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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

27 July 2014

समाज का मनोबल तोड़ते हैं महिलाओं के साथ होने वाले अपराध


महिलाओं की असुरक्षा का प्रश्न केवल किसी घटना के घटने और उससे जुड़े समाचारों के प्रसारण-प्रकाशन तक ही आम जन के मष्तिष्क में रहता है | यह आम धारणा है | सच इससे कहीं अलग | बड़े शहरों से लेकर दूर दराज़ के गाँवों तक में होने वाली दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बाद भले ही उस एक हादसे को लोग भूल जाएँ पर हमारे घरों- परिवारों में ऐसी दुखद वारदात के निशान सदा के लिए चस्पा हो जाते हैं | फिर हमारे यहाँ तो आए दिन ऐसी घटनाएँ होती हैं | कोई भूले भी तो कैसे ? झकझोर देते है ऐसे हादसे हर उस परिवार को जिसकी बिटिया कुछ करना चाहती है | आगे बढ़ना चाहती है | घर से दूर जाना चाहती है | यूँ भी  शिक्षा या नौकरी से जुड़ी सारी आवश्यकताएं एक शहर में ही पूरी हो जाएँ, यह संभव भी नहीं है | बेटियों और उनके परिवारों के ऐसे निर्णय को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से ऐसे हादसे प्रभावित करते हैं | इस सीमा तक, की पूरी सोच ही दिशाहीन हो जाती है | उस भय के चलते जो घर से दूर जाने वाली बेटियों के माता-पिता के मन में इन घटनाओं के चलते उपजता है | जो अपने ही शहर में घर से बाहर निकलने वाली बेटियों के अभिभावक झेलते हैं । 

मेरे एक परिचित परिवार की बिटिया ने अपनी पढाई पूरी कर ली है   अब किसी महानगर में जाकर नौकरी खोजना चाहती है | आत्म निर्भर बनने  के सपने को पूरा करना चाहती है |  जिसके लिए उसने दिन रात  मेहनत की है | जो डिग्री उपार्जित की है उसमें अव्वल भी आई है | स्वयं को साबित करने की उसकी दौड़ में उसके परिवार ने भी साथ दिया है | परिवार की भी हमेशा यही इच्छा रही कि बिटिया आत्मनिर्भर बने | पर आये दिन समाचार पत्रों की सुर्खियाँ बनने वाली वीभत्स घटनाओं के चलते अनजाना -अनचाहा भय उनके मन मस्तिष्क में आ बैठा है | परिवारजन अब बस बेटी की शादी कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते हैं | 

ऐसा एक ही परिवार तो नहीं होगा | यह तो हम सब समझते ही है | यह आज के परिवेश का कटु सत्य है कि महिलाओं की असुरक्षा पूरे समाज और परिवार का मनोबल तोड़ रही है | इस देश में अनगिनत परिवार हैं जो ये चाहते हैं कि उनकी बेटी किसी पर आश्रित ना  रहे | जीवन में आने वाले भले बुरे वक्त में अपना सहारा आप बने | ऐसी सोच रखने वाले अभिभावकों की मानसिकता को ठेस पहुँचाते हैं ये हादसे | महिलाओं की अस्मिता के साथ होने वाला यह दुखद खेल पूरे समाज की आशावादी सोच को आघात पहुँचा रहा है | उस मानसिकता को आहत कर रहा है जो बेटियों को हर तरह से अधिकारसंपन्न बनाने का स्वप्न  संजोये हैं | 

देश की आधी आबादी के साथ होने वाली ऐसी निर्मम घटनाएँ अपने ही देश में हमें असहाय होने का अनुभव करवाती हैं | ऐसी परिस्थितियों में पलायन की सोच बहुत प्रभावी हो जाती है | जिसके चलते अनगिनत परिवार अपनी बेटियों की सुरक्षा के लिए इतने चिंतित हैं  कि बिटिया के भविष्य को लेकर बुने सपनों से ही  मुंह मोड़ लेते हैं  | यह सच  है कि यूँ पीछे हटने मात्र से इस सामाजिक विकृति का हल नहीं खोजा जा सकता ।  पर वास्तविकता यह भी है कि पलायनवादी सोच भी अपने पैर तो पसार ही रही है | कितनी  जद्दोज़हद के बाद तो समाज की मानसिकता में परिवर्तन परिलक्षित हुआ है कि बेटियों के आगे बढ़ने में कोई बाधा उपस्थित न हो | ऐसे में अपने पारिवारिक -सामाजिक परिवेश की लड़ाई क्या कम थी जो अब इन घटनाओं के चलते भी आम परिवारना चाहते हुए भी बेटी की उन्नति को दोयम दर्ज़े पर रखने को मजबूर हो रहा है | 

आम भारतीय परिवार के मनोबल को दुर्बल करने के लिए जितनी ये दुखद घटनाएँ उत्तरदायी हैं उतनी ही जवाबदेह इन्हें रोकने में हमारी प्रशासनिक व्यवस्थाओं की विफलता भी है | लम्बी कानूनी प्रक्रिया हो या अपराधियों को दण्डित करने का निर्णय | हर बार सत्तालोलुप सोच के चलते बस राजनीति ही की जाती है इन हादसों  को लेकर | ऐसे में देश के परिवार अपनी बेटियों की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त हों भी तो कैसे ?  ऐसी घटनाओं को लेकर पूरी व्यवस्था ही निर्दयी और संवेदनहीन प्रतीत होती है | 

05 July 2014

रंगों से खेलो

चैतन्य 
चैतन्य
रंगों से खेलो ही नहीं
इन से जुड़ जाओ
जीवन की ओर मुड़ जाओ
उकेर लो सब कुछ साफ़ कागज़ पर
अपनी कूँची के स्पर्श से
और बिखेरों आलोक
अपने इंद्रधनुषी व्यक्तित्व का
रंगों से रचो प्रकृति को
या उकेरो अपने मन का
जानो और समझो
हर रंग अलग है
न्यारी है उसकी आभा
ये मिलकर नया रंग खिलाते हैं
तुम इन्हें बाँध लो
अपने मन की साध लो

हँसते रंगों से रचो नया संसार
रंग-बिरंगी तितलियां
जो खुशियां लिए उड़ती फिरें
अपने सतरंगी पंखों पंखों से
बिखेर दें मुस्कराहट के नये  रंग
रंग जो फीके न हों
चैतन्य,
कूँची तुम्हारे हाथ है
मिला दो कई रंगों को
कर दो एकाकार जैसे मन मिलते हैं
और जानो-सीखो
जीवन कच्चे-पक्के रंगों सा है
सबसे मिलो, और समझो नया गढ़ने के सूत्र
अपने अस्तित्व को सहेजते हुए......