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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

28 February 2013

सबको सुपर किड्स की चाह

उसकी उम्र कोई आठ साल सुबह सवेरे उठ स्कूल जाता है। स्कूल से लौट कर आने तक उसके म्यूजिक टीचर घर आ जाते हैं। उसके बाद उसे ट्यूशन क्लास जाना होता है। तब तक स्वीमिंग क्लास जाने का समय हो जाता है। शाम को उसके डांस क्लासेस का वक्त होता है। वहां से लौटकर होमवर्क पूरा करता तब तक उसे उबासी आने लगती है। इतनी व्यस्त दिनचर्या के बाद रात बिस्तर में भी वो बिजी ही रहता है , कोई कहानी सुनने या माँ की गोद में खेलने में नहीं, बल्कि कविता याद करने में जो उसे स्कूल के फंक्शन में सुनानी है | इस भागमभाग के बीच न तो मासूम बचपन को अपनी इच्छा से पंख फ़ैलाने की फुर्सत है और ना ही थककर सुस्ताने की | बस , यंत्रवत जूझते रहना है | उसकी उपलब्धियां क्या और कितनी होंगीं ? यह रेखांकन पहले ही किया जा चुका होता है | जिन्हें समय समय पर उसके अपने याद दिलाते रहते हैं |

ऐसी दिनचर्या आजकल हर उस बच्चे की है जिसके माता-पिता उसे सब कुछ बनाने की चाह रखते हैं। आजकल अभिभावकों ने जाने-अनजाने अपने अधूरे सपनों और इच्छाओं को मासूम बच्चों की क्षमता और अभिरुचि का आकलन किये बिना उन पर लाद दिया है। हर अभिभावक की बस एक ही इच्छा है कि उनका बच्चा हर जगह, हर हल में अव्वल रहे । उनका बच्चा ऑल राउंडर हो , दूसरे बच्चों से अधिक प्रतिभावान हो, हर एक अभिभावक यही चाहता है । अभिभावकों के मन मष्तिष्क में यही सोच होती है कि उनका बच्चा अन्य साथियों सहपाठियों से श्रेष्ठ प्रदर्शन करे। जिसके परिणास्वरूप कई बार बच्चों के प्रति घर  के बड़ों के व्यवहार आक्रामक और असंवेदनशील भी जाता है | जो बच्चों के लिए शारीरिक और मानसिक पीड़ा का कारण बनता है । अभिभावकों की ऐसी महत्वाकांक्षाओं का बोझ मासूमों को अवसाद की ओर ले जा रहा है। अंकों के खेल में अव्वल रहना उनकी विवशता  बन गया है। यही कारण है कि हर साल जब परीक्षा परिणाम आता है, बच्चों की आत्महत्या के दुखद समाचार सुनने में आते हैं ।

अकादमिक ही नहीं सांस्कृतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि में भी अभिभावक अपने बच्चों को सबसे आगे देखना चाहते हैं। टीवी पर छाए बच्चों के रीयलिटी शोज़ ने तो मासूमों की जिंदगी में क्रांति ला दी है। अपनी प्रतिभा की सिद्ध करने के इस संघर्ष के नाम पर मम्मी पापा  उन्हें दुनिया भर में अपना नाम रोशन करने का माध्यम समझ बैठे हैं। लोकप्रियता पाने और धन कमाने की चाहत में बच्चे भी नाच-गा रहे है | बेधड़क द्विअर्थी अश्लील संवाद बोल रहे हैं | ऐसे में दर्शकों के समक्ष उनके चमकते चेहरे तो हैं पर उनकी शारीरिक थकान और मानसिक उलझनों कोई नहीं समझ पाता | उन्हें हरफनमौला बनाने के खेल में बचपन की सरलता और सहजता गुम हो चली है | इसे रचनात्मकता नहीं कहा जा सकता । व्यावसायिक रंग में रंगी यह रचनात्मकता बच्चों को कुंठित अधिक करती है । बच्चे स्वाभाविक रूप से बड़े कल्पनाशील होते हैं  । कुछ नया रचने गुनने में रूचि लेते हैं ।  तभी तो आनन्द लेते हुए, खेलते हुए जब किसी कार्य को  पूरा करते हैं, परिणाम बहुत बेहतर होते हैं ।
कभी कुछ यूँ ही ..... हमारे मन का भी हो 
बच्चे जिस क्षेत्र में रूचि रखते हैं उसमें उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन दिया जाना आवश्यक है। अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार स्वयं को निखारने का हर प्रयत्न करने के लिए बच्चों का मार्गदर्शन परिवारजन ही कर सकते हैं । पर बच्चों को लेकर 'जो मैं नहीं कर पाया वो मेरा बेटा या बेटी जरूर करेगा ' की आशा रखना उन पर अभिभावकों से मिले बोझ के समान हैं । बच्चों के मन को समझते हुए उन्हें साथ एवं सहयोग कुछ इस तरह से दिया जाय कि बड़ों की आशाएं भार नहीं उत्प्रेरक बनें | माता -पिता के लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि बच्चे अभिभावकों के कौशल का प्रदर्शन करने वाले यंत्र भर नहीं हैं । 

25 February 2013

मायूसी ज़िन्दगी से भी मिलवाती है


कहने को तो मायूसी एक मनोदशा भर है । यूँ भी नैराश्य भाव होता ही इतना सूक्ष्म है कि इसे समझ पाना स्वयं के लिए भी सरल नहीं । तभी तो  बस,  अरुचि और हारे हुए मन के रूप में रेखांकन नहीं किया जा सकता निराशा का । आज के दौर में तो  हर किसी का अपने जीवन में इससे साक्षात्कार हो ही  रहा है । जीवन की वास्तविकता और कल्पनाशीलता को यही रेखा बारीकी से विभक्त करती  है । कुछ भीतर बिखरता और हो जाता है सच से आमना सामना । यही वो बिंदु है जहाँ से एक मार्ग नैराश्य भाव की ओर ले जाने के  लिए खुलता है । जाने अनजाने , चाहे अनचाहे हम चल भी पड़ते हैं उस ओर । ऐसे में विषय पर समग्रता से सोचा जाना आवश्यक सा लगता है। 

संसार का कोई भी मनुष्य अपने जीवन में हताशा नहीं चाहता । ऐसे पल तो जीवन में बिन बुलाये ही चले आते हैं ।  जैसे आशाएं जीवन से कहीं गहरे जुड़ी होती हैं । वैसे ही निराशा भी जीवन का अभिन्न अंग है । दुःख और विषमता से भरी परिस्थितियां हर किसी के जीवन में आतीं हैं । पर नैराश्य का दौर सदैव नकारात्मक नहीं होता । यह समय उत्थानकारी भी होता है । हमें कर्म और आशावादिता से भी जोड़ता  नैराश्य ।

निराशा का दौर वो समय होता है जब हर प्रसंग, हर पात्र पर या तो विश्वास हो जाता है या पूरी तरह से भरोसा खो जाता है । यह विरक्ति एक नई सोच को जन्म देती है । ऐसे अनगिनत उदहारण हैं जो ये सिद्ध करते हैं कि जीवन के उतार-चढाव को जीने के बाद लोगों ने एक नवीन दृष्टिकोण पाया । जिसने  आगे चलकर उनकी सफलता में विशिष्ट भूमिका निभाई । विचारधारा का यह परिवर्तन जिस मार्ग से होकर गुजरता है, उसी पथ पर निराशा से भी साक्षात्कार होता है ।

यह आत्मावलोकन और स्वमूल्यांकन की ओर मोड़ने वाला समय होता है । इस मोड़ से पार पाने के बाद सीख भी मिलती है और संबल भी । जीवन जैसा है उसे उसी रूप में स्वीकार कर जिया जाय और उसे श्रेष्ठतर बनाने का प्रयास किया जाय । इस हेतु भावी जीवन  में सकारात्मक रहते हुए किस तरह अपनी योजनाओं को क्रियान्वित करने की कोशिश करते रहना है यह भी सबक भी मिलता है।  जीवन की इन परिस्थितियों में यथार्थ को जीने और उससे मुठभेड़ करने का संबल भी हमारी झोली में आ जाता है । कष्टप्रद परिस्थितियों के चलते जीवन में उपजा क्षोभ भी एक ऊर्जा लिए होता है । जो कभी रचनात्मकता का रुझान लाती है तो कभी नया जीवन दर्शन रचती है । बस, हमें समय रहते इस शक्ति बोध हो । ताकि  हम अपने ही आत्मबल से उपजे दृष्टिकोण को स्वीकृत कर पायें ।

असंतोष और अवसाद से भरा यह समय बहुत कुछ सिखा समझा देता है । निराशा से भरा समय हमें स्वयं का विश्लेषण करने की शक्ति और समझ देता है ।  हर भूल, हर भ्रम से निकालकर जीवन के वास्तविक रूप से हमारी भेंट करवाता है । जिससे  हमारा उत्साह एवं  आत्मबल और दृढ़ता पाता है । विपरीत परिस्थतियों से निकलकर हम समझ जाते हैं कि ये जीवन है, एक साहस पूर्ण अभियान । जिसमें हर परिस्थिति में स्वयं को गढ़ते रहना है ।

18 February 2013

असुरक्षित आधी आबादी और समाज का टूटता मनोबल



महिलाओं की असुरक्षा का प्रश्न केवल किसी घटना के घटने और उससे जुड़े समाचारों के प्रसारण-प्रकाशन तक ही आम जन के मष्तिष्क में रहता है | यह आम धारणा है |  पर सच इससे कहीं अलग |  दिल्ली जैसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बाद भले ही उस एक हादसे को लोग भूल जाएँ पर घरों- परिवारों में ऐसी दुखद वारदात के निशान सदा के लिए चस्पा हो जाते हैं | फिर हमारे यहाँ तो आये दिन ऐसी घटनाएँ होती हैं | कोई भूले भी तो कैसे ?  झकझोर देते है ऐसे हादसे हर उस परिवार को जिसकी बिटिया कुछ करना चाहती है | आगे बढ़ना चाहती है | घर से दूर जाना चाहती है | यूँ भी  शिक्षा या नौकरी से जुड़ी सारी आवश्यकताएं एक शहर में ही पूरी हो जाएँ, यह संभव भी नहीं है | बेटियों और उनके परिवारों के ऐसे निर्णय को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से ऐसे हादसे प्रभावित करते हैं | इस सीमा तक की पूरी सोच ही दिशाहीन हो जाती है | उस भय के चलते जो घर से दूर जाने वाली बेटियों के माता-पिता के मन में इन घटनाओं के चलते उपजता है | 

मेरे एक परिचित परिवार की बिटिया ने अपनी पढाई पूरी कर ली है   अब किसी महानगर में जाकर नौकरी खोजना चाहती है | आत्म निर्भर बनने  के सपने को पूरा करना चाहती है |  जिसके लिए उसने दिन रात  मेहनत की है | जो डिग्री उपार्जित की है उसमें अव्वल भी आई है | स्वयं को साबित करने की उसकी दौड़ में उसके परिवार ने भी साथ दिया है | परिवार की भी हमेशा यही इच्छा रही कि बिटिया आत्मनिर्भर बने | पर अब उनके मन मस्तिष्क में आये दिन समाचार पत्रों की सुर्खियाँ बनने वाली वीभत्स घटनाओं के चलते अनजाना -अनचाहा भय उनके मन में आ बैठा है | परिवारजन अब बस बेटी की शादी कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते हैं | 

ऐसा एक ही परिवार तो नहीं होगा | यह तो हम सब समझते ही है | यह आज के परिवेश का कटु सत्य है कि महिलाओं की असुरक्षा पूरे समाज और परिवार का मनोबल तोड़ रही है | इस देश में अनगिनत परिवार हैं जो ये चाहते हैं कि उनकी बेटी किसी पर आश्रित ना  रहे | जीवन में आने वाले भले बुरे वक्त में अपना सहारा आप बने | ऐसी सोच रखने वाले अभिभावकों की मानसिकता को ठेस पहुँचाते हैं ये हादसे | महिलाओं की अस्मिता के साथ होने वाला यह दुखद खेल पूरे समाज की आशावादी सोच को आघात पहुँचा रहा है | उस मानसिकता को आहत कर रहा है जो बेटियों को हर तरह से अधिकारसंपन्न बनाने का स्वप्न  संजोये हैं | 

देश की आधी आबादी के साथ होने वाली ऐसी निर्मम घटनाएँ अपने ही देश में हमें असहाय होने का अनुभव करवाती हैं | ऐसी परिस्थितियों में पलायन की सोच बहुत प्रभावी हो जाती है | जिसके चलते अनगिनत परिवार अपनी बेटियों की सुरक्षा के लिए इतने चिंतित हैं  कि बिटिया के भविष्य को लेकर बुने सपनों से ही  मुंह मोड़ लेते हैं  | यह सत्य है कि यूँ पीछे हटने मात्र से इस सामाजिक विकृति का हल नहीं खोजा जा सकता  पर वास्तविकता यह भी है कि पलायनवादी सोच भी अपने पैर पसार ही रही है | कितनी  जद्दोज़हद के बाद तो समाज की मानसिकता में परिवर्तन परिलक्षित हुआ है कि बेटियों के आगे बढ़ने में कोई बाधा उपस्थित न हो | ऐसे में अपने पारिवारिक -सामाजिक परिवेश की लड़ाई क्या कम थी जो अब इन घटनाओं के चलते भी आम परिवार बेटी की उन्नति को दोयम दर्ज़े पर रखने को मजबूर हो रहा है | 

आम भारतीय परिवार के मनोबल को दुर्बल करने के लिए जितनी ये दुखद घटनाएँ उत्तरदायी हैं उतनी ही जवाबदेह इन्हें रोकने में हमारी प्रशासनिक व्यवस्थाओं की विफलता भी है | लम्बी कानूनी प्रक्रिया हो या अपराधियों को दण्डित करने का निर्णय | हर बार सत्तालोलुप सोच के चलते बस राजनीति ही की जाती है इन हादसों  को लेकर | ऐसे में देश के परिवार अपनी बेटियों की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त हों भी तो कैसे ?  ऐसी घटनाओं को लेकर पूरी व्यवस्था ही निर्दयी और संवेदनहीन प्रतीत होती है | 

07 February 2013

अफ़साने बुनती रूहानी आवाज़



आज अफ़साने बुनती रूहानी आवाज़ के धनी, जगजीत सिंह की जन्मतिथि है। सम्मानस्वरुप गूगल ने भी अपने सर्च पेज पर उनकी तस्वीर चस्पा की है। जो यह  बता रही है कि गज़ल गायकी के सम्राट आज भले ही सशरीर इस दुनिया में नहीं हैं पर उनकी मर्मस्पर्शी आवाज़ के कायल लोगों की गिनती में कोई कमी नहीं आई है। गूगल के  अनुसार ग़ज़ल  गायकों की सूची में जगजीत सिंह को इस साल सबसे ज्यादा लोगों ने खोजा। 

यह समाचार बहुत खास है। क्योंकि जगजीत को किसी अन्य सैलीब्रिटी, किसी चर्चित चेहरे के तौर पर नहीं खोजा गया होगा । उन्हें तलाशते हुए हर पीढी के लोग कहीं न कहीं उस आवाज़ को खोज रहे होंगें जो तलाशने वालों को खुद अपने सुकून के लिए चाहिए।  चाहे वे गमज़दा हों या ख़ुशी में झूम रहे हों । उनके अपने मन की कहने का ज़रिया बन जाए।

जब से होश संभाला होगा तभी से शायद हर संवेदनशील इंसान के साथ  जगजीत सिंह की रूहानी आवाज़ परछाई के समान चलती चली आई है। वो आवाज़ जिसने अनगिनत शब्दों को अर्थो में ढाला है। जिसे सुनकर जाने कितनों ने मन का गुबार निकाला है। वो स्वर अब इस संसार में तो नहीं है पर आज भी हमारे साथ जरूर चलता है। वो आवाज़ हमें अपने आप को संभालना सिखाती  है। उस स्वर में वक्त के साथ बदलने की हिदायतों से लेकर स्वयं से की गई शिकायतें तक, सब कुछ समाहित है। तभी तो जिन शब्दों को उनकी आवाज़ नसीब हुई उनके अर्थ लोगों की रूह के भीतर बहने लगे। सुनने वालों ने भी इस आवाज़ को आत्मसात कर जीवन का हर दुःख-सुख जिया |  

जगजीत सिंह को मखमली आवाज़ का जादूगर कहा गया । कभी ह्रदय के ज़ख्मों पर मल्हम लगाने वाली आवाज़ तो कभी अपनी ही कल्पनाशीलता में डूबे इन्सान के सपनों को परवाज़ देती आवाज़ |  जगजीत सिंह की आवाज़ को सुनने वालों ने जिस मनोदशा में सुना, उसी में अपना सहारा बना पाया | यही वजह है कि जीवन के इंद्रधनुष का हर रंग समेटे उनकी मिठास भरी आवाज़ के दुनियाभर के जाने कितने ही लोग दीवाने हैं। इस दीवानेपन को जन्म दिया स्वर और संगीत के साथ किए गए उनके कई प्रयोगों ने, जो ग़ज़ल को आम आदमी के करीब ले लाए। उन्होंनें ग़ज़लों का सरलीकरण ही कुछ इस तरह किया कि हर पीढी संगीत की इस विधा की दीवानी हो गयी। हमेशा हमेशा के लिए। 

प्रेम के अफ़साने हों या दुनियादारी से जुड़ी शिकायतें। स्वयं को समझाइश देनी हो या सांसारिक विरक्ति की बात  हो | इस आवाज ने जो गाया, वो सीधा दिल में उतर गया। गहरे कहीं भीतर तक । जब भी सुनो यूं लगता है मानो अपने ही अंतस की आवाज सुन रहे हैं। जिन रचनाकारों के लिखे गीतों-ग़ज़लों को जगजीत सिंह के स्वर का साथ मिला वो तो मानो अमरत्व पा गये। 

  उनकी चिर ख़ामोशी हमेशा ही खलेगी ....

01 February 2013

अब नहीं आती गौरैया





मेरे घर की मुंडेर पर 
अब नहीं आती गौरैया 
ना ही वो नृत्य करती है 
बरामदे में लगे दर्पण में 
अपना प्रतिबिम्ब देखकर  

फुदकती गौरैया की चूँ-चूँ
भी सुनाई नहीं देती 
आँगन में अब तो 
और ना ही वो चहकती है 
खलिहानों की मिट्टी में नहाते हुए 
छोड़ दिया है गौरैया ने
नुक्कड़ के पीपल की 
शाख़ पर घौंसला बनाना भी 

वो कहीं दूर निकल गयी है 
क्षितिज के पार 
बसाने एक नया संसार 
जहाँ हर दिन घरौंदे टूटने 
का भय न  हो
और ना ही हो रीत 
दाने-चुग्गे के साथ
जाल बिछा देने की