शब्द जिसके मुख से उच्चारित होते हैं उस व्यक्ति विशेष के लिए हमारे मन में गरिमा और विश्वसनीयता के मापदंड तय करते हैं । इस विषय में एक यह भी मान्यता होती है कि कही गयी बात बोलने वाले व्यक्ति ने विचार करने के बाद ही अपनी बात कही होगी । चर्चित चेहरों के विषय में बात ज्यादा लागू होती है क्योंकि समाज में उन्हें एक आदर्श व्यक्तित्व के रूप में देखता है । संभवत: इसीलिए कहा गया है कि प्रसिद्धि अपने साथ उत्तरदायित्व भी लाती है । जिसे निभाने के लिए सबसे पहला कदम तो यही है कि विचार रखने से पहले सोचा समझा जाय । 2014 के आम चुनाव के आखिरी चरण तक आते आते भारतीय राजनीति का गरिमाहीन चेहरा भी जन सामान्य के समक्ष है। इन चुनावों भी विभिन्न राजनीतिक दलों में एक दूसरे के मानमर्दन का खेल चरम पर है। डीएनए टेस्ट से लेकर कौमार्य परीक्षण जैसे गरिमाहीन शब्द का प्रयोग हुआ है ।
बिना सोचे विचारे दिए गए ऐसे वक्तव्यों लेकर जैसे ही विवाद मचता हैै ये नहीं कहा था वो कहा था की सफाई देने का खेल शुरू हो जाता है। सवाल ये है कि हमारे माननीय नेतागण ये क्यों नहीं समझते कि शब्द जब तक अकथित हैं विचारों के रूप में केवल हमारी अपनी थांती हैं । मुखरित होने के बाद शब्द हमारे नहीं रहते । इसीलिए जो कहा जाए वो सधा और सटीक हो यह आवश्यक है। यूँ भी शब्दों के प्रयोग को लेकर विचारशीलता बहुत मायने रखती है । अगर वे इस वैचारिक भाव ही नहीं रखते तो इस देश का प्रतिनिधित्व क्या करेंगें? उनकी अभिव्यक्ति मर्यादित है या नहीं, यह सोचने की भी फुरसत नहीं तो वैश्विक स्तर पर इस देश की गरिमा को कितना सहेज पायेंगें? देश के कर्णधारों को समझना चाहिए कि जो कह डाला उसे बदलने या अपने कहे की जिम्मेदारी ना लेने से उनके अपने ही विचार और व्यवहार की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आती है ।
बयानबाज़ी के इस खेल में भ्रष्टाचार, विकास और देश के नागरिकों की सुरक्षा जैसे मुद्दे तो चुनावी पटल से ही नदारद हो गये। व्यक्तित्वों और वकत्व्यों की जितनी छिछालेदर इन चुनावों में हो रही है, पहले कभी नहीं हुई। सत्ता के समीकरणों को मन मुताबिक बनाने के खेल में ना कोई अपने पद की गरिमा समझ रहा है ना ही जिम्मेदारी। आए दिन किसी ना किसी राजनीतिक चेहरे के द्वारा कोई ना कोई बेहूदा बयान देकर मीडिया चैनलों पर सुर्खियां बटोरने का कार्य किया जा रहा है। देश में गरिमाहीन राजनीतिक बयानों की बयार बह रही है। सार्वजनिक जीवन में हमारे देश के कर्णधारों को ना तो सोच समझकर बोलना आ रहा है ना विपक्षी पार्टियों से आए बयानों का उत्तर देना। इस ज़ुबानी जंग में मानवीय मर्यादा और स्वाभिमान दोनों ही सिद्धांतहीन राजनीति की भेंट चढ़ गये हैं। सवाल ये है कि आखिर इस देश के नेतागण इस बात को क्यों नहीं समझते कि ये गरिमाहीन वक्तव्य वैश्विक स्तर पर भी भारत और भारतीयता की साख गिराने वाले है।
40 comments:
कुछ तो बयानबाजियां हुई है बिन सोचे विचार और क़ुछ बतंगड़ बना दीं गईं सोच विचार कर ही … कोई हद न रहीं , शर्मसार हुए हैं हम भारतीय कई बार :(
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (09.05.2014) को "गिरती गरिमा की राजनीति
" (चर्चा अंक-1607)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
राजनीति का स्तर आज वह नहीं,जो पहले हुआ करता था. चौबीसों घंटे चलने वाले खबरिया चैनलों के युग में बात का बतंगड़ बनते देर नहीं लगती.
ये जान बूझ कर ,सोच समझ कर ,तय रणनीति के तहत ऐसी भाषा का प्रयोग करते हैं और इसी में जब हम उलझ जाते हैं तो इनका लक्ष्य अभीष्ट हो जाता है ।
"जो कहा जाए वो सधा और सटीक हो यह आवश्यक है"
आज के नेताओं की बयानबाजी सुन लगता है कि कोई भी नेता गरिमामय तो रहा ही नहीं . सार्थक चिंता .
बहुत सही कहा आपने
महत्वपूर्ण मुद्दों से हटकर बेवजह की चीजों पर बयानबाजी हो रही
देश की गरिमा का तो इन्हें ध्यान रखना ही चाहिए
प्रभावी लेख !
हार जीत के खेल ने सबका विवेक हरण कर लिया है परिणाम आने के बाद सब भाई भतीजे होंगे और जनता ठगी सी हाथ मलेगी हमेशा की तरह पाँच साल सिर्फ आसमान ताकेगी । एक बात और सभी वक्तव्यों का रिकर्ड रख लेना चाहिए और नेताओं को बाद मे सुनाना दिखाना चाहिए ......
आपकी इस रचना को हिंदी समाचार साइट http://www.thenewsviews.in में स्थान दिया गया है, कृपया पधारें।
मेरे एक मित्र के हाथों पर प्लास्टर देखकर मैंने पूछ लिया कि क्या हुआ. उन्होंने बताया कि गिर गए थे उसी में चोट लग गयी! मैंने कहा - बड़े गिरे हुये आदमी हो!! ये तो मज़ाक था, आज गिरती गरिमा सुनकर हँसी आ गयी.. ये तो पहले से ही गिरे हुये लोग हैं, इनके हाथों न कभी गरिमा सुरक्षित थी न होगी!!
कल से सब एक साथ उसी गोल संसद में बैठेंगे और किसी को किसी के चरित्र का ऐब नहीं दिखाई देगा!!
मेरे एक मित्र के हाथों पर प्लास्टर देखकर मैंने पूछ लिया कि क्या हुआ. उन्होंने बताया कि गिर गए थे उसी में चोट लग गयी! मैंने कहा - बड़े गिरे हुये आदमी हो!! ये तो मज़ाक था, आज गिरती गरिमा सुनकर हँसी आ गयी.. ये तो पहले से ही गिरे हुये लोग हैं, इनके हाथों न कभी गरिमा सुरक्षित थी न होगी!!
कल से सब एक साथ उसी गोल संसद में बैठेंगे और किसी को किसी के चरित्र का ऐब नहीं दिखाई देगा!!
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन बाबा का दरबार, उंगलीबाज़ भक्त और ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
शब्दों के वाण चला कर और एक-दूसरे की निजी जिंदगी को उजागर कर देने से जनता आकर्षित नहीं हो पाती, अब जनता काम चाहती है .............बदलाव आ चुका जनता की सोंच में .......
शब्दों के वाण चला कर और एक-दूसरे की निजी जिंदगी को उजागर कर देने से जनता आकर्षित नहीं हो पाती, अब जनता काम चाहती है .............बदलाव आ चुका जनता की सोंच में .......
इसी समाज से आते है ये नेता भी, स्तरहीनता हर स्तर मे घर कर चूकिं है ,,उन से अपेक्षा कर तस्वीर का स्याह पहलूँ को ढ़कने का प्रयास भविश्य के हित मे नहीं है........
विचारणीय है और सभी को सोचना होगा ।
बहुत सही कहा....विचारणीय
बोलने वाले कब सोचते हैँ कि बोल क्या रहैँ उन्हे तो बस बोलना होता है भले ही उसका परिणाम कुछ भी हो।
आज कल विवादों की राजनिति हो गई है..
जैसे एक माँ अपने शरारती नालायक बच्चे को परिवार समाज से छिपा कर रखती है , उसी तरह से बाहरी दुनिया में अपने देश की कोई बुराई न हो विषय ही बदल दिया जाता है लेकिन सच तो यह है कि घर और बाहर उसकी छवि बिगड़ती जा रही है ।
गिरे हुए चुनकर आएँगे तो राजनीति का स्तर गिरगा ही . इसके लिए समाज के लोग जिम्मेदार हैं !
New post ऐ जिंदगी !
सहमत हूं। वैसे हम भी कम जिम्मेदार नहीं। मतदान के समय जब तक लोग जाति, मजहब से ऊपर नहीं उठ पाएंगे तब तक ऐसे ही लोग सत्ता पर काबिज होते रहेंगे। लोकतंत्रत के नाम पर यह लूटतंत्र की जीत है।
इनकी भाषा सुन के कहा जाए
सचमें कई बार मन में ख्याल आत अहै की आने वाली पीढ़ीओं को काया बताएँगे
सही है..इन नेताओं की बातें सुन-सुनकर राजनीति शब्द से ही घृणा होने लगी है....और इनके समर्थक भी इन्हीं के रास्तों पर चलते नज़र आ रहे हैं.
चिंतनशील प्रस्तुति
राजनीती में कोइ स्तर नहीँ होता ,सबकुछ जायज है!
इस ज़ुबानी जंग में मानवीय मर्यादा और स्वाभिमान दोनों ही सिद्धांतहीन राजनीति की भेंट चढ़ गये हैं। सवाल ये है कि आखिर इस देश के नेतागण इस बात को क्यों नहीं समझते कि ये गरिमाहीन वक्तव्य वैश्विक स्तर पर भी भारत और भारतीयता की साख गिराने वाले है।
बहुत सही चिंतन।
इस ज़ुबानी जंग में मानवीय मर्यादा और स्वाभिमान दोनों ही सिद्धांतहीन राजनीति की भेंट चढ़ गये हैं। सवाल ये है कि आखिर इस देश के नेतागण इस बात को क्यों नहीं समझते कि ये गरिमाहीन वक्तव्य वैश्विक स्तर पर भी भारत और भारतीयता की साख गिराने वाले है। निश्चित ही चिंता करने की जरूरत है ...
umda post
आदर्श व्यक्तित्व की अब परिभाषा ही बदल गयी है..
राजनीति में शायद ऐसे नेता ज़ी भूल जाते हैं कि जनता में विचारों के मसीहा बैठे हैँ.....
सही कहा आपने. इस चुनाव में राजनीतिक मर्यादाएं और भाषा की गरिमा तार-तार हुई हैं. यह राजनीति का सबसे बुरा और गंदा दौर है. राजनीतिक का इससे गंदा स्वरूप इसके पहले शायद ही देखा गया हो. अमर्यादित बयानों ने पूरे चुनाव को जनता के मुद्दे से दूर कर दिया.
चुप बैठे आदमी का कुछ पता नहीं चलता ,उसके वचन और कर्म से ही पता चलता हैं कि उसकी चुप्पी में क्या छिपा था .
जिसमे नहीं होती कोई नीति उसी का नाम राजनीति !
सटीक आलेख !
इन नेताओं के साथ साथ समाज का चौथा खम्बा कहे जाने वाले मीडिया की भी कम भूमिका नहीं है इसमें ... जान बूझ कर किसी एक की तरफदारी करने वाला मीडिया सुबह से शाम तक ऐसे बयान प्रमुखता से दिखाते हैं ... नैतिक पतन तेज़ी से हो रहा है ... हर नया चुनाव ज्यादा गंदगी ले के आ रहा है ...
राजनीति के दंगल में कैसे-कैसे खिलाड़ी शामिल हैं ये भी तो देखिये .दूसरे को पटकनी देने के दाँव सब को आते हैं .कभी टीवी पर नीति पर आधारित ,अपने-अपने मुद्दों को लेकर स्वस्थ बहस करवा के उन्हें परखा जाय तो पता लगे. पर शायद वहाँ भी नौटंकी होने लगे और जनता मज़े लेने लगे !
देश के कर्णधारों को समझना चाहिए कि जो कह डाला उसे बदलने या अपने कहे की जिम्मेदारी ना लेने से उनके अपने ही विचार और व्यवहार की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आती है ।
आदरणीया डॉ मोनिका जी ..सार्थक आलेख, काश लोगों को अपने जुबान की अहमियत दिखती वैसा करते तो बात ही कुछ और होती
भ्रमर ५
प्रसिद्धि अपने साथ उत्तरदायित्व भी लाती है । जिसे निभाने के लिए सबसे पहला कदम तो यही है कि विचार रखने से पहले सोचा समझा जाय
सही है
oh lagen hain shamma par pahre
hone bhi chahiye,
jo pasand karte hain laqleef dhakar chale hi aaate hain..
राजनिती, मीडिया और उस पर से चुनाव...खुदा जाने हम कहां तक गिरेंगें?
रामराम.
२०१४ का ये चुनाव अपने परिणामों के लिए तो याद किया ही जायेगा...पर असंतुलित और अमर्यादित भाषा के लिये इसे भूल पाना मुश्किल होगा...
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