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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

25 June 2014

संबंधों के निर्वहन का संघर्ष

घुटन बनता  रिश्तों का घेरा 


रिश्ते सहज सरल बहते से हों तो जीवन को सुदृढ़ सहारा मिलता है । चेतन- अवचेतन मन में यह विश्वास बना रहता है कि हमारे अपने हैं जो हर परिस्थिति में साथ निभायेंगें । यह विश्वास सुरक्षा भी देता है और सम्बल भी । आमतौर पर महिलाएं रिश्तों की उलझन से ज़्यादा दो चार  होती हैं । इसका कारण  यह है कि हमारे सामाजिक परिवारिक परिवेश में संबंधों को निभाने का जिम्मा भी अधिकतर महिलाएं ही उठाती हैं।इस दुविधा को आए दिन जीती हैं । 

रोज़ रोज़ की व्यावहारिक और मौखिक क्रिया प्रतिक्रिया आजकल घर परिवार के संबंधों में भी आम हो चली है । अनबन का खेल कुछ ऐसा कि रिश्ते निभाने भी हैं और सुकून भी हासिल नहीं । रिश्ते यदि आत्मीय हों तो भावनात्मक सहारा  देते हैं पर यही रिश्ते यदि खटास और उलझन लिए हों तो आपस में जुड़े  रहना मात्र औपचरिकता भर रह जाती है । सामंजस्य बनाये रखने की क्षमता अब किसी के पास नहीं । हर कोई चाहता है कि दूसरे  लोग उनके मन मुताबिक व्यवहार करें । उनकी सुनें, उन्हें समझें । सही दृष्टिकोण के साथ संतुलित व्यवहार अब कम  ही घरोँ में देखने को मिलता है । भले ही ये रिश्ते नाते अपनों से जुड़े होते हैं पर इनमें सभ्य और असभ्य व्यवहार का हर रंग शामिल होता  है ।

भले ही ज़माना बदल गया है पर रिश्तों- नातों की उलझन देखकर कई बार तो यही लगता है कि आज भी कितने ही पारिवारिक और सामजिक पहलू हैं जहां बदलाव कस नाम पर कुछ नहीं बदला  । कुछ रिश्ते औपचरिकता के बोझ तले दब गए तो कुछ सम्बन्ध हद से ज़्यादा खुलेपन की भेंट चढ़ गए हैं । समय के साथ आये बदलाव के चलते आज आपसी संबध भी सकारात्मक कम नकारात्मक अधिक लगते हैं । सच  ये है कि एक दूजे से जुड़ने के साधन बढ़ गए हैं तो दूरियां भी बढ़ी हैं । भावनात्मक लगाव अब आर्थिक चमक दमक की भेंट चढ़ गया लगता है । हम अपनेपन के मोल को समझते हुए खुशियां बाँटना भूलकर हैसियत तौलने में लग गए हैं ।

एक स्त्री होने के चलते रिश्तों को काफी करीब से देखा है। क्योंकि लड़कियां चाहे शादी के पहले मातापिता के घर में रहें या शादी के बाद अपना घर बसा ले, रिश्तों के निबाह की जिम्मेदारी उन्हीं पर होती है । सामाजिक दायित्वों को पूरा करने में उन्हें कोई छूट नहीं मिलती । जाहिर सी बात है कि वे रिश्तों के  उतार चढाव का सामना हर रूप में करती हैं।  संबंधों की अनबन को  महिलाएं ही सबसे ज़्यादा झेलती हैं । सबंधों के निर्वहन के संघर्ष में कितना  ही तनाव और अपराधबोध चाहे अनचाहे उनके हिस्से आ जाता है ।

एक विशेष बात जो आजकल रिश्तों में देखने आती है वो ये कि घर के बाहर निकलते ही हमें संयम, समझदारी और व्यवहारिकता सब आ जाती है । जबकि अपनों के साथ हम इस सहृदयता से कम  ही पेश आते हैं । यही बात संबंधों के निभाव को और कठिन बना देती है । सोचती हूँ हम बाहरी संबंधों को निभाने में जितनी सावधानी और समझ काम में लेते हैं उतनी हम अपनों को साथ लेकर चलने में नहीं बरतते ।परिणाम यह होता है जाने-अनजाने चाहे- अनचाहे  रिश्तों अवमूल्यन हो जाता है । बिखरते संबंधों के इस दौर में हमें हर पल याद रखना होगा कि  रिश्ते आपसी जिम्मेदारी के भाव से जीवंत बने रहते हैं, इन्हें एक दूजे पर लादा नहीं जा सकता  । इनकी मिठास सहज स्वीकार्यता में ही है । जो एक दूजे का मान करने से ही बनी रह सकती है ।