उसकी उम्र कोई आठ साल सुबह सवेरे उठ
स्कूल जाता है। स्कूल से लौट कर आने तक उसके म्यूजिक टीचर घर आ जाते हैं।
उसके बाद उसे ट्यूशन क्लास जाना होता है। तब तक स्वीमिंग क्लास जाने का समय
हो जाता है। शाम को उसके डांस क्लासेस का वक्त होता है। वहां से लौटकर
होमवर्क पूरा करता तब तक उसे उबासी आने लगती है। इतनी व्यस्त दिनचर्या के
बाद रात बिस्तर में भी वो बिजी ही रहता है , कोई कहानी सुनने या माँ की गोद
में खेलने में नहीं, बल्कि कविता याद करने में जो उसे स्कूल के फंक्शन में
सुनानी है | इस भागमभाग के बीच न तो मासूम बचपन को अपनी इच्छा से पंख
फ़ैलाने की फुर्सत है और ना ही थककर सुस्ताने की | बस , यंत्रवत जूझते रहना
है | उसकी उपलब्धियां क्या और कितनी होंगीं ? यह रेखांकन पहले ही किया जा
चुका होता है | जिन्हें समय समय पर उसके अपने याद दिलाते रहते हैं |
ऐसी दिनचर्या आजकल हर उस बच्चे की है जिसके माता-पिता उसे सब कुछ बनाने की चाह रखते हैं। आजकल अभिभावकों ने जाने-अनजाने अपने अधूरे सपनों और इच्छाओं को मासूम बच्चों की क्षमता और अभिरुचि का आकलन किये बिना उन पर लाद दिया है। हर अभिभावक की बस एक ही इच्छा है कि उनका बच्चा हर जगह, हर हल में अव्वल रहे । उनका बच्चा ऑल राउंडर हो , दूसरे बच्चों से अधिक प्रतिभावान हो, हर एक अभिभावक यही चाहता है । अभिभावकों के मन मष्तिष्क में यही सोच होती है कि उनका बच्चा अन्य साथियों सहपाठियों से श्रेष्ठ प्रदर्शन करे। जिसके परिणास्वरूप कई बार बच्चों के प्रति घर के बड़ों के व्यवहार आक्रामक और असंवेदनशील भी जाता है | जो बच्चों के लिए शारीरिक और मानसिक पीड़ा का कारण बनता है । अभिभावकों की ऐसी महत्वाकांक्षाओं का बोझ मासूमों को अवसाद की ओर ले जा रहा है। अंकों के खेल में अव्वल रहना उनकी विवशता बन गया है। यही कारण है कि हर साल जब परीक्षा परिणाम आता है, बच्चों की आत्महत्या के दुखद समाचार सुनने में आते हैं ।
अकादमिक
ही नहीं सांस्कृतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि में भी अभिभावक अपने बच्चों को
सबसे आगे देखना चाहते हैं। टीवी पर छाए बच्चों के रीयलिटी शोज़ ने तो
मासूमों की जिंदगी में क्रांति ला दी है। अपनी प्रतिभा की सिद्ध करने के इस
संघर्ष के नाम पर मम्मी पापा उन्हें दुनिया भर में अपना नाम रोशन करने का
माध्यम समझ बैठे हैं। लोकप्रियता पाने और धन कमाने की चाहत में बच्चे भी
नाच-गा रहे है | बेधड़क द्विअर्थी अश्लील संवाद बोल रहे हैं | ऐसे में
दर्शकों के समक्ष उनके चमकते चेहरे तो हैं पर उनकी शारीरिक थकान और मानसिक
उलझनों कोई नहीं समझ पाता | उन्हें हरफनमौला बनाने के खेल में बचपन की
सरलता और सहजता गुम हो चली है | इसे रचनात्मकता नहीं कहा जा सकता ।
व्यावसायिक रंग में रंगी यह रचनात्मकता बच्चों को कुंठित अधिक करती है
। बच्चे स्वाभाविक रूप से बड़े कल्पनाशील होते हैं । कुछ नया रचने गुनने
में रूचि लेते हैं । तभी तो आनन्द लेते हुए, खेलते हुए जब किसी कार्य को
पूरा करते हैं, परिणाम बहुत बेहतर होते हैं ।
कभी कुछ यूँ ही ..... हमारे मन का भी हो |