हैं ।  

कितने ही तालिबानी फरमान हैं जो दूर दराज़ के गावों में पंचायते आये दिन जारी करती रहती  हैं । जिनमें गलती परिवार के पुरुष की होती है और सज़ा उस घर की महिला के लिए तय कर दी जाती  है । इस तथाकथित सभ्य समाज में क्यों कोई महिला किसी पुरुष की पत्नी, बेटी, बहन या प्रेमिका होने का दंड भोगे । गलती करने पर किसी महिला को सज़ा में छूट मिले मैं ये नहीं कहती पर अपराध में पुरुष की जितनी भागीदारी है उतनी सज़ा तो उसे भी मिलनी ही चाहिए ।