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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

31 March 2013

बावला बनने का सुख

सचमुच में बावला होने के जितने दुःख हैं सोच समझकर बावला बनने  के उतने ही सुख । मूर्ख बने रहना हर परिस्थिति में कमजोरी नहीं होता । कई बार तो ऐसा भी देखने में आता है बावलेपन से बड़ी कोई युक्ति नहीं होती । ऐसी युक्ति जो अपनाने वालों को बड़ी से बड़ी समस्या का हल खोजने में सहायता करती है । इतना ही नहीं बावलेपन की युक्ति लगाकर जो बच निकलते हैं उन्हें सहानुभूति  की सौगात भी मिलती है ।

स्वयं को बावला मान लेने के अनगिनत लाभ हैं । कई सारे  दूरदर्शी और जीवन की गहरी समझ रखने वाले तो स्वयं ही ये  घोषित कर देते हैं कि वो बावले-भोले हैं । कई औरों से  यह उपाधि पाने पर  कोई आपत्ति नहीं उठाते ।  धीरे धीरे इस उपाधि को सबकी स्वीकार्यता मिल जाती है  । बस, समझिये कि इसी भोलेपन की योग्यता के आधार पर वो व्यक्ति अपनी अधिकतर समस्याओं से पार पा  लेता है । यूँ भी समझदारी दिखाने में रखा ही क्या है ? जिम्मेदारियों के सिवा हाथ ही क्या आता है ? इसीलिए बवाले बन जाने और मूर्खता के माध्यम से अपनी होशियारी दिखाते रहने से अधिक अच्छा और कुछ नहीं । 

यदि स्वयं  को मूर्ख मान  लिया और औरों को भी अपनी इस योगता का विश्वास दिला दिया जाय तो न कभी आपको कोई उपदेश मिलेंगें न ही सीख दी जाएगी । ना आपसे कुछ कर दिखाने की आशा रखी जाएगी और न ही कुछ ऐसा कर दिखाने को कहा जायेगा जो आपको चिंता में डाल  दे । हर गुण अवगुण को भोलेपन के आवरण में शरण मिल जाती है । होता तो ये  भी मूर्ख व्यक्तियों को योजनागत ढंग से न केवल आश्रय दिया जाता बल्कि वे तरक्की और प्रशंसा भी खूब पाते हैं । ध्यान देने वाली बात यह है कि ऐसी सफलता वे अधिक पाते  हैं जो जान बूझकर स्वयं को मूर्ख सिद्ध करते हैं । संभवतः इसका कारण  यह कि  उनका भोलापन अन्य  लोगों को और कुशल एवं जिम्मेदार बनने का अवसर जो देता है । 

ऐसे कितने ही बिंदु हैं जिनके आधार पर बावला बनने वाला व्यक्ति बुद्धिमत्तापूर्ण बातें करने वालों को पराजित कर सकता है ।  यूँ भी समझदार लोगों की समझ आसपास वालों को सदैव खतरे का ही आभास करवाती  है । तभी तो अधिक बुद्धिमान लोगों का साथ देने के लिए भी लोगों के मन में हिचक होती हैं । जबकि यही साथ और सहयोग बावले लोगों की झोली में स्वयं आ गिरता है । हो भी क्यों नहीं, जो कुछ जानता समझता ही नहीं उससे खतरा कैसा ? तभी तो कई बार मूर्खता का मान और मूल्य बुद्धिमत्ता से कहीं बढ़कर होता है । कुछ लोगों को तो अपनी होशियारी दिखाने के लिए भी बावलियों की आवश्यकता होती है । कम से कम हमारे देश में तो ऐसे उदाहरणों की कोई कमी नहीं । 

मूर्ख बने रहने का एक  लाभ यह भी है कि किसी व्यक्ति की मूर्खता से परेशान या दुखी होने पर भी कोई उसे समझाने का जोखिम  नहीं उठाएगा । किसी का जीवन बावलेपन की इस काबिलियत से कष्टमय बना है तो बना रहे, कोई उलहना देने भी नहीं आएगा । 'मुझे क्या पता' का सूत्र हर परिस्थिति में काम कर ही जाता है । स्वयं के बिना कुछ किये ही यह योग्यता कमाल कर जाती है । विशेषकर उन लोगों के लिए जो होशियारी से मूर्ख बनते हैं और हमेशा बावला बने रहने को ही होशियारी समझते हैं :)   

13 March 2013

वक्तव्य बदलने का खेल


कहते हैं कि अपने मन मस्तिष्क में सब कुछ सोचा तो जा सकता है पर सब कुछ कहा नहीं जा सकता । क्योंकि शब्द जिसके मुख से उच्चारित होते हैं, उस व्यक्ति विशेष के लिए हमारे मन में गरिमा और विश्वसनीयता के मापदंड तय करते हैं । इस विषय में यह मान्यता होती है कि कही गयी बात बोलने वाले व्यक्ति ने विचार करने के बाद ही कही होगी । चर्चित चेहरों के विषय में बात ज्यादा लागू होती है क्योंकि समाज में उन्हें एक आदर्श व्यक्तित्व के रूप में देखता है । संभवतः इसीलिए कहा गया है कि प्रसिद्धि अपने साथ उत्तरदायित्व भी लाती  है । जिसे निभाने के लिए सबसे पहला कदम तो यही है कि विचार रखने से पहले सोचा समझा जाय ।

वो नहीं ....................................ये कहा था 
शब्द जब तक अकथित हैं विचारों के रूप में केवल हमारी अपनी थांती हैं । मुखरित होने के बाद शब्द हमारे नहीं रहते । इसीलिए जो कहा जाय, वो सधा और सटीक हो, यह आवश्यक  है। यूँ भी शब्दों के प्रयोग को लेकर विचारशीलता बहुत मायने रखती है । स्वयं को व्यक्त करते समय यह विचार करना आवश्यक है कि आपकी अभिव्यक्ति मर्यादित है या नहीं । जो कह डाला उसे बदलने या अपने कहे की जिम्मेदारी ना लेने से हमारे ही विचारों की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आती है । 

हमारे यहाँ तो अपने ही शब्दों में उलटफेर करना एक खेल के समान है । राजनेता, अभिनेता और  सामाजिक कार्यकर्ता से लेकर एक आम नागरिक तक, अपने द्वारा कथित वक्तव्यों से पलटने के इस खेल में निपुण  हैं | 'मेरी कही बात का गलत अर्थ निकाला गया है ' या 'मेरे कहने का का अभिप्राय वो नहीं है जो आप समझ रहे हैं ' जैसे वाक्य कहकर अपने द्वारा कहे शब्दों का अर्थ-अनर्थ सब बराबर कर देते हैं ।  इस मार्ग को तो यहाँ अनगिनत बुद्धिजीवियों ने भी बड़े गर्व के साथ अपनाया है । 

प्रश्न ये उठता है कि घर  से लेकर स्कूल तक हमारी प्रारंभिक शिक्षा-संस्कारों में ही अपने कहे शब्दों की जिम्मेदारी लेने की सीख क्यों दी जाती ? क्यों नहीं यह पाठ पढ़ाया जाता कि जो कहें सोच विचार कर कहें ?क्योंकि यदि व्यक्तिगत रूप से हम सब अपने वक्तव्यों के लिए जवाबदेह बनते हैं तो कई सारी सामाजिक , पारिवारिक  समस्याओं का निपटारा तो यूँ ही हो जायेगा । ऐसा इसलिए कि जब सोच विचार कर कहेंगें तो  उस जिम्मेदारी को निभाने में भी पीछे नहीं रहेंगें । मानसिकता ही कुछ ऐसी विकसित होगी कि कथनी और करनी में कोई अंतर न रह जायेगा । अंततः यही  सोच  हमें वास्तविकता से जोड़ने का काम करेगी । जो  देश, समाज और परिवार के प्रति जिम्मेदारियों के भाव को जन्म देगी । 

जो कहा जा चुका है उसका स्पष्टीकरण देने की परस्थितियाँ ही  न बनें  इसके लिए यह आवश्यक  है कि अपने विचारों को साझा करने से पहले शब्द और उनका भावी अर्थ हमारे ही मन-मस्तिष्क में स्पष्ट हो।   हमें इतना तो याद रखना ही होगा कि मुखरित शब्दों में कभी संशोधन नहीं होता । 

06 March 2013

उम्र को पराजित कर थमा टर्बन्ड टोर्नेडो

टर्बन्ड टोर्नेडो अब थम गया है | फौजा सिंह, जिन्होनें जीवट का नया आदर्श स्थापित किया, संसार भर में यह सन्देश देने में सफल रहे कि संकल्पशक्ति से सब संभव है । समस्याओं, अवसादों से पार पाना भी और जीवन को पूरे उत्साह से जीते हुए आगे बढ़ना भी । संभवतः वे संसार के एक अकेले ऐसे व्यक्ति हैं , या यूँ कहें की खिलाड़ी  हैं जिनका रिटायर होना एक अजब गजब सा समाचार है । हो भी क्यूँ नहीं ? 101 वर्ष की आयु में किसी धावक का थमना है भी आश्चर्यचकित करने वाला ही । 
89 साल की आयु में खेल की दुनिया से परिचय हुआ फौजा सिंह का । बीते दिनों उन्होंनें अपनी सेवानिवृत्ति की घोषणा की | अब वे प्रतिस्पर्धी दौड़  नहीं लगायेंगें | बस, अपनी सेहत बनाये रखने के लिए उनकी दौड़ जारी रहेगी | जिसका सीधा सा अर्थ ये है कि वे अब तक क्रियाशील रहे और आगे भी रहेंगें |  अपने जीवन के असामान्य दौर में अपनी पत्नी और युवा बेटे को खो देने के बाद अवसाद में घिरे फौजा अपने दूसरे बेटे के पास लन्दन चले गए | यहीं, लन्दन में उन्होंने  89 वर्ष की आयु में फिर से जीवन को गति दी | दौड़ना शुरू किया, क्योंकि वे उस दुःख और अवसाद से बाहर आना चाहते थे | मैराथन प्रतिस्पर्धी दौड़ में अपनी आयु वर्ग में उन्होंने कई रिकॉर्ड अपने नाम किये | जीवन के जिस मोड़ पर फोजा सिंह ने  नई शुरुआत की वे यहाँ  की भाषा नहीं जानते थे | मानसिक पीड़ा से जूझ रहे थे | इन परिस्थितियों में उन्होंने स्वयं को संभाला और विचलित हुए बिना पूरी प्रतिबद्धता से इसमें जुटे रहे | इसी के चलते उन्हें टर्बन्ड टोर्नेडो, रनिंग बाबा और सिख सुपरमैन जैसे नाम मिले | खेल दुनिया में उन्हें अपने हर दुःख का उपचार मिला | सच में अपनी उम्र को पराजित कर इतिहास रचने वाले फौजा सिंह की कहानी आत्मविश्वास और आत्मबल की कहानी है | 

फौजा सिंह यूँ तो हिंदुस्तान के ही रहने वाले हैं | पर मन में ये प्रश्न कई बार उठता है कि क्या वे भारत में रहते हुए ये सब कर पाते ?  जिस आयु में उन्होंने फिर से खेल के संसार को अपना सहारा बनाया, यहाँ संभव था ? उनकी आशाओं भरी सोच को वास्तविकता का धरातल मिल पाता ?  क्या अवसाद में घिरा एक बुजुर्ग यूँ संसार में दिलेरी की मिसाल कायम कर पाता | संभवतः नहीं | समय के साथ हमारे सामाजिक परिवेश में बहुत कुछ बदला है | पर इतना कुछ बदलने के बाद भी बुजुर्गों की एक परिपक्व छवि ही सुहाती है सभी को | उसी रूप में उनको स्वीकार भी किया जाता है |  हमारे यहाँ तो मानो आयु के अलग अलग खांचे बने हुए हैं | इन बने बनाये आयु वर्गों ने हमें बांध रखा है | कुछ इस तरह कि इनसे इतर कुछ सोचना कभी तो घर परिवार के लोगों को गंभीर समस्या लगने लगता है और कभी हास्यास्पद | 

एक उम्र के बाद हमारे यहाँ कोई कुछ करने की ठाने तो उसके हौसले को पस्त करने के लिए अनगिनत बातें करामातें मौजूद हैं | बड़ी उम्र के लोगों के लिए जीवन को नीरसता से जीना और बनी बनाई राह  पर चलते रहना ही स्वीकार्य है यहाँ | सहयोग की अपेक्षा तो की ही नहीं जा सकती  |  जिस उम्र में फौजा सिंह ने एक नई मिसाल कायम की, हमारे यहाँ तो संभवतः किसी बुजुर्ग के ऐसे हौसले को स्वीकार्यता ही न मिले | दुखद ये कि इस असहमति में परिवार और समाज दोनों बढ़ चढ़कर भागीदारी निभाते हैं | 

सोचती हूँ हमारे यहाँ बुजुर्गों का एक बड़ा प्रतिशत ऐसा है जिनका मनोबल और इच्छाशक्ति युवाओं से कहीं बढ़कर है | साथ ही अनुभवों के आत्मविश्वास से पूरित  भी | ऐसे में वे कई तरह से अपना योगदान समाज और परिवार में दे सकते हैं | साथ ही कुछ ऐसा भी कर सकते हैं जो आयु के इस पड़ाव पर भी उन्हें जीवंत और जागरूक होने का आभास करवाए | ताकि उन्हें भी ज़िन्दगी न रुकी सी लगे और न ही थकी सी |