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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

21 May 2014

बेटियो- तुम पढ़ो-लिखो



बेटियो
तुम पढ़ो-लिखो
पढ़ोगी नहीं तो आगे बढ़ोगी कैसे
जीवन को समझोगी कैसे
समझीं नहीं तो जियोगी कैसे
पर स्मरण रहे
जब उठाओ कागज़ कलम
तो चाहे कहानी, किवदंती पढ़ो
या गीत, कविता गढ़ो
शब्दों से सबक लेना
बहकना नहीं
समाचारों की सुर्खियाँ पढ़ो तो
संभलना सीखना
डरना नहीं
पढऩा-गुनना संभलने के लिए
भटकने के लिए नहीं
शब्दों की अंगुलियाँ थाम
जाना उस मार्ग पर
जो समझाए सही प्रयोजन
शिक्षित होने का
कुछ बनो ना बनो
स्वयं को हरगिज ना खोने का
सही अर्थों में समझना
कल्पना और यर्थाथ का अंतर
उग्रता नहीं दृढ़ता को बनाना
अपना संबल और
साध लेना हर स्वपन

14 May 2014

बेटी बचाने की हकीकत और हमारी संवेदनहीनता


जिस समाज की सोच इतनी असंवेदनशील है कि बेटियों को जन्म ही ना लेने दे वहां उन्हें  शिक्षित, सशक्त और सुरक्षित रखनेे के दावे तो दावे भर ही रह जाते हैं। हाल ही में आई एक रिर्पोट ने इस ज़मीनी हकीकत से हमें फिर रूबरू करवा दिया है कि हम लिंग अनुपात के संतुलन को बनाये रखने के लिए कितने चिंतित हैं? महिलाओं को लेकर हमारी सोच और संवेदनशीलता में क्या बदला है ? संम्भवत कुछ भी नहीं । तभी तो देश के सबसे बड़े सर्वे के नतीजों में यही परिणाम सामने आया हैै कि भारत में चार साल तक की लड़कियों का ताज़ा लिंगानुपात मात्र 914 है ।  समय-समय पर सामने वाली ऐसी रिपोर्ट्स और आँकड़े पढ़कर- देखकर मन मस्तिष्क सोचने को विवश हो जाता है । ना जाने क्यों ऐसा लगता है कि मानसिकता वहीँ की वहीँ है । बेटियों का जीवन सुरक्षित हो और वे सशक्त बनें यह समग्र रूप से देखा जाये तो हकीकत काम फ़साना ज़्यादा लगता है । 

विचारणीय बात ये भी है कि जिन्हें जीवन पाने और जीने का सम्मान ही नहीं मिल रहा उन्हें शक्ति सम्पन्न बंनाने के लिए अनगिनत कानून कायदे बना  भी दिए जाएँ, तो क्या लाभ ? विकराल रूप धरती जा रही भ्रूणहत्या  की समस्या इस तरह तो पूरी सृष्टि के विकास पर ही प्रश्नचिन्ह लगाती नज़र आ रही है। साथ सवालिया निशान लगा रही है हमारी पूरी सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था पर। मानवीय मूल्यों की परंपरा लिए हमारी पारिवारिक व्यवस्था का यह वीभत्स चेहरा बताता है कि आज भी बेटियाँ बोझ ही लगती हैं। जिसकी जिम्मेदार हमारी सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था है । तभी तो हर बार यही महसूस होता है कि बहुत कुछ बदल कर भी कुछ नहीं बदला ।     

आज भी समाज में बेटियाँ जन्म लेने से लेकर परवरिश पाने तक हर तरह के भेदभाव का शिकार हैं। बदलाव आया ज़रूर है पर इतना नहीं कि उसके विषय में चिंता करनी छोड़ दी जाये ।वास्तविकता  इसलिए भी चौंकाने वाली है क्योंकि बीते कुछ बरसों में कई योजनाएं और कानून बेटियों के सर्मथन में अस्तित्व में आए हैं। ना जाने कितने ही सरकारी और गैर सरकारी संगठन जनजागरूकता लाने के लिए प्रयासरत हैं। ऐसे में बालिकाओं की घटती संख्या तो पूरे समाज के लिए चेतावनी है ही भ्रूणहत्या के बार बार गर्भपात करवाने के चलते मांओं के स्वास्थ्य के साथ किया जाने वाला खिलवाड़ भी भविष्य में डराने वाला परिदृश्य ही प्रस्तुत करेगा। क्योंकि माँ हो या बिटिया सेहत ही ना रही सशक्तीकरण कैसा ? सवाल ये भी है कि जिन बेटियों का दुनिया सम्मानपूर्वक आने और अपना जीवन जीने का अधिकार ही नहीं मिल रहा है उन्हें सशक्त और सफल बनाने की सारी कवायदें ही बेमतलब हैं।   

सच तो  ये है कि बेटियों को बचाना है तो दिखावा नहीं कुछ ठोस कदम उठाये जाने आवश्यक हैं। जिसकी शुरूआत इसी विचार से हो सकती है कि किसी भी घर-परिवार में बिटिया का जन्म बाधित ना हो । उन्हें संसार में आने दिया जाए। उनके पालन पोषण में कोई भेदभाव ना बरता जाए। निश्चित रूप से ऐसा करने के लिए कोई कानून और योजना काम नहीं कर सकती। हमारी अपनी मानसिकता और बेटियों के प्रति स्नेह और सम्मान का भाव ही यह परिवर्तन ला सकता है।  जो कि हमारी अपनी भागीदारी के बिना संभव नहीं । 

07 May 2014

गिरती गरिमा की राजनीति



शब्द जिसके मुख से उच्चारित होते हैं उस व्यक्ति विशेष के लिए हमारे मन में गरिमा और विश्वसनीयता के मापदंड तय करते हैं । इस विषय में एक यह भी मान्यता होती है कि कही गयी बात बोलने वाले व्यक्ति ने विचार करने के बाद ही अपनी बात कही होगी । चर्चित चेहरों के विषय में बात ज्यादा लागू होती है क्योंकि समाज में उन्हें एक आदर्श व्यक्तित्व के रूप में देखता है । संभवत: इसीलिए कहा गया है कि प्रसिद्धि अपने साथ उत्तरदायित्व भी लाती  है । जिसे निभाने के लिए सबसे पहला कदम तो यही है कि विचार रखने से पहले सोचा समझा जाय । 2014 के आम चुनाव के आखिरी चरण तक आते आते भारतीय राजनीति का गरिमाहीन चेहरा भी जन सामान्य के समक्ष है। इन चुनावों  भी विभिन्न राजनीतिक दलों में एक दूसरे के मानमर्दन का खेल चरम पर है। डीएनए टेस्ट से लेकर कौमार्य परीक्षण जैसे गरिमाहीन शब्द का प्रयोग हुआ है । 

बिना सोचे विचारे दिए गए ऐसे वक्तव्यों लेकर जैसे ही विवाद मचता हैै ये नहीं कहा था वो कहा था की सफाई देने का खेल शुरू हो  जाता है। सवाल ये है कि हमारे माननीय नेतागण ये क्यों नहीं समझते कि शब्द जब तक अकथित हैं विचारों के रूप में केवल हमारी अपनी थांती हैं । मुखरित होने के बाद शब्द हमारे नहीं रहते । इसीलिए जो कहा जाए वो सधा और सटीक हो यह आवश्यक  है। यूँ भी शब्दों के प्रयोग को लेकर विचारशीलता बहुत मायने रखती है । अगर वे इस वैचारिक भाव ही नहीं रखते तो इस देश का प्रतिनिधित्व क्या करेंगें? उनकी  अभिव्यक्ति मर्यादित है या नहीं, यह सोचने की भी फुरसत नहीं तो वैश्विक स्तर पर इस देश की गरिमा को कितना सहेज पायेंगें? देश के कर्णधारों को समझना  चाहिए कि जो कह डाला उसे बदलने या अपने कहे की जिम्मेदारी ना लेने से उनके अपने ही विचार और व्यवहार की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आती है । 

बयानबाज़ी के इस खेल में भ्रष्टाचार, विकास और देश के नागरिकों की सुरक्षा जैसे मुद्दे तो चुनावी पटल से ही नदारद हो गये। व्यक्तित्वों और वकत्व्यों की जितनी छिछालेदर इन चुनावों में हो रही है, पहले कभी नहीं हुई। सत्ता के समीकरणों को मन मुताबिक बनाने के खेल में ना कोई अपने पद की गरिमा समझ रहा है ना ही जिम्मेदारी। आए दिन किसी ना किसी राजनीतिक चेहरे के द्वारा कोई ना कोई बेहूदा बयान देकर मीडिया चैनलों पर सुर्खियां बटोरने का कार्य किया जा रहा है। देश में गरिमाहीन राजनीतिक बयानों की बयार बह रही है। सार्वजनिक जीवन में हमारे देश के कर्णधारों को ना तो सोच समझकर बोलना आ रहा है ना विपक्षी पार्टियों से आए बयानों का उत्तर  देना। इस ज़ुबानी जंग में मानवीय मर्यादा और स्वाभिमान दोनों ही सिद्धांतहीन राजनीति की भेंट चढ़ गये हैं। सवाल ये है कि आखिर इस देश के नेतागण इस बात को क्यों नहीं समझते कि ये गरिमाहीन वक्तव्य वैश्विक स्तर पर भी भारत और भारतीयता की साख गिराने वाले है।