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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

29 January 2013

मासूमयित के मापदंड



दिल्ली में हूए वीभत्स सामूहिक दुष्कर्म के एक आरोपी को नाबालिग मान लिया गया है। जिसका सीधा सा अर्थ है कि हिंदुस्तान के कानून को इस कुकृत्य में सबसे ज्यादा बर्बरता दिखाने वाले अमानुष के चेहरे पर मासूमयित नजर आ रही है। 

आमतौर पर नकारात्मक भावों के साथ अपने विचारों को साझा नहीं करती हूं। कोशिश भी यही रहती है कि विषय कोई हो, कुछ सकारात्मक और अर्थपूर्ण सोचा और लिखा जाय । पर आज तो यह कानूनी निर्णय मन-मस्तिष्क की समझ से ही परे लग रहा है । 

निर्ममता की सारी सीमाएं पार करने वाले को किसी का मन बच्चा समझे भी तो कैसे? मर्यादा के  मायने भी ना समझने वाले को मासूम कहा भी जाए तो कैसे? ऐसे में अगर हमारी कानून व्यवस्था उसे मासूम मान रही है तो निश्चित रूप से मासूमयित के मायने भी नए सिरे से तय करने होंगे। कम से कम मेरा मन तो किसी लडक़ी को शारीरिक और मानसिक प्रताडऩा देने में कू्ररता की हर हद पार करने वाले को ना मासूम मान सकता है और ना ही बच्चा। 

हमारे देश के कोने-कोने में तीन महीने की दुधमुंही बच्ची से लेकर वृद्ध महिला तक, आए दिन औरतें  ऐसे दुराचार का दंश झेलती हैं। बात अगर उम्र की ही है तो ऐसे मामलों में आज तक इतनी गहराई से विचार क्यों नहीं किया गया? 

दामिनी केस के मामले में बात सिर्फ कानूनी निर्णय दोषियों को दण्ड देने भर की नहीं है। क्योंकि  इस का निर्णय पूरे समाज के मनोविज्ञान को प्रभावित करने वाला निर्णय होगा। ऐसा पहली बार हुआ है जब हमारे देश में इस जघन्य घटना के कारण महिलाओं की सुरक्षा और अस्मिता के मुद्दे ने आम नागरिक को झकझोर कर रख दिया। जनाक्रोश जनआंदोलन बना। लोगों ने कई दिनों तक सडक़ों पर उतर कर इस बर्बर काण्ड का विरोध किया। ऐसी जन सहभागिता के बावजूद अगर यूँ अपराधी बच  निकलता है तो यह दुखद ही है |  

हमारी कानून व्यवस्था की नाकामी पर तो यूं भी सवाल उठते ही रहे  हैं।  दामिनी केस में आमजन ने भी खुलकर विरोध जताया  | ऐसे में  जनआंदोलन का रूप लेने के वाबजूद भी लचर व्यवस्था के चलते आरोपी बच निकलते हैं तो यह कानून व्यवस्था की  हर तरह से विफलता ही कही जाएगी। विचारणीय यह भी है कि ऐसे निर्णय से देश के लाखों युवाओं में भी गलत संदेश जाएगा। ऐसा निर्णय समाज के हर माता-पिता की आशाओं पर कुठाराघात करने वाला होगा जो अपनी बेटियों को आगे बढने का हौसला दे रहे हैं।  इस निर्दयी आरोपी को नाबालिग बताकर छोड़ देने से यह प्रश्न भी अनुत्तरित ही रह जायेगा कि दामिनी के संघर्ष  से क्या बदला?  

मासूमयित के मापदण्ड क्या हों ? इस मुद्दे पर विचार किया जाना  जरूरी है । यह रेखांकन कानून और समाज  दोनों को ही करना होगा,| नहीं तो आगे आने वाली पीढियां ऐसा पाठ बिना सिखाये ही सीख लेंगीं |  सरल जो है .....गलती करो और बच भी निकलो 

21 January 2013

आर्थिक समृद्धि का भयावह सच


              
'मुसहर'  मैंने यह शब्द पहले कभी नहीं सुना था । हाल ही में कौन बनेगा करोड़पति कार्यक्रम में  पहली बार इस शब्द को सुना। इसका अर्थ जाना । 'मुसहर' का अर्थ है 'मूसा' यानि कि चूहा और 'हर' का अर्थ है खाना यानि आहार । 'मुसहर' बिहार में बसी ऐसी जाति है जो भूमिहीन लोगों की श्रेणी में आते हैं। इसलिए ना तो खेतीबाड़ी कर सकते हैं और ना ही शिक्षित और आत्मनिर्भर हैं  । यही वजह है  कि 'मुसहर' जाति के लोग आर्थिक विपन्नता के चलते दो वक्त की रोटी भी नहीं जुटा पाते | इसी के चलते ये परिवार चूहों को अपना भोजन बनाते हैं। 

कुछ समय के लिए सोच-विचार के सारे मार्ग ही अवरूद्ध हो गये। आर्थिक वृद्धि के सारे मापदण्ड अर्थहीन प्रतीत होने लगे। समझ ही नहीं आया कि आर्थिक संर्वधन के आँकड़ों में अव्वल अपने देश की सफलता को किस संदर्भ में समझने का प्रयास करूं? यह समझ पाने में भी विफल रही कि बीते कुछ बरसों में वैश्विक रणनीतियों को  अपनाकर जिस देश की कारोबारी संरचना ही पूरी तरह बदल गयी, उसी देश में सामाजिक स्तर पर परिवर्तन क्यों नहीं आये? 

हम तेज गति से आगे बढ रहे हैं, सचमुच तेज।  इतनी रफ्तार से कि इस चमचमाती समृद्धि के पीछे का भयावह सच देख ही नहीं पा रहे हैं। एक ओर भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व की उन अर्थव्यवस्थाओं की सूची में स्थान दिया जा रहा है जो आने वाले समय में विकसित देशों की श्रेणी  में स्थान पा सकती है। वहीं दूसरी ओर ऐसे कितने ही अकाट्य सच हैं जो इस तरक्की की पोल खोलते हैं। आज भी देश में 'मुसहर' जैसी आबादी का होना। उनका यूँ श्रापित जीवन यापन करना । हर भारतवासी को आँकड़ों की दुनिया से बाहर निकाल कर ऐसे सच से रूबरू करवाता है, जो मन को व्यथित करता है। हमारे नीति निर्माताओं की स्वार्थपरक रणनीतियों की हकीकत सामने लाता है।     

गति के साथ यदि संतुलन ना रहे तो दुर्घटना निश्चित है। यह नियम तो जीवन के हर क्षेत्र में लागू होता है । आर्थिक क्षेत्र इससे अछूता कैसे रह सकता है? वो भी तब जबकि हमारी अर्थव्यवस्था जिस रफ्तार से आगे बढ रही है उस अनुपात में ना तो हम संतुलन बना पा रहे हैं और ना उस नियंत्रण कर पा रहे हैं। करें भी कैसे ? असंतुलित विकास की इस रफ्तार को पाने के लिए हमने स्वयं को संभालने के अधिकार तो बहुत पहले ही खो दिए है। निश्चित रूप से उन्नति तो हुई है। जो समृद्धि हमें दिख रही है उसके मायने ये है कि अर्थव्यवस्था का आकार बढ रहा है। हम दुनियाभर के लिए बाजार बन गये हैं। हर मोबाइल टावर्स और गगनचुंबी इमारतें खड़ी हो गयी हैं। योजना आयोग के आँकड़े विकास की ऐसी तस्वीर उकेर रहे हैं जिसे देखकर हर भारतीय उत्साहित है, गर्वित है । ऐसे में इसे त्रासदी ही है आज भी अनगिनत लोगों का  भूखे पेट सोना | 'मुसहर' जैसी जाति का समाज की मुख्यधारा में समाहित ना हो पाना । देश की आबादी की आबादी के एक बड़े हिस्से का यूँ अपनी मौलिक ज़रूरतों से वंचित  रहना |

यह  कैसी आर्थिक समृद्धि और सम्पन्नता की चमक  है ? क्या इस देश के कर्णधार कभी इस स्याह और भयावह सच को देख  भी पायेंगें ?

09 January 2013

सड़कों पर आन्दोलन सही पर देहरी के भीतर भी झांकें




दिल्ली में हुए वीभत्स हादसे ने पूरे देश को हिला दिया । इसके बारे में अब तक बहुत कुछ कहा और लिखा गया है । अनशन ,धरने और कैंडल मार्च सब हुआ और हो रहा है । अनगिनत लोग सड़कों पर उतर आये । जनता का आक्रोश उचित भी है  । पर अफ़सोस तो यह है कि इस विरोध के साथ ही ऐसी घटनाओं का होना भी जारी है |


ऐसे में यह प्रश्न उठना वाजिब है कि क्या सड़कों पर उतर आना ही काफी है ? इस घटना के बाद देश भर में लोग घरों से बाहर  निकले । सबने खुलकर विरोध किया । अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा देने की मांग की और आज भी कर रहे हैं । ऐसे में इस ओर भी ध्यान दिया जाना ज़रूरी है कि आन्दोलन कर अपनी आवाज़ उठाने के आलावा हमें अपनी ही देहरी के भीतर भी झांकना होगा ।  यह जानना ही होगा कि आज की पीढ़ी को संस्कारित करने में क्या और कहाँ चूक हो रही है ? क्योंकि दिल्ली में हुआ यह हादसा सिर्फ शरीरिक शोषण और जोर ज़बरदस्ती का केस भर नहीं हैं । यह हमारे ही समाज से निकले मानवीयता की हदें पार करने वाले अमानुषों का उदाहरण है|  जिनको मिलने वाला दंड उनके ही जैसी प्रवृति पाले बैठे लोगों की मानसिकता नहीं बदल पायेगा । ऐसे कृत्यों को रोकने में परिवार की भूमिका ही सबसे बढ़कर हो सकती है । 

ज़रा सोचिये तो हमारे समाज में ऐसी घटनाएँ कैसे रोकी जा सकती जा सकतीं हैं जहाँ  स्वयं परिवार वाले ही ऐसे भयावह कृत्य करने वाले लाडलों को बचाने  निकल पड़ते हैं ?  ऐसे समाज में इस तरह के हादसे क्यों भला थमें, जहाँ  शारीरिक और मानसिक पीड़ा भोगने वाली लड़की को ही  गलत ठहराया जाता है ? कोई आध्यामिक सलाह देकर तो  कोई पहनावे और घर से निकलने के वक़्त को लेकर | इतना ही नहीं, हमारे समाज में जहाँ शारीरिक शोषण के अधिकतर मामलों में परिचित ही पिशाच बन बैठते हैं वहां प्रशासनिक  मुस्तैदी कहाँ तक काम आएगी ?


समाज में आये दिन होने वाली इन वीभत्स घटनाओं को रोकने के लिए हमें ही समग्र रूप से प्रयास करने होंगें ।  ज़रूरी है कि ये प्रयास  सड़कों पर आवाज़ बुलंद करने से लेकर हमारी अपनी देहरी के भीतर तक किये जाएँ । अपने बच्चों को ऐसे आपराधिक कृत्य करने वाली मानसिकता से बचाने के लिए उन्हें संस्कारित करने के साथ ही उनके मन में यह भय भी पैदा किया जाय कि अगर वे जीवन में कभी ऐसे कुकृत्य करते हैं तो सबसे पहले उनका अपना परिवार ही उनका साथ छोड़ देगा । 

इस घटना के बाद हमें ऐसा पारिवारिक और सामाजिक माहौल तैयार करना होगा कि इस तरह के अमानवीय अपराध करने  वाले अगर लचर सरकारी व्यव्स्था के चलते सजा पाने से बच भी जाएँ तो भी समाज और परिवार उन्हें निश्चित रूप से दंडित करेगा ऐसे अपराधियों को यह आभास होना चाहिए कि ऐसे कुकृत्य करने बाद न परिवार उनका रहा न समाज अब जियें भी तो क्यों? उनका सामाजिक और पारिवारिक बहिष्कार हो । इस सीमा तक कि वे दंड से बचने की तरकीबें न खोजें बल्कि स्वयं अपने लिए सजा मांगें । 

यह सब सिर्फ हम कर सकते हैं । परिवार और समाज कर सकता है । क्योंकि सरकार ऐसे अपराधियों को सिर्फ सजा दे सकती है | निश्चित रूप से कठोर से कठोर सजा देनी  चाहिए भी   पर परिवार संस्कार देकर बच्चों को मानवीयता का पाठ पढ़ा सकते हैं । उन्हें अपराधी बनने  से ही रोक सकते हैं,  सुनागरिक बना सकते हैं ।