बेशक वे हर घर की रीढ़ हैं । पढ़ी लिखी और कामकाजी हैं तो देश की तरक्की में भागीदार हैं । दूर दराज़ के गाँव में बसी हैं तो अन्नदाता हैं । परिवार को पाल रही हैं । अनगिनत ऐसे काम संभाल रही हैं जिनका मोल ही नहीं आँका जा सकता । अपने ही स्वास्थ्य की संभाल में सबसे पीछे और दायित्वों के निर्वहन में सबसे आगे । पर उनकी इस भूमिका को मायने आज तक नहीं मिले । ऐसे में तकलीफदेह बात ये भी कि सब कुछ निभाने के बावजूद सराहना तो दूर उनकी भागीदारी को आंकने की सोच भी लापता है समाज और परिवार से । अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में उनकी जो हिस्सेदारी है उसकी बात इसलिए ज़रूरी है क्योंकि घर से लेकर कालेज स्कूल और अस्पताल से लेकर गली बाजार तक । उनका अस्तित्व ही नहीं स्वीकारा जाता । उनकी मौजूदगी को मानवीय संजीदगी से देखने का प्रयास ही नहीं किया जाता । यही जड़ है उन तमाम समस्याओं की जिन्हें जीने और झेलने को विवश हैं महिलाएं। यह आधार है उस सोच का, जिस पर शोषण की वो अनकही-अदृश्य ईमारत खड़ी है जो स्त्रीयों को इंसान ही नहीं समझने देती ।
हाल ही में नसबंदी शिविर में हुई घटना में चिकित्सकीय लापरवाही ही जीवन जाने अकेली वजह नहीं है । महिलाओं के शरीर और स्वास्थ्य से खेलने वाले अनगिनत कारण हैं जो हमारे ही परिवेश में बरसों से पोषित होते आ रहे हैं । सच तो ये है कि देह से परे कुछ समझा जाए तो उनके जीवन का मोल हो ? दूर दराज़ के गांव हों या महानगर अधिकांश मामलों में परिवार नियोजन की जिम्मेदारी उनके ही हिस्से हैं । बेटी नहीं चाहिए तो इसके लिए असुरक्षित गर्भपात का दंश भी झेलना किसी ना किसी स्त्री देह को ही है । माँ बनना एक महिला के लिए ईश्वरीय वरदान है । पर हमारे यहाँ आज भी उस पीड़ादायी समय में महिलाओं की समुचित देखभाल करने वाली स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं हैं । कई घरों में तो गर्भावस्था के दौरान महिलाओं के साथ परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा किये गए व्यवहार में जो संवेदनशीलता होनी चाहिए वो भी नदारद है । संभवतः परिवार से लेकर प्रशासन तक कोई इन बातों से अधिक चिंतित भी नहीं । वरना इतने सालों में कोई तो बदलाव दीखता । दुखद ये भी है कि जो बदलाव आये भी हैं वे सरकारी कुप्रबंधन और लचर नीतियों की भेंट चढ़ गए हैं । गांवों में कितने ही परिवार हैं जिनमें संसाधनों की, रूपये पैसे की कोई कमी नहीं । लेकिन उसे घर की महिलाओं के स्वास्थ्य पर खर्च नहीं किया जाता । परिवार के पुरुष सदस्यों की बुरी लतों को पूरा करने के लिए गांवों में ज़मीने बिक जाती हैं लेकिन बीमारी से जूझ रही उसी घर की बहू-बेटी के लिए उपलब्ध संसाधनों को भी इस्तेमाल नहीं किया जाता ।
महिलाओं को समाज में हमेशा से दोयम दर्जे पर ही रखा गया है। जो उनके जीवन से जुड़े हर पहलू में दिखता है । उनके जीवन को प्राथमिकता न देने की यही सोच उनकी सेहत पर भी लागू होती नजर आती है। हमारे घरों में हालात कुछ ऐसे हैं कि उनसे कोई पूछता नहीं और वे किसी को बताती नहीं। आज भी महिलाएं अपनी शारीरिक और मानसिक तकलीफों के बारे में खुलकर बात नहीं कर पाती। एक आम सी दिखने वाली सफल गृहस्थी में महिलाओं का मन कितनी ही वेदनाएं झेलता है । इन्हीं हालातों में कई बार बड़ी बीमारियां भी उन्हें घेर लेती हैं । नतीजतन आपसी संवाद और संवेदनशीलता की कमी चलते उन्हें न तो सही समय पर इलाज मिल पाता है और न ही सलाह। देश के ग्रामीण इलाकों में तो स्थितियां और भी बदतर हैं । सब कुछ झेलना महिलाओं की देह ने ही है । इतना ही नहीं इन पीड़ाओं के बारे में कोई ज़िक्र कोई संवाद तक नहीं होता । हर दर्द झेलना स्वयं उन्हें ही है । वे सबके साथ हैं पर उनके साथ कौन ? कई बार तो हालत ऐसे भी बनते हैं कि मायके ससुराल दोनों जगह एक ही पल में अपने पराये की पहचान हो जाती है । तब वे नितांत अकेली होती हैं अपने दर्द और दुःख झेलने के लिए । ऐसे अनगिनत उदहारण हमारे ही परिवेश में बिखरे पड़े हैं ।
घर के हर सदस्य को भावनात्मक सहारा देने वाली महिलाएं अपनी पीड़ा कहीं नहीं कह पातीं । हमारे परिवारों में महिलाएं अपने अंदरूनी शारीरिक और मानसिक बदलावों एवं समस्याओं से भीतर ही भीतर जूझती रहती है। इसीलिए यह मुद्दा केवल ऐसी घटनाओं तक ही सीमित नहीं है । घर-परिवार के भीतर भी आये दिन ऐसा कुछ होता रहता है जो यही बताता है कि पीड़ा महिलाओं के हिस्से ही है । फिर चाहे ये व्यथा मन की हो या देह की ।
29 comments:
व्यथा मन की हो या देह की ,महिलाएँ सहन करती हैं ,उन्हें अपने कष्ट बताने में भी संकोच होता है ,और उनकी बात को गंभीरता से लिया भी नहीं जाता .'स्त्रियों के साथ तो ऐसा होता ही है' ,'हमने तो इतना सहन किया', कह कर शुरू में तो बात को टाल दिया जाता है . लोगों को लगता है कि जरा सी बात या बे बात को बढ़ा कर कहना इनका आदत है .एक शब्द है 'त्रिया चरित्र' जिसे आरोपित कर कर उनके मनोबल को तोड़ना एक प्रचलित फ़ार्मूला है .
सहमत हूँ आपकी बातों से
यही मैं भी लिखना चाहती थी
कई बार तो हालत ऐसे भी बनते हैं कि मायके ससुराल दोनों जगह एक ही पल में अपने पराये की पहचान हो जाती है । तब वे नितांत अकेली होती हैं अपने दर्द और दुःख झेलने के लिए । ऐसे अनगिनत उदहारण हमारे ही परिवेश में बिखरे पड़े हैं। ......................इन वाक्यों ने भारत में महिलाओं की खराब स्थिति का गहरा बखान किया है। आलेख विचारणीय होने के साथ-साथ मार्मिक भी है।
हमेशा की तरह ... एक बार फिर बेहतरीन आलेख
पूर्णत: सहमत हूँ आपकी बात से
महिलाओं के दर्द को गहराई से महसूस और अनुभव कराती विचारणीय पोस्ट ...
महिलाओं के दर्द को गहराई से महसूस और अनुभव कराती विचारणीय पोस्ट ...
आभार आपका
बहुत वाजिब सवाल उठाया है आपने...नारी की सहनशीलता का जवाब नहीं, बहुसंख्यक महिला आबादी आज भी घुटन में है. समाज में स्त्री का दर्द समझने की कोशिश न के बराबर हुई है. तमाम प्रयासों के बावजूद स्त्रियों की स्थिति में अभी तक मनोनुकूल परिवर्तन तो नहीं हो सके हैं मगर महिलाएँ अपने अधिकारों के प्रति सजग और सचेत अवश्य हुई हैं. उम्मीद की जानी चाहिए है कि आनेवाले समय में हालात बदलेंगे.
आज सिर्फ भारत में ही नही, कमोवेश समूचे विश्व में यही स्थिति है। जननी और धरती दोनो ही लुहुलूहान हैं।
पूरी तरह से सहमत हूं......आज भी महिलाओ की स्थिति द्यनीय बनी हुई है....और उनके हिस्से आंसुओ के अलावा कुछ भी नहीं आता...
गंभीर समस्या पर सामयिक और सटीक आलेख...बहुत बहुत बधाई...
नयी पोस्ट@आंधियाँ भी चले और दिया भी जले
व्यक्ति की मनोवृत्ति कभी नहीं बदलती ,महिलाओं को लेकर समाज की मनोवृत्ति आज भी दर्जनों पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है। यह स्थिति कब तक रहेगी कहा नहीं जा सकता...महिलाओं को सशक्त होना होगा....बिना पुरुषों के मदद के
व्यक्ति की मनोवृत्ति कभी नहीं बदलती ,महिलाओं को लेकर समाज की मनोवृत्ति आज भी दर्जनों पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है। यह स्थिति कब तक रहेगी कहा नहीं जा सकता...महिलाओं को सशक्त होना होगा....बिना पुरुषों के मदद के
बिलकुल सटीक आलेख...
BAHUT SUNDAR LIKIHA AAPNE .............
http://kavitabhawana2.blogspot.in/2014/03/blog-post_31.html
आज भी महिलाएं अपनी शारीरिक और मानसिक तकलीफों के बारे में खुलकर बात नहीं कर पाती jo mahilaayen padhi likhi hain wo bhi nahi kar pati ...sundar aalekh ...
सबको खिलाकर रुखा सूखा बचा हुआ खा लेना , अपने दुःख को भूलकर परिवार के सुख दुःख में ही अपनी ख़ुशी होना आदि माँ के गुणों में शामिल होकर कब एक गलत परम्परा बन गया , यह समझा ही नहीं जा सका।
दुखद हालातों पर तीक्ष्ण दृष्टि !
प्रश्न वाजिब है और सच पूछो तो समाज में ऐसी स्थिति आ गयी उसके लिये कुछ हद तक नारी का नारी के प्रति दृष्टिकोण भी जिम्मेवार है .... जिसने पुरुष सत्ता को श्रेष्ठ बनाने में मदद की है ... विरोध का स्वर आता भी है तो दबा दिया जाता है ... सब की तकलीफों को देखती ही राह जाती है नारी ...
पृथ्वी और स्त्री दोनों सदियो से पीड़ा सहती आयी है।
पृथ्वी और स्त्री दोनों वर दायनी है।
सार्वकालिक एवं प्रासंगिक मुद्दा उठाया है आपने तथ्यों के आईने में।
जब तक हम स्वयम पर तरस खाना या दया दिखाना बन्द नहीं करते तब तक दूसरे हमपर तरस ही खाते रहेंगे..!! महिलाओं ने अपना स्थान सिद्ध करने और अपनी योग्यता का प्रमाण देने के लिये बस पुरुषों की बराबरी या तानाकशी से आगे की बात नहीं की. बड़ी लाइन को काटकर छोटा नहीं किया जा सकता.. और जिन्होंने उस बड़ी लाइन के आगे एक और बड़ी लाइन खींच दी वो इन्दिरा, बेनज़ीर, चन्दा या किरण शॉ हुईं!!
अपनी कमज़ोरी को कमज़ोरी मानकर बैठे रहने के बजाए उसे अपनी ताक़त बना लेना ही गुलाबी गैंग को जन्म देता है और सनोख बेन जाडेजा को भी!!
आपके आलेख हमेशा सोचने पर विवश करते हैं!!
सामाजिक संरचना बड़ा ही जटिल है ।
नारी जीवन की यही है कहानी...बहुत सुंदर अभिव्यक्ति .
आपका आलेख पढ़कर मुझे गोपाल कृष्ण अडिग की कविता की कुछ सुन्दर पंक्तियाँ याद आ रही है …
"ओ मौन के द्वार पर खड़ीकंपन
घर को नंदनवन बना कर छुप जाने वाली सुर सुरभि !
क्या है पावना तुम्हारे निरंतर श्रम का ?
कब है कठोर वृत की चरम परिणति ? निभाया है जो तुमने बिना कुछ बोले ही" ?
लेकिन हमें धीरज रखना होगा बदलाव हो रहा है !
नारी और पुरुष में भेद का कुसंस्कार 21वीं सदी में भी कम होता नहीं दिख रहा है।
इस मुद्दे पर समाज को संवेदनशील होना होगा।
विचारणीय प्रस्तुति।
उद्वेलित करता आलेख..
सुन्दर आलेख !
यह पुरुष प्रधान संस्कृति की देन है । इसके लिये नारियों को ही अपने लिये सोचना होगा। आवाज भी उठानी होगी सिर्फ मोर्चों में नही व्यक्तिगत स्तर पर भी।
सच में इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि हर पीड़ा महिलाओं के हिस्से में ही क्यों
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