एक ऐतिहासिक और मानवीय फैसले में भारतीय उच्चतम न्यायालय ने किन्नरों को थर्ड जेंडर यानि कि तीसरी लिंग श्रेणी की मान्यता दी है। संवेदनशील और मनुष्यता का मान करने वाले इस फैसले के बाद भारत दुनिया के ऐसे इक्के-दुक्के देशों में शामिल हो जायेगा जहां ट्रांसजेंडर्स को यह दर्ज़ा मिला है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी अधिकारों से भी वंचित इस तबके लिए यह निर्णय यकीनन मानवीय गरिमा की प्रतिष्ठा करने वाला है। उनके लिए अपनी ही पहचान अब परेशानी का विषय नहीं। अब उन्हें भी शिक्षा, समाजिक समानता और काम पाने का पूरा अधिकार है। यह फैसला 2012 में (नालसा) नेश्नल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी द्वारा दायर की गयी अपील को लेकर आया है। इस याचिका में किन्नरों के लिए समान अधिकार और सुरक्षा की मांग की गई थी।
सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में किन्नरों के साथ होने वाले भेदभाव पूर्ण व्यवहार को लेकर भी चिंता जताई और कहा कि वे इस देश के नागरिक हैं, उन्हें अपने अधिकार मिलें यह सुनिश्चित करना प्रशासन का काम है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि किन्नरों की सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियां काफी कमज़ोर है । इसलिए उन्हें पिछड़े वर्ग को मिलने वाले आरक्षण का भी लाभ मिलना चाहिए।
सवाल ये है कि क्या न्यायालय के निर्णय की सार्थकता बिना सामाजिक स्वीकार्यता के संभव है ? किसी इंसान के मन की पीड़ा को समझने के लिए जो संवेदनशील सोच ज़रूरी है वो केवल कानूनों के माध्यम से पैदा नहीं की जा सकती। मनुष्यता के मायने ना समझने वाले लोग आज भी कुदरत की भूल से मिले दंश को झेलने वाले किन्नर समुदाय की वेदना नहीं समझ सकते। शारीरिक विकार के चलते आत्मगलानि में जी रहे थर्ड जेंडर के लोगों को हेय दृष्टि से देखा जाना ही उनको सबसे अधिक पीड़ा देता है। इसीलिए कानून के इस सराहनीय फैसले के साथ ही समग्र रूप से पूरे समाज की सोच में बदलाव बदलाव आना भी ज़रूरी है। असल मायने में देखा जाये तो सामाजिक स्वीकार्यता का भाव ही थर्ड जेंडर की इस कानूनी मान्यता को मानवीय आधार दे पायेगा।
2009 के चुनावों से चुनाव आयोग अन्य की श्रेणी में उन्हें मतदाता पहचान पत्र दे रहा है। इतना ही नहीं हमारे देश में तकरीबन 28, 341 किन्नर मतदाता के रूप में पंजीकृत हैं। 2011 की जनगणना में इस समुदाय के लोगों की गिनती अन्य में की गई थी जिसके आँकड़े जारी नही किए गए पर गैर सरकार संगठनों की माने तो किन्नरों की आबादी 5 लाख तक होने का अनुमान है। समाज में हमेशा से हाशिये पर रहे किन्नर समुदाय की इसी सामाजिक स्वीकार्यता को लेकर देश की शीर्ष अदालत भी चिंतित है क्योंकि ये देश की एक बड़ी आबादी हैं जो अपने मानवाधिकारों से ही वंचित हैं। तभी तो सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि किन्नरों के सामाजिक कल्याण के लिए योजनाएं चलाई जाएं और उनके प्रति होने वाले सामाजिक भेदभाव के को लेकर जन समुदाय को जागरूक बनाने के अभियानों को बल दिया जाए। वैसे तो हमारे देश में संविधान के ज़रिए यह सुनिश्चत है कि धर्म, जाति या लिंग के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव ना हो। इस फैसले के बाद किन्नर समुदाय भी किसी आम महिला या पुरूष की तरह संविधान द्वारा प्रदत्त सभी तरह के अधिकारों के दावेदार होंगें। अब तक इन अधिकारों से वंचित होने के कारण किन्नरों को कई तरह की मानसिक प्रताडऩा, हिंसा और यौन हमलों का भी शिकार होना पड़ता था। इसीलिए देश के इस तबके को मिलने वाली प्रताडऩा और भेदभाव से मुक्ति समाज के हर इंसान के मन में सम्मान और समानता मिले बिना संभव नहीं। इस निर्णय की सार्थकता को सही अर्थों में आधार सामाजिक स्वीकार्यता मिलने पर ही मिल सकेगा। ऐसा होने पर ही पक्षपात और हीनता भरी दृष्टि से मिलने वाले अकल्पनीय दर्द से वे खुद को बचा पायेंगें। आवश्यकता इस बात की है आमजन के साथ ही प्रशासन भी थर्ड जेंडर के प्रति संवेदनशील बने ताकि खुद को अलग-थलग पाने और समझने के बजाय इन्हें गरिमामयी जीवन जीने का अधिकार और हौसला मिले।