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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

26 April 2013

पुरुष की नकारात्मक प्रवृत्ति का शिकार अंततः एक स्त्री ही बनती है- एक अवलोकन


हमारी सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था ही कुछ ऐसी है कि एक स्त्री का जीवन केवल उसके अपने नहीं बल्कि घर के पुरुषों के व्यवहार से भी प्रभावित होता है ।  निश्चित रूप से इन मामलों के कुछ अपवाद भी हमारे परिवेश में मिल ही जायेंगें पर एक सामान्य अवलोकन से कुछ ऐसा परिदृश्य ही सामने आता है । पुरुषों के स्वाभाव और प्रवृत्ति को घर की महिलाएं सबसे ज्यादा झेलती हैं । 

अगर शराब पीते हैं तो उन कमज़ोर आदमियों की इस लत के चलते सबसे ज्यादा दर्द घर की औरतों को ही उठाने पड़ते हैं । अनगिनत औरतें इस पीड़ा को जीती हैं । इस लत के चलते मिलने वाले दुःख और दर्द को  एक माँ, पत्नी, बहन और बेटी भी झेलती है । जबकि उनका इसमें न कोई दोष होता है और ना ही कोई भागीदारी । 

हिंसात्मक व्यवहार है तो अपना शक्ति सामर्थ्य और क्रूरता दिखाने  के लिए घर की महिलाएं ही सबसे सुरक्षित शिकार लगती हैं । हिंसात्मक व्यवहार में शाब्दिक और भावनात्मक उत्पीड़न तो अपने आप ही शामिल हो जाते हैं । 

अंतर्मुखी हैं तो संवाद बंद कर देंगें । देखने में आता है कि यह बातचीत ना तो दोस्तों की टोली के साथ बंद  होती और ना ही  दफ्तर के साथियों से । आमतौर पर इस गुण को भी घर की महिलाएं ही सबसे ज्यादा झेलती हैं । अपने ही परिवेश में ऐसे अनगिनत लोग मिल जायेंगें जो अपने काम के अलावा मिलने वाले समय को घर के बाहर ही बिताना पसंद करते हैं और घर में आते ही चुप्पी धारण कर लेते हैं । 

बहिर्मुखी हैं, तो अपना बड़बोलापन  सबसे ज्यादा घर स्त्रीयों को कुछ न कुछ नकारात्मक और पीड़ादायक बोल-सुना कर ही व्यक्त किया जाता है । इस आदत के चलते कई सारी नकारात्मक टिप्पणियाँ और उपमाएं माँ , बहन, पत्नी और बेटी,  चाहे जो सामने हो, शब्द बन मुखरित हो जाती है । 

इनमें से किसी आदत के चलते अगर आर्थिक हानि होती है तो उसका खामियाज़ा भी घर हर की स्त्रीयों को ही उठाना पड़ता है । उन्हें ही अपनी आवश्यकताओं  में कटौती करनी पड़ती है । शराब जैसी लत में तो महिलाओं की स्वयं की कमाई गंवाने की स्थितियां भी बन जाती हैं । अपनी मेहनत  की कमाई न देने पर शारीरिक हिंसा तक झेलने को विवश होती हैं । 

अंततः यदि  इन बुरी आदतों के चलते कोई  पिता,पति, भाई और बेटा शारीरिक या मानसिक व्याधि का शिकार बन जाता है तो उसकी देखभाल का जिम्मा भी घर की किसी न किसी महिला के हिस्से ही आता है । पुरुष की प्रत्येक नकारात्मक प्रवृत्ति का शिकार अंततः एक स्त्री ही बनती है । न केवल शारीरिक  बल्कि मनोवैज्ञानिक रूप से भी घर की महिलाएं पुरुषों की गलतियों का अघोषित दंड भोगती हैं ।

आज जबकि हर ओर बदलाव लाने की बात हो रही है, अपने परिवेश में देखे जाने ये बिंदु मन में आये । इन्हें साझा करते हुए यही सोच रही हूँ कि महिलाओं की स्थिति में सुधार मोर्चे नहीं देहरी के भीतर का बदलाव ही ला सकता है । वो भी पुरुषों की सोच और व्यवहार का परिवर्तन । क्योंकि जिस बेटे के व्यवहार और आदतों में नकारात्मकता नहीं रहेगी वो अपनी पत्नी के साथ भी मानवीय व्यवहार ही करेगा । अपनी पत्नी को मान देने वाला व्यक्ति अपनी बिटिया और बहन को भी स्नेह और सुरक्षा ही देगा। अपनी सोच और व्यवहार में सकारात्मकता रखने वाला कोई भी पुरुष जब अपने घर में सधा  और सम्माननीय व्यवहार करेगा तो घर के बाहर भी  किसी स्त्री के मान को ठेस पहुँचाने का विचार उसके मन में नहीं आएगा ।

19 April 2013

हे राम...बेटियों के वंदन और मानमर्दन का कैसा खेल

खो ना जाये मनुष्यता 
आज मन बहुत व्यथित है । एक पांच वर्षीय बच्ची के साथ हुयी पाशविक घटना के बारे में जानकर । सच, मन दहला देने वाला परिदृश्य प्रस्तुत कर रहा है आज के दौर का समाज । बेटियों का आगे बढ़ना , पढना लिखना, उनका पूजनीय होना हर शब्द बस प्रदर्शन भर लग रहा है । दुष्कर्म मानो प्रतिदिन सुना जाने वाला शब्द हो चला है । देश की महिलाओं और बेटियों के साथ आये दिन पाशविक कृत्य हो रहे हैं । साथ ही जिस तरह की सामाजिक-प्रशासनिक व्यवस्था में हम जी रहे हैं, संभवतः आगे भी होते ही रहेंगें । कहाँ जा रहे हैं हम ? किस ओर  मुड़ गयी  है हमारी सामाजिक पारिवारिक व्यवस्था ? मानवता को लज्जित  करने वाले ऐसे कृत्य क्यों आये दिन देखने-सुनने  में आ रहे हैं ?  ये सारे प्रश्न तो बनते हैं । इस देश की न्यायिक व्यवस्था से भी और सामाजिक तानेबाने से भी । जिनकी दृष्टि में स्त्रियाँ देवी तो हैं पर मनुष्य भी हैं की नहीं । यदि  हैं तो ऐसे निंदनीय कृत्य राजनीति का खेल खेलने और वक्तव्य देने भर के लिए हैं । 

आज लग रहा कि दामिनी केस में पाशविकता की हर सीमा पार करने वाले अपराधियों को दंड दिया जाना कितना आवश्यक था । शीघ्रता से उस मामले का निपटारा कर न्याय किया गया होता तो इन  कुत्सित मानसिकता वालों को कुछ तो भय होता कानून का । इस तरह के आपराधिक मामलों पर सरकार और न्याय व्यवस्था के द्वारा कोई ठोस कदम नहीं उठाया जाना दुखद और  दुर्भाग्यपूर्ण है । ऐसे दुष्कर्मियों को दण्डित कर यह सिद्ध करना ज़रूरी है कि दुष्टता सहन नहीं की जाएगी । पर हुआ क्या ? एक खेल खेला गया  देश की बेटी (दामिनी) और उसके परिवार के साथ भी और उस जनमानस के साथ भी जो दामिनी को न्याय दिलाने अपने घरों से निकला था । आज एक मासूम बच्ची के साथ फिर वही  हैवानियत भरा व्यवहार किया गया । सपष्ट है कि इस देश में कानून व्यवस्था का भय तो है नहीं ।  हमारी न्यायिक व्यवस्था इतनी लचर और निराशाजनक है कि ऐसे लोगों की हिम्मत और बढ़ रही है । 

मन को विचलित कर जाती हैं ऐसी घटनाएँ । दरिंदगी का ऐसा कुत्सित खेल खेलने वालों के लिए तो कड़ी कड़ी से सज़ा का प्रावधान ज़रूरी है । यह केवल कानून बनाकर नहीं किया जा सकता । इसके लिए पूरी सामाजिक, पारिवारिक और प्रशासनिक व्यवस्था को पीड़ितों का दर्द समझना होगा । उनका साथ देना होगा । जबकि होता इससे उलट  ही है । इस घटना के बाद भी बच्ची और उसके परिवार के साथ पुलिस का व्यवहार बहुत निंदनीय रहा । उनका दुःख समझ कर बच्ची को स्तरीय चिकित्सा उपलब्ध  करवाने के बजाय उन्हें डराया धमकाया गया । ऐसे में हम सब समझ सकते हैं कि देश के कानून पर कोई विश्वास करे भी तो कैसे ? जिनके हाथों में हमारी सुरक्षा का दायित्व हो उनका ऐसा व्यवहार इन दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थतियों को और जटिल बना देता है । 

कल ही तो देश भर में पूजन वंदन हुआ है बेटियों का । ऐसे में एक मासूम बिटिया के मानमर्दन का यह समाचार सुन मन नैराश्य और विषाद से भर गया है । एक बार फिर बेटियों के सपनों की सच्चाई का धरातल नज़र आया । साथ ही उनके तथाकथित पूजनीय होने और सामाजिक मान प्रतिष्ठा पाने की हकीकत का भी भान  हुआ । आत्मा काँप जाती हैं यह सोचते हुए कि जिस हैवानियत भरे व्यवहार की चर्चा भी मैं अपने शब्दों में नहीं कर पा रही हूँ वो उस नन्हीं सी बच्ची ने झेला है ।

ऐसी घटनाएँ अनगिनत प्रश्न उठाती हैं । सोच-विचार को बाध्य करती हैं । हमें हमारे समाज का वो कुरूप चेहरा दिखाती हैं जिसमें सदैव ही दोहरे मापदंड रहे हैं । पाशविकता का यह खेल हम सभी को शर्मिंदा करने वाला है । हम तो मनुष्यता का मान करना ही भूल रहे हैं । ईश्वर ही जाने हम किस ओर जा रहे हैं ? ये सोचकर ही भयभीत हूँ कि इस मार्ग पर चलकर हम पहुंचेगें कहाँ  ?

16 April 2013

गुम हुईं मानवीय संवेदनाएँ

यूँ तो हमारी संवेदन हीनता से हमारा साक्षात्कार प्रतिदिन किसी न किसी समाचार पत्र की सुर्खियाँ करवा ही देती हैं पर कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं कि पूरे समाज की मानवीय सोच पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है । आजकल तो आये दिन कोई न कोई वाकया इस बात की पुष्टि कर जाता  है कि  हमारी सामाजिक संवेदनाओं का लोप हुआ है और होता ही जा रहा है । कभी कभी तो लगता है हमारी इस अमानवीय उन्नति के विषय में संदेह करना ही बेकार है। हम हर दिन एक नया उदहारण प्रस्तुत कर रहे हैं, असवेदंशील व्यवहार का नया शिखर छू रहे हैं । 

हाल ही में जयपुर की एक सुरंग मार्ग पर हुयी सड़क दुर्घटना में एक पिता अपने चोटिल मासूम बच्चे को लेकर घंटों बिलखता रहा पर कोई भी वहां नहीं रुका । इस दुर्घटना में अपनी पत्नी और बच्ची को खो चुका यह आदमी वहां से गुजरने वाले लोगों से सहायता मांगता रहा पर किसी ने भी उसकी मदद नहीं की । जयपुर आज भी देश के बहुत बड़े शहरों में नहीं आता । यहाँ बड़े से मेरा तात्पर्य देश के ऐसे महानगरों से है जहाँ सामाजिक परिवेश से कोई नाता ही न रहे । यहाँ महानगरों के सन्दर्भ में बात कर रही हूँ, यह सोचते हुए कि यदि जयपुर जैसे  सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण वाले नगर और उसके नागरिकों की संवेदनशीलता का यह हाल है तो बड़े शहरों के हालातों का तो अनुमान लगाना भी असंभव है ।   

ऐसी घटनाएँ दामिनी केस की भी याद दिलाती हैं । जिस दामिनी को न्याय दिलाने पूरा देश सड़कों पर उतर आया था वो घंटों बिना कपड़ों के सड़क पर तड़पती रही और कोई उसकी और उसके साथी की सहायता के लिए नहीं रुका । कभी कभी तो आश्चर्य होता है कि मानवीय संवेदनाओं को यूँ ताक पर रखने वाले हम आन्दोलन करने कैसे निकल पड़ते हैं ? क्या यह सोचने का विषय नहीं कि विपत्ति में फँसे  लोगों की सहायता करने में हमारी सहभागिता कितनी है या कितनी होनी चाहिए ?

निश्चित रूप से यह चिंतन-मनन का विषय है । देश के प्रत्येक  नागरिक के लिए भी और प्रशासनिक व्यवस्था के लिए भी । एक आम नागरिक के लिए यह विचारणीय है क्योंकि हमें यह विचार क्यूँ नहीं आता कि ऐसी दुखद घटना किसी के भी साथ हो सकती है । हमारे साथ भी । हमारे अपनों के साथ भी । तो हमें कैसा लगेगा लोगों का ऐसा व्यवहार देखकर । मनुष्यता के मायने तो यही सिखाते हैं कि इन आपातकालीन परिस्थितियों में पीड़ित को हर संभव मदद उपलब्ध करवाई जाये । यह सहायता हर जिम्मेदार नागरिक का कर्तव्य और और संवेदनशील इन्सान का धर्म है ।  

प्रशासनिक व्यवस्था के लिए भी ऐसे वाकये चिंतन करने योग्य हैं । व्यवस्था के लिए यह शोध का विषय होना चाहिए कि  क्यों कोई आम नागरिक ऐसे मामलों में चाहकर भी मदद का हाथ आगे नहीं बढाता ? हर कोई बस बचकर निकलना चाहता है । घटना स्थल को पार करते ही मानो चैन  की साँस ली हो । यह प्रशासनिक व्यवस्था के प्रति विश्वास की ही कमी है कि आम आदमी अपने बच्चों को भी यही सिखाता है कि ऐसे मामलों में वे किसी झमेले  में न उलझें । बस, बचकर निकल आयें । आम आदमी की सुरक्षा और सहयोग  के लिए बने राज और समाज के इस तानेबाने में आयी यह विश्वनीयता की कमी कितने ही प्रश्न उठाती है । भय का वातावरण तैयार करती है । जहाँ संकट के समय भी किसी से सहायता मिल जाने की आस नहीं ।  

समग्र रूप से समाज में आमजन और तंत्र दोनों का यूँ संवेदनाओं से परे होना दुखद है । यह एक ऐसा विषय है जिस पर हर परिवार में संवाद होना आवश्यक है । साथ ही प्रशासनिक स्तर पर भी ऐसे अभियान चलाये जाने ज़रूरी हैं जो हर नागरिक को यह समझा सकें, विश्वास दिला सकें  कि ऐसे समय में किसी की मदद करने का अर्थ स्वयं को समस्या में उलझाना नहीं है । तभी निर्भय होकर आमजन कठिन समय में किसी की मदद करने को आगे आ सकेंगें । संभवतः ऐसा होने पर कई दुर्घटना पीड़ितों को समय पर चिकित्सा मिल सके । कितने ही जीवन बचाए जा सकें । हमारी सामाजिक और मानवीय संवेदनाएं क्यों खो गयीं हैं ? यह प्रश्न हर स्तर पर विचारणीय है । संकट के समय ही हम साथ नहीं, संगठित नहीं तो हमारी सामाजिक व्यवस्था के क्या अर्थ रह जायेंगें ? 

07 April 2013

मेरा मानवीय कद

चैतन्य
तुम बड़े हो रहे हो
सीख गए हो जूते के फीते बांधना
साथ ही अपनी बातों को साधना
आ गयी  है तुम्हें 
मन की कहने, मोह लेने की 
अद्भुत कला 
जुटा लेते हो कितनी ही
ऊर्जा हर दिन
 चेतना जगाता चैतन्य 
अभिनव सीखने-जानने की 
और मुझे सिखाने  की

तुम्हारे अनगिनत प्रश्नों के
उत्तर खोजने की चाह 
अब नई ऊर्जा ले आई है 
मेरे भी विचारों में 
साथ ही चला आया है 
परछाइयों से खेलने का धैर्य और 
कहानियां गढ़ने का सामर्थ्य भी

मेरे लिए   अब 
चन्द्रमा का आकार 
कछुये की चाल 
तितलियों के पंख 
फूलों के रंग 
शोध के विषय हैं  

सीखने की इस नई शुरुआत ने 
ज्ञान  के कितने ही द्वार 
खोल दिए हैं 
जो मुझे मुझसे जोड़ने के लिए हैं 
संवेदनाओं का पाठ
पढ़ने के पथ पर
तुम्हारा साथ
मनुष्यता के भावों से
परिचय करवा रहा है
हाँ, चैतन्य तुम बड़े हो रहे हो
और साथ ही बढ़ रहा है
माँ के रूप में
मेरा मानवीय कद ।

05 April 2013

फोन स्मार्ट और यूज़र स्लो

एक समय था जब कई सारे फोन नंबर मौखिक याद थे । इतना ही नहीं कई पते ठिकाने और अन्य आम जीवन से जुड़ी जानकारियां सहेजने को मस्तिष्क स्वयं ही तत्पर रहा करता था । कभी इसके  लिए विशेष श्रम भी नहीं करना पड़ता था  । कारण कि कोई और विकल्प ही नहीं था अपने दिमाग को काम में लेने के अलावा  । मोबाइल  फोन के आविष्कार ने यह समस्या हल की । पहली बार मोबाईल लिया तो अच्छा ही लगा था । सब कुछ कितना सरल हो गया था । अपनी स्मरणशक्ति की थाह मापने की तब आवश्यकता ही नहीं रही थी ।  

तकनीक का विकास कहीं ठहरता नहीं । भले ही  हमारी आवश्यकताएं पूरी हो रही हों, हम जो है उसी में संतुष्ट हों । फिर भी कुछ ना कुछ नया हमारे समक्ष परोसा ही जायेगा । इसी तर्ज़ पर संचार की दुनिया में  कुछ साल पहले समार्ट फोन भी मोबाइल के मायावी संसार को और मायावी बनाने के लिए आ पहुंचा । भारत ही नहीं वैश्विक स्तर पर भी इसे हाथों हाथ लिया गया । हो भी क्यों नहीं ? स्मार्ट फोन का सुंदर संसार हथेली में सहेज कर रखना किसे नहीं भाता । सभी को लगा मानो संसार भर की सूचनाएं और त्वरित सुविधाएँ  जैसे टीवी, कम्प्यूटर, केलकुलेटर,  घड़ी,  रेडियो सबको एक साथ मुठ्ठी में भर लिया हो ।

नाम और फोन नंबर के अलावा भी अब तो हर जानकारी हमारी अँगुलियों की सीमा में आ गयी । हम सबका आत्मविश्वास भी बढ़ गया । चाहे जो जानना हो , सब कुछ पहुँच में आ गया । ध्यान देने योग्य बात ये रही कि इस दौरान  तकनीक पर  हमारा भरोसा जितना बढ़ता गया अपने आप के ऊपर से उसी अनुपात में कम भी होता गया । अब अगर कुछ स्मरण भी रहता तो भी हमेशा हथेली में रहने वाले समार्ट फोन से जानकारी लेकर प्रमाणित कर लेना अनिवार्य बन गया । विश्वास ही नहीं होता कि जो फोन नंबर या किसी का अता-पता हमारे मस्तिष्क में सुझाया है, वो सही भी हो सकता है । जैसे-जैसे समय बीतता गया हमारे हाथ का फोन और स्मार्ट होता गया और हम स्लो । 


हमारी दिखावा संस्कृति को भी स्मार्ट फोन की उपलब्धता खूब भायी । इसकी वजह भी थी । आमतौर पर  दूसरे महंगें टेक्नीकल गैजेट्स घर पर ही विराजमान रहते हैं । कहकर बताना पड़ता है कि इन दिनों क्या और कितने का खरीदा है । जबकि स्मार्ट फोन सदा साथ चलने वाला गैजेट है । तभी तो मुठ्ठी में भरी आर्थिक हैसियत की बानगी को बिना ज़रुरत भी अपनाया गया । आवश्यकता के लिए नहीं संतुष्टि के लिए । संतुष्टि जो सीधे-सीधे हमारी प्रतिष्ठा से जुड़ी थी । कारण कोई भी हो हम जितना स्मार्ट फोन को अपनाते गए वो उतना ही निखरकर हर साल हमारे सामने आता रहा। स्मार्टफोन की स्मार्टनेस बढ़ती गयी और हमने उसे अपना भर लेने में ही अपने आप को स्मार्ट समझ लिया । तकनीक के विस्तार में हमारा मस्तिष्क कितना संकुचित हुआ इतना विचार करने का समय भी नहीं दिया स्मार्टफोन ने । 

सुना है कि अब तो एक ऐसा स्मार्ट फोन भी बाज़ार में है जो पानी में भी बेकार नहीं होता । ऐसे में कई बार सोचना पड़ता है कि स्मार्ट फोन तो ऐसा जो पानी में  भी ख़राब नहीं होता और हम इतने ख़राब हो चले हैं कि डूबने भी लगें तो अपना समार्ट फोन ही टटोलेंगें कि अब क्या किया जाय ? कहाँ से क्या खोज कर सहायता ली जाय ? कुछ  इसी तरह का एक दूसरा स्मार्ट फोन है जिसे हम अपनी दृष्टि मात्र से नियंत्रित कर सकते हैं । यह तकनीकी सफलता का चरम  ही कहा जायेगा कि एक ऐसा गैजेट भी आखिर आ ही पहुंचा जो हमारी नज़रों के इशारों पर चलेगा । हम जो स्वयं को अपने अधीन रखना भूलते जा रहे हैं।  

निर्भरता की सीमा के पार तकनीक पर निर्भरता । हमारे घर का, अपनों का फोन नम्बर भी हमें मशीन बताये तो समझ ही सकते हैं कि कितने अधूरे हैं हम इन गैजेट्स के बिना । तकनीक की प्रगति से भिन्न कई सारे पहलू हैं इस  यांत्रिक निर्भरता के ।  निश्चित रूप से ये सभी पहलू सकरात्मक तो नहीं हैं। स्मार्टफोन जैसे गैजेट्स के चमचमाते मायावी संसार में हम स्वयं ही धुँधले  हुए जा रहे हैं । तकनीक की विकास यात्रा में हमारा अपना यूँ पिछड़ना अखरता है कभी कभी ।