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06 September 2014

बंधनों का खेल

छोड़ना, छूटना और
छूट जाना
सब एक नहीं है 
अक्सर छूटने की चाह रखने वाला
बंधा रहता है 
और साथ चलने की 
अभिलाषा मन में संजोये लोग
छोड़ दिए जाते हैं
परिस्थितियों के साथ 
बदल जाते हैं अर्थ 
साथ चलने के, और
जुड़ जाते हैं, नए सरोकार, नए मनोरथ
जीवन के साथ
बदल जाती हैं प्राथमिकताएं
तब, चाहे-अनचाहे
रिश्तों की वरीयता का क्रम आवश्यकताओं को
आधार बनाकर नियत किया जाता है
लौकिक बंधनों का खेल अद्भुत है
कहीं निर्जीव होकर भी सजीव दीखते हैं
और कहीं जीते जागते 
नाते निष्प्राण हो जाते हैं.…… 

39 comments:

मीनाक्षी said...

तकलीफदेह है लेकिन यही सच है...शायद हम सब इसी चक्रव्यूह से घिरे हैं...

amit kumar srivastava said...

त्याग भाव की प्रधानता के साथ सभी का साथ रहना चाहिए ,क्या जड़ और क्या चेतन ।

रश्मि प्रभा... said...

सहज के साथ असहज
अच्छे के साथ बुरा
सफाई के साथ गंदगी … अजीब सम्बन्ध है
चाहनेवाला भी परेशान
नहीं चाहनेवाला भी परेशान

Harivansh sharma said...

जिन्हें हम भूलना चाहते है,वोह अधिक याद आते है।
परिस्थितियों के साथ अर्थ बदल जाते है। बिलकुल सही।

राज 'बेमिसाल' said...

कई बार ऐसा भी होता है ..दोनों बंधे रहना चाहते हैं...और दोनों को पता नहीं होता...
और कई बार ऐसा भी होता है कि दोनों में इतना प्यार होता है ..दोनों एक दूसरे से इतना प्यार करते हैं..दोनों को लगता है कि हम एक दूसरे के लिए मनहूस साबित हो रहे हैं... न चाहते हुए भी दूर होने का स्वांग जीवन भर करते हैं... दूर होने का स्वांग इसलिए कहूँगा क्योंकि जब मन से दूर नहीं हो पाए तो शहरों और घरों की दूरी का क्या तुक ...

यह सच है छोडना..छूटना ...छूट जाना ...सब एक नहीं होता

दिगम्बर नासवा said...

लोकिक बंधन और समय, समाज अनुसार बने बंधनों मिएँ फर्क होना लाजमी है ...
समय बलवान होता है जो हर चीज़ गला देता अहि फॉर चाहे सम्बन्ध हो या लोहा ...

गिरधारी खंकरियाल said...

बन्धनों जाल में बंधा रहता है मनुष्य जीवन भर।

Kailash Sharma said...

लौकिक बंधनों का खेल अद्भुत है
कहीं निर्जीव होकर भी सजीव दीखते हैं
और कहीं जीते जागते
नाते निष्प्राण हो जाते हैं.…
...एक कटु सत्य

Arvind Mishra said...

मंतव्य सम्प्रेषण का सटीक भाव लिए कविता
कही वाचाल मुर्दे चल रहे हैं कहीं जिन्दा गड़े दिखने लगे हैं :-)
यह हमारी प्राथमिकताओं का ही तो प्रतिफलन है

अजय कुमार झा said...

बंधनों का खेल ..कमाल का खेल .....सुंदर पंक्तियां

Harihar (विकेश कुमार बडोला) said...

रिश्तों की वरीयता का क्रम आवश्यकताओं को
आधार बनाकर नियत किया जाता है
लौकिक बंधनों का खेल अद्भुत है
कहीं निर्जीव होकर भी सजीव दीखते हैं
और कहीं जीते जागते
नाते निष्प्राण हो जाते हैं.…..............परिस्थितियों का यथार्थ प्रकटीकरण।

lori said...

बहुत प्यारी रचना
कैसे हैं ये बंधन अनजाने ……।

अरुण चन्द्र रॉय said...

बंधन कई बार जरुरी भी है। सुन्दर कविता।

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

क्या बात वाह!

विभा रानी श्रीवास्तव said...

अक्सर छूटने की चाह रखने वाला
बंधा रहता है
और साथ चलने की
अभिलाषा मन में संजोये लोग
छोड़ दिए जाते हैं
सच्चाई .... सार्थक अभिव्यक्ति

निवेदिता श्रीवास्तव said...

यही सच है रिश्तों का .....

Anita Lalit (अनिता ललित ) said...

बिलकुल सही एवं सच्ची बात कही आपने। बहुत दुःख होता है ऐसी वरीयता द्वारा नियत प्राथमिकताएँ देख कर

~सादर
अनिता ललित

सदा said...

शब्‍दों के मायने ... भावनाओं को समेटकर जब शब्‍द बुनते हैं मन के एहसासों को
तो कितनी बार सच यूँ ही उतर आता है पंक्ति दर पंक्ति

Kunwar Kusumesh said...

well said,monika ji

Joothi Thali said...

"नाते निष्प्राण हो जाते हैं.……"

नमन स्वीकरें.

वाणी गीत said...

जीवन एक पहेली ही है। एक विरोधाभास होता है जीवन में। जो मिल जाए उसकी क़द्र नहीं , जो न मिले उसका रोना। मिल जाए तो मिटटी है , खो जाए तो सोना है !

वाणी गीत said...

जीवन एक पहेली ही है। एक विरोधाभास होता है जीवन में। जो मिल जाए उसकी क़द्र नहीं , जो न मिले उसका रोना। मिल जाए तो मिटटी है , खो जाए तो सोना है !

Himkar Shyam said...

सुंदर अभिव्यक्ति, एक सच्चाई पेश करती रचना … बधाई !!

साहित्य और समीक्षा डॉ. विजय शिंदे said...

निर्जीव का सजीव लगना और सजीव का निष्प्राण होना आधुनिक जीवन की पीडा, संत्रास, त्रासदी का वर्णन करता है। खैर यह मनुष्य का जीवन है मरुस्थल से भरा हुआ। उसी में पानी के स्रोत और हरियाली ढूंढना आनंद देगा। इसे पानेवाला जीवंतता का अनुभव करेगा।

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

वाह...सुन्दर और सार्थक पोस्ट...
समस्त ब्लॉगर मित्रों को हिन्दी दिवस की शुभकामनाएं...
नयी पोस्ट@हिन्दी
और@जब भी सोचूँ अच्छा सोचूँ

Surendra shukla" Bhramar"5 said...

और साथ चलने की
अभिलाषा मन में संजोये लोग
छोड़ दिए जाते हैं
परिस्थितियों के साथ
बदल जाते हैं अर्थ
साथ चलने के

सुन्दर भाव ..जीवन का यथार्थ ...
भ्रमर ५

Suman said...

लौकिक बंधनों का खेल सच में अद्भुत है
सार्थक सटीक लगी रचना !

sanu shukla said...

बहुत अच्छी और सार्थक रचना..

hem pandey(शकुनाखर) said...

निष्प्राण हुए नातों में प्राण फूँकने की कला , जीवंत जीवन जीने की कला का एक अंग है।

प्रतिभा सक्सेना said...

रिश्तों का खेल भी अजीब है समझना और समझाना दोनों मुश्किल - इनका गणित भी अक्सर बदल जाता है .



राजीव कुमार झा said...

बहुत सुंदर.

Manoj Kumar said...

सुन्दर प्रस्तुति !
मेरे ब्लॉग की नवीनतम रचनाओ को पढ़े !

Unknown said...

Sunder va saty hai rishto ka...kuch choot jaate hain naa chaahte hue kuch choot kar bhi nhi chootate...!!!

Unknown said...

आपकी कविताओ ने हमेशा ही मुझे प्रभावित किया है..। इस कविता भी आपने रिश्तो के मायने को बखूबी संजोया है..।

महेन्‍द्र वर्मा said...

अक्सर छूटने की चाह रखने वाला
बंधा रहता है
और साथ चलने की
अभिलाषा मन में संजोये लोग
छोड़ दिए जाते हैं

आपकी यह रचना सिद्ध करती है कि ऐसी कविताओं का सृजन सत्य के धरातल पर होता है, कल्पना के आकाश में नहीं ।

Asha Joglekar said...

अक्सर छूटने की चाह रखने वाला
बंधा रहता है
और साथ चलने की
अभिलाषा मन में संजोये लोग
छोड़ दिए जाते हैं
परिस्थितियों के साथ
बदल जाते हैं अर्थ
साथ चलने के,

रिश्तों का यथार्थ ।

अभिषेक शुक्ल said...

Seemit shabdon me poorn rachna...bahut sunder!! :-)

Dr. Rajeev K. Upadhyay said...

रिश्तों का सच ऐसा ही है। सीमित शब्दों में पूरे सच को उकेरा है स्वयं शून्य

संजय भास्‍कर said...

छोड़ दिए जाते हैं
परिस्थितियों के साथ
बदल जाते हैं अर्थ
साथ चलने के

सुन्दर भाव ..जीवन का यथार्थ ...

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