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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

22 September 2013

आज के अभिभावकों की दुविधा



बच्चों में समझ और संस्कार के बीज बोना सदैव ही एक कठिन कार्य रहा है । आज के दौर में तो यह काम और भी दुष्कर हो चला है । होना ही है । बच्चों के जीवन के सभी पहलुओं को सँभालते संवारते हुए उन्हें स्वस्थ सहभागिता का पाठ  पढ़ना सरल हो भी कैसे सकता है ? आजकल कितने ही अभिभावकों, विशेषकर माओं को इस द्वंद्व से जूझते हुए देखती  हूँ । जो अपनी तरफ से हर वो प्रयास करना चाहतीं हैं जिससे बच्चे संस्कारित बनें, सभ्य बनें । कहा भी जाता है कि बच्चे की पहली पाठशाला, उसके पहले शिक्षक माता-पिता ही होते हैं । जिनका अनुसरण करते हुए बच्चे बहुत कुछ बिन कहे ही सीख-समझ जाते हैं । ऐसे में वर्तमान समय में अभिभावकों के लिए इस उत्तरदायित्व की विकटता और बढ़ गई  है । कई  बार तो उनके लिए समझना मुश्किल हो जाता है कि बच्चों से जुड़े मुद्दों को कैसे सभालें और  क्या क्या संभालें ? 

अपने बच्चों में अच्छी आदतों और अच्छे व्यवहार की अपेक्षा हर अभिभावक को होती है । तभी तो अच्छी परवरिश का यह चुनौतीपूर्ण कार्य करने के लिए बड़ों की हर संभव कोशिश जारी रहती है। कई बार गौर करती हूँ तो लगता है कि माता पिता प्रयास  भी खूब करते हैं । पर कई बार ये सभी  कोशिशें बच्चों को साथियों और सहपाठियों की संगत में मिलने वाली सीख के सामने हल्की  पड़ती दिखती  हैं जो उन्हें एक अलग ही मार्ग पर ले जाती है । बच्चों का मन मस्तिष्क  भी घर के बाहर जो कुछ सुनते हैं, जानते हैं उसको अधिक सहजता से स्वीकार कर पाता है । बच्चों को हर तरह के अवगुणों से बचाने  और सुसंस्कृत  करने की कोशिशें आज के समय में काम ही नहीं कर पातीं ।  क्योंकि वो सामाजिक वातावरण ही नहीं है जो उन संस्कारों को पोषित कर सके जो अभिभावक बड़े परिश्रम से बोते हैं ।

आज के बच्चों को ना तो चाहरदीवारी में कैद करके रखा जा सकता है और न ही उन्हें कोई टोकाटाकी अच्छी लगती है । अभिभावक चिंतित रहते हैं और डरे डरे भी । करें तो क्या करें ? बच्चों के साथ कुछ कहा सुनी भी होती है तो अपराधबोध बड़ों के हिस्से ही आता है । इसी को कम करने के लिए उनकी कई तरह की मांगें भी मान लीं जाती हैं । बड़ों को भी लगता है कि वे बच्चों का मन रखने लिए कुछ करें तो बुरा क्या है ?  अभिभावकों का ऐसा व्यव्हार कई बार तो बच्चों में आक्रामकता और नकारात्मक व्यवहार को बढ़ावा देने वाला भी साबित होता है ।  

आज के अभिभावक एक अजीब सी दुविधा के  घेरे में हैं  । बच्चों को खुली छूट दें तो समस्या और न दें तो और भी बड़ी समस्या  । क्योंकि जब तक जिम्मेदारी का भाव समझ ना आये सीमा से अधिक स्वतंत्रता भी उन्हें दिशाहीन ही करती  है । आज बच्चों के पास संवाद के साधन भी पहले से कहीं ज्यादा है । तो निश्चित रूप से घर के बाहर उनका किसी मिलना जुलना किन लोगों के साथ है इससे भी अभिभावक कई बार तो अनजान ही रहते हैं । कितनी घटनाएँ कुछ इसी तरह की होती हैं जब माता -पिता को गलती करने के बाद पता चलता है की उनका बच्चा किस राह पर है ?  इसे  चाहे औरों से पीछे छूट जाने का भय कहें या अपनी भागदौड़ का अपराधबोध हल्का करने की जुगत ।  बच्चों को वो सब कुछ उपलब्ध भी करवाया जाता है जो अब बच्चों की आश्यकता नहीं उनकी इच्छा भर होता है । कभी उनका मन रखने के लिए तो कभी स्वयं को दिलासा  देने हेतु।  अभिभावक भी वे सारे उपक्रम करते नज़र आते हैं जो चाहे अनचाहे जाने अनजाने बच्चों के जीवन की दिशा ही मोड़ देते है । बच्चों को उपलब्ध करवाई गयी सुविधाओं का दुरूपयोग कब और कैसे शुरू हो जाता है स्वयं अभिभावक भी नहीं समझ पाते । कई मामलों में जब तक समझ पाते हैं बहुत देर हो चुकी होती है । बच्चों का उचित पालन पोषण करने  के लिए जाने कितनी बातों से जूझना आज के अभिभावकों के लिए आवश्यक हो गया है । ऐसे में  घर के साथ  ही बाहर का परिवेश भी सहयोगी बने तो संभवतः यह जिम्मेदारी सभी के लिए कुछ सरल हो ।