जिस समाज की सोच इतनी असंवेदनशील है कि बेटियों को जन्म ही ना लेने दे वहां उन्हें शिक्षित, सशक्त और सुरक्षित रखनेे के दावे तो दावे भर ही रह जाते हैं। हाल ही में आई एक रिर्पोट ने इस ज़मीनी हकीकत से हमें फिर रूबरू करवा दिया है कि हम लिंग अनुपात के संतुलन को बनाये रखने के लिए कितने चिंतित हैं? महिलाओं को लेकर हमारी सोच और संवेदनशीलता में क्या बदला है ? संम्भवत कुछ भी नहीं । तभी तो देश के सबसे बड़े सर्वे के नतीजों में यही परिणाम सामने आया हैै कि भारत में चार साल तक की लड़कियों का ताज़ा लिंगानुपात मात्र 914 है । समय-समय पर सामने वाली ऐसी रिपोर्ट्स और आँकड़े पढ़कर- देखकर मन मस्तिष्क सोचने को विवश हो जाता है । ना जाने क्यों ऐसा लगता है कि मानसिकता वहीँ की वहीँ है । बेटियों का जीवन सुरक्षित हो और वे सशक्त बनें यह समग्र रूप से देखा जाये तो हकीकत काम फ़साना ज़्यादा लगता है ।
विचारणीय बात ये भी है कि जिन्हें जीवन पाने और जीने का सम्मान ही नहीं मिल रहा उन्हें शक्ति सम्पन्न बंनाने के लिए अनगिनत कानून कायदे बना भी दिए जाएँ, तो क्या लाभ ? विकराल रूप धरती जा रही भ्रूणहत्या की समस्या इस तरह तो पूरी सृष्टि के विकास पर ही प्रश्नचिन्ह लगाती नज़र आ रही है। साथ सवालिया निशान लगा रही है हमारी पूरी सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था पर। मानवीय मूल्यों की परंपरा लिए हमारी पारिवारिक व्यवस्था का यह वीभत्स चेहरा बताता है कि आज भी बेटियाँ बोझ ही लगती हैं। जिसकी जिम्मेदार हमारी सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था है । तभी तो हर बार यही महसूस होता है कि बहुत कुछ बदल कर भी कुछ नहीं बदला ।
आज भी समाज में बेटियाँ जन्म लेने से लेकर परवरिश पाने तक हर तरह के भेदभाव का शिकार हैं। बदलाव आया ज़रूर है पर इतना नहीं कि उसके विषय में चिंता करनी छोड़ दी जाये ।वास्तविकता इसलिए भी चौंकाने वाली है क्योंकि बीते कुछ बरसों में कई योजनाएं और कानून बेटियों के सर्मथन में अस्तित्व में आए हैं। ना जाने कितने ही सरकारी और गैर सरकारी संगठन जनजागरूकता लाने के लिए प्रयासरत हैं। ऐसे में बालिकाओं की घटती संख्या तो पूरे समाज के लिए चेतावनी है ही भ्रूणहत्या के बार बार गर्भपात करवाने के चलते मांओं के स्वास्थ्य के साथ किया जाने वाला खिलवाड़ भी भविष्य में डराने वाला परिदृश्य ही प्रस्तुत करेगा। क्योंकि माँ हो या बिटिया सेहत ही ना रही सशक्तीकरण कैसा ? सवाल ये भी है कि जिन बेटियों का दुनिया सम्मानपूर्वक आने और अपना जीवन जीने का अधिकार ही नहीं मिल रहा है उन्हें सशक्त और सफल बनाने की सारी कवायदें ही बेमतलब हैं।
सच तो ये है कि बेटियों को बचाना है तो दिखावा नहीं कुछ ठोस कदम उठाये जाने आवश्यक हैं। जिसकी शुरूआत इसी विचार से हो सकती है कि किसी भी घर-परिवार में बिटिया का जन्म बाधित ना हो । उन्हें संसार में आने दिया जाए। उनके पालन पोषण में कोई भेदभाव ना बरता जाए। निश्चित रूप से ऐसा करने के लिए कोई कानून और योजना काम नहीं कर सकती। हमारी अपनी मानसिकता और बेटियों के प्रति स्नेह और सम्मान का भाव ही यह परिवर्तन ला सकता है। जो कि हमारी अपनी भागीदारी के बिना संभव नहीं ।
42 comments:
बेहद गंभीर और संवेदनशील रचना , सार्थक प्रस्तुति
शिक्षा के व्यापक प्रचार-प्रसार के बावजूद ऐसा हो रहा,तो कहीं न कहीं सामाजिक व्यवस्था में कुछ दोष जरूर है.
आख़िर कब तक समाज इस भेदभाव परक नीति पर चलता रहेगा ?
संवेदनशील विषय पर सार्थक रचना.
हर समस्या को कानून कि नजर से देखने के आदि होने के कारण इस व्याप्त कुरुति के प्रति समाज अब भी असंवेदनशील है , कानून बनाने के बनिस्पत पूर्व पूर्वाग्रहों को दूर सामाजिक संचेतना को फैला कर हि क्या जा सकता है जब ईमानदारी पूर्वक हम इसे समस्या के रुप मे देखे और सोचे ......सार्थक प्रस्तुति...
सार्थक प्रस्तुति,संवेदनशील रचना
सार्थक प्रस्तुति,
संवेदनशील रचना .
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (16.05.2014) को "मित्र वही जो बने सहायक " (चर्चा अंक-1614)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
आपकी चिंता जायज है... एक तो अच्छे क़ानून की जरूरत है उससे भी अधिक समाज जागरण की जरूरत है.
आपकी चिंता जायज है... एक तो अच्छे क़ानून की जरूरत है उससे भी अधिक समाज जागरण की जरूरत है.
हमारी अपनी मानसिकता और बेटियों के प्रति स्नेह और सम्मान का भाव ही यह परिवर्तन ला सकता है, जो कि हमारी अपनी भागीदारी के बिना संभव नहीं। … एकदम सही कहती है आप.
बहुत सुन्दर
bilkul sdahi baat ....jab tak mansikta nahi badlegi kuchh nahi hoga ...ham beti to chahte hain lekin dusron ke yahan taaki ham bahu laa sake ..
यह सही है कि सोंच में बदलाव आया है लेकिन मन के किसी कोने में अभी भी बेटियों के साथ भेदभाव बैठा हुआ है .......
वाकई दिल को बोझिल कर देती है कोई भी संकरी मानसिकता...खैर, कैफ भोपाली का शुक्रिया कि कुछ लोगों के दिलों की बातों को उन्होंने यह हसीन अल्फाज दिए...
खुशरंग तितलियां नजर आती हैं लड़कियां,
घर को बहिश्तजार बनाती हैं लड़कियां।
या रब तेरी जमीन की रुदाद क्या कहूं,
लड़के उजाड़ते हैं, बसाती हैं लड़कियां।
चावल हैं कहकशां से तो रोटी है चांद सी,
क्या-क्या हसीन चीजें खिलाती हैं लड़कियां।
स्कूल में भी करती हैं उस्तानियों के काम,
घर पर भी मां का हाथ बटाती हैं लड़कियां।
मरियम की शक्ल में, कभी सीता के रूप में,
सूरज हथेलियों पे उठाती हैं लड़कियां।
ऐ कैफ देवियां हैं खुलूसो-वफा की ये,
वो कौन है जिसे नहीं भाती हैं लड़कियां।
दशरथ की एक बेटी थी शान्ता
बोधिसत्व
बहुचर्चित कवि बोधिसत्व की यह कविता हाल ही किसी ब्लॉग पर पढ़ी थी। यह कविता बहुत-कुछ सोचने पर विवश करेगी आपको...
दशरथ की एक बेटी थी शान्ता
लोग बताते हैं
जब वह पैदा हुई
अयोध्या में अकाल पड़ा
बारह वषों तक
धरती धूल हो गयी!
चिन्तित राजा को सलाह दी गयी कि
उनकी पुत्री शान्ता ही अकाल का कारण है!
राजा दशरथ ने अकाल दूर करने के लिए
श्रृंगी ऋषि को पुत्री दान दे दी
उसके बाद शान्ता
कभी नहीं आयी अयोध्या
लोग बताते हैं
दशरथ उसे बुलाने से डरते थे
बहुत दिनों तक सूना रहा अवध का आंगन
फिर उसी शान्ता के पति श्रृंगी ऋषि ने
दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ कराया
दशरथ चार पुत्रों के पिता बन गये
संतति का अकाल मिट गया
शान्ता राह देखती रही
अपने भाइयों की
पर कोई नहीं गया उसे आनने
हाल जानने कभी
मर्यादा पुरूषोत्तम भी नहीं,
शायद वे भी रामराज्य में अकाल पड़ने से डरते थे
जबकि वन जाते समय
राम
शान्ता के आश्रम से होकर गुजरे थे
पर मिलने नहीं गये
शान्ता जब तक रही
राह देखती रही भाइयों की
आएंगे राम-लखन
आएंगे भरत-शत्रुघ्न
बिना बुलाये आने को
राजी नहीं थी शान्ता
सती की कथा सुन चुकी थी बचपन में,
दशरथ से!
बेहद सार्थक लेख......बस उम्मीद बनाये हुए हैं कि बदलेगी सोच...बदलेगा समाज....
सस्नेह
अनु
सार्थक चिन्तन।
हर सुधार की शुरुआत घर से होती है, स्वयं से होती है।
सुधार आना ही चाहिए...
~सादर
all your subjects and the way you present them in powerful words are highly appreciable..... there is so much to learn from you didi......
आँकड़े देख कर दिल डूबने लगता है हालाँकि बचपन से यही सुना था कि खुद को बदल लो समाज को बदलते देर नहीं लगेगी.. अपने घर परिवार में मेरी छोटी बहन की एक ही बेटी है और सभी की आँख का तारा है...दूर दराज के इलाकों में अगर शिक्षा पहुँचेगी तो बेटी के बचने की आशा जागती है..
हमारी सामाजिक समस्याओं में महिलाओं के प्रति होने वाले अत्याचारों की संख्या सबसे अधिक है.. पैदा होने के पहले से जन्म लेने तक, जन्म से बड़े होने तक, बड़े होने से विवाह तक, विवाह की वेदीस ए दहेज की वेदी तक, दहेज से बचकर पुत्र पैदा करने मशीन बनने तक और फिर घूमकर जन्म से पूर्व मार दिये जाने तक!!
पता नहीं क्या ईलाज है इसका और कहाँ अंत है!! अशिक्षा जड़ है इन सबकी!!
विचारणीय प्रस्तुति...
बहुत सुंदर सार्थक प्रस्तुति ...!
RECENT POST आम बस तुम आम हो
आज की ब्लॉग बुलेटिन लोकतंत्र, सुखदेव, गांधी और हम... मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ...
सादर आभार !
सच में हम अभी तक इतना भी नहीं कर सके कि जिंदगी दे सके! फिर सारे दिखावटी हैं......... ज्ञान से लेकर विज्ञान तक!
बहुत धन्यवाद!
आज की चेतावनी को नजरअंदाज किया जा रहा है जिसका गंभीर परिणाम आगे पता चलेगा..
बेटियों को वह समान अधिकार वह सम्मान, माँ, दादी नानी से शुरु हो और पिता, भाई, पति, सास, ससुर से परवान चढे। बहुत ज्वलंत प्रश्न हमेशा से।
लड़कियों को शुरू से ही अधिकारों से वंचित कर कर्तव्यों का बोझ लाद देने का क्रम चला आ रहा है .उसे शरीर और मन कमज़ोर बना कर अपने अनुशासन में रखना समाज की नीति रही है .पता नहीं यह सब ठीक होने में कितना समय और लगेगा !
शिक्षा और निरंतर देश-समाज का चिंतन बिंदु बनाये रखने से ही इस कुव्यवस्था का हल निकलेगा...आपकी सम्वेदनायें सीधे दिल तक जातीं हैं...
कल 18/05/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
धन्यवाद !
बहुत सुंदर सार्थक प्रस्तुति !
आज भी हम कहाँ हैं यह गंभीर सोच विषय है.............
गंभीर चिंतन प्रस्तुति
सार्थक एवं सशक्त। आभार।
सामाजिक परिवर्तन तो एक तरफ होना ही चाहिए ... कड़े क़ानून और उसका पालन ये भी जरूरी है ... क़ानून में बदलाव ला कर भ्रूण हत्या को हत्या क्यों नहीं माना जाना चाहिए ... सार्थक परिमाण यों नहीं आ रहे इस पर विचार होना चाहिए ...
100% sahmat ...
उम्दा आलेख और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
नयी पोस्ट@आप की जब थी जरुरत आपने धोखा दिया (नई ऑडियो रिकार्डिंग)
Itne samvedansheel vishay par ek behat'reen aalekh.
ऐसे आलेख ध्यान दिलाते रहें तो शायद कुछ कानों पर जून रेंगे। कानून कहाँ अक्षम रहे, यह तो सोचना ही चाहिए लेकिन कानून से आगे जाकर इस समस्या के सभी पक्षों की जांच आवश्यक है, सतही कार्यवाही से कुछ होने वाला नहीं।
जिस दिन लोग बेटियों की अहमियत को समझ जायेंगे ...उस दिन से ही बेटियों का भाग्य बदल जायेगा ...अफ़सोस तो यह देखकर होता है ....की सिर्फ समाज में पल रही दहेज की लोलुपता और संसार से जाने के बाद ......अपना नाम जीते रहने की आकांक्षा ......यह बेटियों के जीने में सबसे बड़े रोड़े हैं.....जब तक इनपर हमारी मानसिकता विजय न पाले....यह समस्या बनी रहेगी ......
सही बात है। स्त्रियों को सशक्त तो तब करेंगे जब उन्हें धरती पर आने दिया जाएगा। समस्याओं के निराकरण में मूल बात पर जोर देना होगा , वहीं यह भी सही है की स्त्रियां सशक्त होंगी तो उन्हें जन्म देने से लोग कतराएंगे नहीं !!
कविता तक तो ठीक है- सांकेतिक प्रतीक हो सकती है, किन्तु कहानी (पटकथा) संदिग्ध है।
"निश्चित रूप से ऐसा करने के लिए कोई कानून और योजना काम नहीं कर सकती। हमारी अपनी मानसिकता और बेटियों के प्रति स्नेह और सम्मान का भाव ही यह परिवर्तन ला सकता है। जो कि हमारी अपनी भागीदारी के बिना संभव नहीं । "
सच है मोनिका जी
फाइनली आज आपकी सारी पोस्ट्स पढ़कर ही रहूगी :-)
"मैं नहीं हू सागर सी खारी ,मैं तो नदी की मीठी धार हू
भवसागर का ज्वार हू ,अभी अजन्मी बच्ची हू !!!!
रक्त में सरोबार हू ,मुझे खिलने दो फूलों के समान
खुशबु पहचानों मेरी ,फिर देखो मेरी क्षमताऐं !!!!!!
आपकी अपेक्षाओं पर खरी उतरूंगी ,इसलिए कहती हू मुझे जन्म लेने दो
परम्परा की कैंची से न काटो ,
नीड़ से निकली नवजात चिड़िया हू पर फड़फड़ाने दो मुझे !!!!!!!!
मेरे पर ना काटो ,बेरंग चिठ्ठी सा मुझे ना छांटों
मैं तो झरने सी कलकल करती ,नदी की सुमधुर आवाज हू !!!!!!!
दूर तक सुनायी देने वाला साज हू ,मुझे आप आत्मविश्वास के स्वर दो
नहीं किसी पर बनू मैं बोझ ,आपके स्वप्न करुँ साकार :-))
ऐसा वरदान दो सार्थक जीवन का सार बन
घर ,परिवार ,समाज और राष्ट्र का नाम करुँ इस वन्दनीय भूमि पर !!!!!!!!!!
प्रार्थना करती हू बस मुझे जीने का अधिकार दो
विश्वास का संसार दो ………:-))"
यह मैंने कभी लिखा था
बस जीने का अधिकार ही तो मांग रही हैं बेटियां
जीने दो ना हमें ,पर फ़ैलाने दो ना ,फड़फड़ाने दो ना !!!!!
सुँदर विचार
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