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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

07 January 2014

सम्बन्धों को निभाने की मुश्किलें




सहज सरल से बहते रिश्ते जब उलझ जाएँ तो कितने असहज हो जाते यह समझना किसी के लिए मुश्किल नहीं। सम्बन्ध जब तक सकारात्मक बने रहते हैं ऊर्जा और विश्वास की  सौगात देते हैं। पर इनसे जुड़ी अस्थिरता और उलझनों से मानसिक पीड़ा के सिवा कुछ नहीं मिलता । सम्बन्ध जब विस्तार पाते हैं तो हमारी सोच और समझ को भी नया आसमान देते हैं । स्वीकार्यता का भाव भी गहरा होता है । एक दूजे से जुड़ने और साथ देने के भाव से मन का भरोसा आश्रय पाता है । 

यही रिश्ते जब नित नए समीकरणों को सामने लाते हैं तो आपसी तालमेल कहीं खो जाता है और सम्बन्धों में शिथिलता आ जाती है । आजकल हमारे परिवारों में रिश्तों और रिश्तेदारी दोनों को नाकारा तो जा रहा है, पर क्यों ? परिवार टूट रहे हैं । सम्बन्ध बिखर रहे हैं । ऐसे में हम सब के लिए रिश्तों को निभाने में आ रही उलझनों के बारे में भी सोचना आवश्यक हो जाता है । नहीं तो जाने-अनजाने रिश्तों में स्थान पाने वालीं ये दूरियां अपने लिए एक स्थायी जगह बना लेती हैं । आत्मीयता सदा लिए खो जाती है और नकारात्मकता घर में, मन में आ बसती है । परिणामस्वरुप अपने परिवेश और उसमें बसने वाले लोगों से  जुड़े रहने का स्वाभाविक भाव कहीं गुम हो जाता है । 

 परिस्थितियां जब ऐसी बन जातीं  हैं तो दुनियाभर से जुड़ने वाले लोग भी अपने ही माहौल के प्रति संकीर्ण सोच रखने लगते हैं । अधिकतर देखने में आता है कि रिश्तों में तालमेल चाहते  तो सब हैं पर उसके लिए पहल कोई नहीं करता । एक अजीब सी कटुता घर कर गयी है सभी  की सोच में । हमारे परिवारों में ऐसे कितने ही सम्बन्ध हैं जो छोटी छोटी बातों के बड़े बन जाने की राजनीती का शिकार बनते हैं । अहम के गणित में रिश्तों की लाभ-हानि का प्रश्न एक बड़ा सवाल बन कर रह जाता है । जिसका हल खोजने की माथापच्ची  किसी को नहीं करनी । कई बार लगता है जैसे हर कोई स्वयं को ही समेट  कर जीना चाहता है । अपना जीवन अपने तक ही । जाने कैसा भय है जो अपनों से ही नहीं जुड़ने देता ? कई बार औपचारिकता  भरे ऐसे रिश्तों का परस्पर निर्वाह करना एक दूजे पर बोझ लाद  देने जैसा लगता है । 

सम्बन्धों के खालीपन और कुछ खो देने की अनुभूति होती तो है पर इस  दुःख को नकारने की सोच कहीं अधिक प्रभावी हो चली है । अब रिश्तों के टूट जाने के चलते कोई भावनात्मक अपराधधबोध भी नहीं दीखता । तभी तो पारिवारिक कलह के चलते जान लेना या अपनी जान दे देना, ये समाचार अब आम हो चले हैं । रिश्तों का ये  बिखराव उन सारी कठिनाइयों पर विचार करने की ओर संकेत कर रहा है जिन्हें हम देख जान कर भी अनदेखा करते हैं । आपाधापी इतनी है कि जीवन से क्या जुड़ रहा है और क्या छूट रहा है, ये सोचने का भी समय नहीं । आज के समय में पारिवारिक सम्बन्धों का यह विघटन एक गहन वैचारिक विषय है और होना भी चाहिए । जिस रीढ़ पर पूरा समाज टिका है उसका सुदृढ़ होना हम सबके लिए आवश्यक है ।