'मुसहर' मैंने यह शब्द पहले कभी नहीं सुना था । हाल ही में कौन बनेगा करोड़पति कार्यक्रम में पहली बार इस शब्द को सुना। इसका अर्थ जाना । 'मुसहर' का अर्थ है 'मूसा' यानि कि चूहा और 'हर' का अर्थ है खाना यानि आहार । 'मुसहर' बिहार में बसी ऐसी जाति है जो भूमिहीन लोगों की श्रेणी में आते हैं। इसलिए ना तो खेतीबाड़ी कर सकते हैं और ना ही शिक्षित और आत्मनिर्भर हैं । यही वजह है कि 'मुसहर' जाति के लोग आर्थिक विपन्नता के चलते दो वक्त की रोटी भी नहीं जुटा पाते | इसी के चलते ये परिवार चूहों को अपना भोजन बनाते हैं।
कुछ समय के लिए सोच-विचार के सारे मार्ग ही अवरूद्ध हो गये। आर्थिक वृद्धि के सारे मापदण्ड अर्थहीन प्रतीत होने लगे। समझ ही नहीं आया कि आर्थिक संर्वधन के आँकड़ों में अव्वल अपने देश की सफलता को किस संदर्भ में समझने का प्रयास करूं? यह समझ पाने में भी विफल रही कि बीते कुछ बरसों में वैश्विक रणनीतियों को अपनाकर जिस देश की कारोबारी संरचना ही पूरी तरह बदल गयी, उसी देश में सामाजिक स्तर पर परिवर्तन क्यों नहीं आये?
हम तेज गति से आगे बढ रहे हैं, सचमुच तेज। इतनी रफ्तार से कि इस चमचमाती समृद्धि के पीछे का भयावह सच देख ही नहीं पा रहे हैं। एक ओर भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व की उन अर्थव्यवस्थाओं की सूची में स्थान दिया जा रहा है जो आने वाले समय में विकसित देशों की श्रेणी में स्थान पा सकती है। वहीं दूसरी ओर ऐसे कितने ही अकाट्य सच हैं जो इस तरक्की की पोल खोलते हैं। आज भी देश में 'मुसहर' जैसी आबादी का होना। उनका यूँ श्रापित जीवन यापन करना । हर भारतवासी को आँकड़ों की दुनिया से बाहर निकाल कर ऐसे सच से रूबरू करवाता है, जो मन को व्यथित करता है। हमारे नीति निर्माताओं की स्वार्थपरक रणनीतियों की हकीकत सामने लाता है।
गति के साथ यदि संतुलन ना रहे तो दुर्घटना निश्चित है। यह नियम तो जीवन के हर क्षेत्र में लागू होता है । आर्थिक क्षेत्र इससे अछूता कैसे रह सकता है? वो भी तब जबकि हमारी अर्थव्यवस्था जिस रफ्तार से आगे बढ रही है उस अनुपात में ना तो हम संतुलन बना पा रहे हैं और ना उस नियंत्रण कर पा रहे हैं। करें भी कैसे ? असंतुलित विकास की इस रफ्तार को पाने के लिए हमने स्वयं को संभालने के अधिकार तो बहुत पहले ही खो दिए है। निश्चित रूप से उन्नति तो हुई है। जो समृद्धि हमें दिख रही है उसके मायने ये है कि अर्थव्यवस्था का आकार बढ रहा है। हम दुनियाभर के लिए बाजार बन गये हैं। हर मोबाइल टावर्स और गगनचुंबी इमारतें खड़ी हो गयी हैं। योजना आयोग के आँकड़े विकास की ऐसी तस्वीर उकेर रहे हैं जिसे देखकर हर भारतीय उत्साहित है, गर्वित है । ऐसे में इसे त्रासदी ही है आज भी अनगिनत लोगों का भूखे पेट सोना | 'मुसहर' जैसी जाति का समाज की मुख्यधारा में समाहित ना हो पाना । देश की आबादी की आबादी के एक बड़े हिस्से का यूँ अपनी मौलिक ज़रूरतों से वंचित रहना |
यह कैसी आर्थिक समृद्धि और सम्पन्नता की चमक है ? क्या इस देश के कर्णधार कभी इस स्याह और भयावह सच को देख भी पायेंगें ?
57 comments:
sundar prastuti,(mushar =mus+aahar),ghummkad,mus ke alawa pani ke sapo ke ubal kar khate hai,boli me rythmik hai,ye prayah chote samuho me alag hi rahate hai
वास्तव में आर्थिक समृद्धि के साये तले पल रहे इस सोशल disparity के अंजामों से हम सभी नावाकिफ रहें हैं, ये अफसोसजनक है।
हाल ही में मैंने 'चक्रव्यूह' मूवी देखी। आर्थिक समृद्धि की आड़ में तथाकथित बिजनेस जाएंट्स जिस तरीके से गरीब आबादी को, यहाँ तक कि उनके ज़मीनों से भी निर्मूल करते जा रहे हैं- ये जानकर बहुत क्षोभ हुआ। समस्या वाकई गंभीर है। बहुत सारे सार्थक कदमों की आवश्यकता है।
इस देश में दो देश बन गए हैं एक वह भारत है जो आर्थिक सम्पन्न है और दूसरा वह भारत है जिसके पास दो रोटी भी नहीं है। सरकार की नीतियां इस भेद को बढा रही हैं, क्योंकि उन्हें भूखे-नंगों के वोट चाहिए।
अच्छा लिखा है
जो भी विकास है वह चंद लोगों के लिए है समाज के निचले पायेदान तक नहीं पहंच रहा है .अरबपति ,आरामदायक कारें बढ़ रहीं हैं ,अम्बानियों के बनाए ताजमहल (एंटिला ,आवास अम्बानी जी का
मुंबई
में )गरीबों का मुंह चिढा रहे हैं .एक मुंबई हमने फिल्मों में देखी ,देव साहब को बीच पे गाते देखा -ये दिल न होता बेचारा ,कदम न होते आवारा ,.......मुंबई के बीच पे .....निहायत खूब सूरत नज़ारा था
यह फिल्मों में ,अब मुंबई में ही ज्यादा रहना होता है ,अमरीका प्रवास के अलावा ,पास जाकर मुंबई के सभी बीच देखे ,निहायत गंदगी के साम्राज्य हैं केवल हमारा पोमिनेड (वेस्टन नेवल कमांड का हेड
क्वाटर )और वहां आस पास लोग खूब सूरत हैं ,बाकी बीच पे खासकर चौपाटी पे नजर आते हैं अफ़्रीकी बच्चों से भी ज्यादा कमज़ोर काले बच्चे ,साहब लोगों के बच्चों को रेत में स्कूटर पे बिठा धकेलते
हुए अपनी पूरी सामर्थ्य से .गोबर में से अनाज के दाने भी बीनते हैं लोग .घास जैसा कुछ कंदमूल भी उबाल के खाते हैं .योजना आयोग कहता है 32 रूपये में दोनों टाइम का खाना खाओ .यही है विकास
का हासिल गरीबों के लिए मुसहर ,मुसहर ,मुसहर .आभार आपकी टिपण्णी का .
Very true. Nice presentation.
वाकई .... इसके सही अर्थ से अनजान थी, जानकार लगा कि हम बड़ी आसानी से कुछ भी कह जाते हैं,जो नहीं कहना चाहिए
डॉ. मोनिका जी ! भारत में लोग तो भ्रष्ट हैं ही उस से जुडी हर चीज भ्रष्ट हो गयी है, यहाँ तक की भाषा भी .मूसा (चूहा ) हर (आहार ) अर्थात मुसाहार -मुसा का आहार . इस को मुसहर बनाकर इंसान के एक जाति से जोड़ दिया है.क्योंकि ये लोग चूहा खाते हैं . चूहा क्यों नहीं खायेंगे ? हमारे राज नेता और बाबु वर्ग इतना काबिल हैं कि लाखो टन गेहूं ,चावल गोदामों सड़ाकर फेंक देंगे
परन्तु इन गरीबों को नहीं देंगे. अनाज सड़ाने में कोई कानून बाधक नहीं है, परन्तु गरीबों को देने में बाधक है. असल में इस सिस्टम का सोच विचार ही सड़ गया है.
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इस जाती से तो अंजान था पर इस समस्या से नहीं ... विकास ... पर किसका ओर कहाँ तक ... इसका जवाब कुछ सीमा तक शहरों तक सिमिट के रह जाता है ... शहरों में भी कुछ लोगों को ये नसीब नहीं है ... शायद दिशा शुरू से ठीक नहीं थी ... धीरे धीरे ये समझ आ जाए तो भी काफी है ...
गहन भाव लिये सार्थकता लिये सशक्त लेखन ... विचारणीय आलेख ...
क्या ये 28 रुपये भी नहीं कमाते.. एक दिन के लिये तो पर्याप्त हैं. हद है, सिर्फ चौबीस घण्टे पर्याप्त हैं देश को बदलने के लिये.
"मुसहर" मेर लिए भी नया शब्द है जिसके माध्यम से आपने समाज के कटु सत्य को बहुत ही सटीक, संक्षिप्त और प्रभावी रूप प्रस्तुत किया है
यही तो अन्तर है भारत और इंडिया में। विकास इंडिया का हो रहा है भारतवर्ष का नहीं।
अमीर और अमीर ...गरीब और गरीब...निचले तबके तक सरकार का ध्यान हि कहा है..
लेख उम्दा और आपकी चिंता स्वाभाविक है लेकिन अब मुसहरों की उतनी ख़राब स्थिति नहीं है |काफी कुछ बदलाव आया है पहले ये पेड़ की पत्तियों से पत्तल बनाते थे जूठन खाते थे लेकिन अब तमाम सरकारी योजनाओं का लाभ इनको मिला है |ये उत्तर प्रदेश में भी हैं |
सुन्दर प्रस्तुति ..... हकीकत ..
इण्डिया और भारत में यही तो फर्क है ..
देख तो सभी सकते हैं मगर उनके लिए करना कोई कुछ नहीं चाहता रही आर्थक वृद्धि के मापदण्डों की बात तो मुझे ऐसा लगता है कि हामरे देश में आमिर और ज्यादा अमीर होते जा रहे हैं और गरीब और ज्यादा गरीब.... न जाने कहाँ जा रहे है हम विचारिणीय पोस्ट
इस देश में आर्थिक विषमता इतनी अधिक हो चुकी है कि भविष्य कितना भयावह होगा? इसकी कल्पना करना भी मुश्किल है.
रामराम.
क्या कहें सचमुच बुद्धि जबाब दे जाती है.
अमिताभ बच्चन ने भी कुछ ऐसी ही अभिव्यक्ति की है !
अमिताभ बच्चन ने भी कुछ ऐसी ही अभिव्यक्ति की है !
बहुत सही कहा मोनिका जी..सार्थकता लिये सशक्त लेखन ... विचारणीय आलेख ...आभार
बहुत कुछ सोंचने पर विवश करती सटीक अभिव्यक्ति...
bahut dukhad he inka haal
अच्छा आलेख!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
मुसहर के बारे में तो अभी जाना :-((
सटीक लेख है आपका...... हम अंधी दौड़ में इतने लिप्त हो चुके हैं की अपने ही पाँवों को कुचल के आगे निकल जाना चाहते हैं वहाँ जहाँ कोई कभी नहीं पहुँचता ।
सबको साथ लेकर चलना हो, आज विकास में गतिभिन्नता रही तो कल समाज में घर्षण आ ही जायेगा।
यही सच्चाई है हमारे देश की... कटु सत्य जो आज भी भूखेपेट जीने को मजबूर है... विचारणीय आलेख... आभार
मात्र जाति विशेष नहीं..स्थान के उपर भी ऐसे लोग बसते हैं जिन्हें दो वक्त का खाना नसीब नहीं होता। बहुत खाई है समाज में....
मैनें भी पहली बार सुना ये शब्द!
बहुत ही गंभीर समस्या है ये ... इससे कैसे निपटा जा सकता है... कैसे क़दम आगे बढ़ाएँ,किसका हाथ थामकर.. किस मंज़िल तक पहुँचाएँ...
कुछ समझ ही नहीं आता.... :(
~सादर!!!
आज देश की सच्चाई यही है..विचारणीय आलेख..
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मुसहर जाति नहीं यह अलग अलग प्रदेश में बसने वाले पिछड़े लोगों के साथ यही हो रहा है ...यही त्रासदी है ..
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 24-01-2013 को यहाँ भी है
....
बंद करके मैंने जुगनुओं को .... वो सीख चुकी है जीना ..... आज की हलचल में..... संगीता स्वरूप
.. ....संगीता स्वरूप
. .
शर्मनाक सच..
शुभकामनायें आपको ...
कडुआ सच | कडुआ आर्थिक समृधि | कागजी है |प्राकृतिक से कोसोदुर | वही लोग वोट भी देते है | गाँधी जी के तीन बन्दर , आज कल विपरीत हो गए है |एक टी वि चैनल पर हमेशा एक स्लोगन आते है - : सोंच बदलो , देश बदलो |
किस काम का विकास जब मुसहर अब भी भारत में विद्यमान हैं...गरीबी और अमीरी के इस अंतर को जब तक नहीं पाटा जाता तब तक विकास की सभी बातें बेमानी हैं...
मुख्यधारा के प्रवाह की अपनी तकलीफ हैं, मुख्यधारा के विकास के प्रतिमानों नें भी आदिवासी अंचल, गांवों के सुख-चैन को छीना है। उनको उपभोग की अंधी दौड़का हिस्सा बना कर सदैव के लिए बेचैन छोड़ दिया है। सच्चाई आंकड़ों से दूर बसती है। तकलीफ में जीने वाले लोगों के प्रति संवेदना हो और सही सोच हो तो कम से कम हम लोगों को समझ पाएंगे। बदलाव का सफर तो लंबा है।
आर्थिक विकास कितना हुआ है इसका अंकलन बस शहरों को देख कर लगाया जाता है ... मुसहर वाला एपिसोड देख मेरे मन में भी यही सवाल उठा था ... कुछ समय झारखंड में रहने का अवसर मिला था और वहाँ मैंने देखा था कि लोगों के पास खाने के लिए कुछ नहीं होता ॥आदिवासी इलाके में लोग चावल का माँड़ पी कर ही जीवन बिताते हैं । गाँव तक जाना मुश्किल होता है ...पता नहीं कहाँ कहाँ आबादी बसी है .... उन तक तो सरकारी योजना का कोई लाभ भी नहीं पहुँच पाता ।
हम तो बिहार के रहने वाले हैं, इसलिए इस शब्द के सच को बचपन से जानते रहे हैं। यह भयावह सच इक्कीसवीं सदीं में भी नहीं बदला है, विकास के सारे दावों के बावज़ूद!
ek naye shabd se rubaru karaya....shukriya...rhi aaj ke mahoal ki bat to...bhagwan hi maalik hai...
nice presentation.
Aapane ek bahut hee gambhir mudde ko uthaya hai. samay rahate is par vichar aur kary hona chahiye. Sarkar ke kartavya sirf Ameeron kee taraf hee to nahee ho sakte. Rojgar ke adhik awasar moosahar jaise janon ke liye ati aawashyak hain.
गति के साथ यदि संतुलन ना रहे तो दुर्घटना निश्चित है।
गति के साथ यदि संतुलन ना रहे तो दुर्घटना निश्चित है।
भले ही विकासशील देशों में हमारे देश की गिनती हो पर आंतरिक स्थिति मजबूत नहीं है बल्कि भयावह है... बढ़िया लेख है 'मुसहर' शब्द से
मै भी पहले बार परिचित हो रही हूँ !
इस तंत्र की जय हो .जहां हर पल मरता हो गण ,उस तंत्र की जय हो .जहां पल प्रति पल होतें हों बलात्कार हर उम्र की मादा के साथ .जहां डाल डाल पे वहशियों का हो डेरा
I am a Hindu and by corollary am a terrorist .Jai ho .
बहुत ही सत्य कहा आपने,अपने देश में अमीरी और गरीबी में बहुत ही बड़ा अन्तराल है,मुसहरो की जिन्दगी जैसा आपने लिखा अभी भी वैसा ही है,मैंने नजदीक से देखा है।
आर्थिक सम्पन्नता तभी संभव है जब कम से कम रोटी कपडा मकान और इज्ज़त की जिंदगी सभी के लिये उपलब्ध हो.
आपको गणतंत्र दिवस पर बढियां और शुभकामनायें.
अर्थ से समाज सुखी और शांत नहीं हो सकता। विशेषकर जब अर्थसत्ता अर्थ को समाज की सुख-शांति मानने लगे तो स्थितियां और भी मुश्किल हो जाती हैं।
एक चौंका देनेवाला सच जाना .....यही हैं चिराग तले का अँधेरा.......वाकई क्या कर रही है सरकार ....!
ये तो हमारे देश का भयावह सच है..एक भयानक आईना..
सही कहा आपने
यह कैसा आर्थिक विकास है जिसमे आज भी समाज का एक तबका लाचारगी भरी जिंदगी जीने को विवश है ,,,
सार्थक व सशक्त लेखन
सादर !
डा. मोनिका जी
वड़ी ही गहरी बात को आपने अपनी चर्चा का विषय बनाया है वैसे पीछे की अनेको लेखकों की टिप्पणियाँ सन्तुष्ट कर देती हैं फिर भी भारत की आजादी जिसे हम लोग आजादी कहते सच में आम आदमी की आजादी न होकर भारत के साथ साजिस सी अधिक लगती है जिसमें षडयंत्र किया गया भारत को टुकड़ों में बाँटने का ही नही भारत नाम हटाकर इण्डिया कर देने का और काफी हद तक नेता इसमें सफल भी हो गये।
आप जानती ही होगी कि जो अपने अतीत को भूल जाता है उसका वर्तमान परेशानी वाला तथा भविष्य खराब हो जाता है आयुर्वेदिक चिकित्सा सूत्र भी शारीरिक इतिहास से रोगों का पता लगाते हैं ।हमारे देश का अतीत गर्वयुक्त होने के बाद भी हम लोग विदेशों से प्रेरणा प्राप्त करने का प्रयास करते रहे हैं हमारा गुप्त काल संसार का स्वर्ण युग कहा जाता है तब भी हमने अपने कानून आदि बनाने में अपने देश की पुस्तकों का अध्ययन न कर अन्य देशों से प्रेरणा पाने का प्रयत्न किया हम अपनों को भूल गये
सरकारी नीतियों के कारण आज मालदार तो लगातार मालदार होता जाता है मध्यम वर्ग का प्राणी निम्न स्तर पर तथा निम्न स्तर बाला और निम्नस्तर का होता जाता है। बुद्धिमानी चालाकी में बदल रही है।हर तरफ चालबाजी,लंपट प्रकृति, लूट वैइमानी का राज है सरकारी से लेकर व्यक्तिगत सभी प्रकार के संस्थान इस प्रकार के कारनामें कर रहै हैं कि वे दिखाई देने में सामाज सेवक दिखाई दे वैसे बास्तव में लूट केन्द्र बन रहै हैं ।सरकारी गोदामों में अनाज सड़ जाता है और सड़ने पर फैका जा सकता है लेकिन देश की जनता भूखी ही मर रही है।विकास हो रहा है यहीं तो मेरा भारत महान है।
इस तरह के कडवे सच के दिमाग में आते ही सारी व्यवस्था ध्वस्त सी दिखती है एक तरफ नेताओं की मेवा मिश्री दूसरी तरफ घास फूस और चूहा आहार ...
विचारणीय आलेख
भ्रमर 5
भयावह सच -एक थप्पड़ है आज़ादी और तरक्की के मुँह पर !
भयावह सच -एक थप्पड़ है आज़ादी और तरक्की के मुँह पर !
sach hai vikaas jis aniyantrit aur asamaan gati se hua hai vah bhayavah hai....isne asmanta ki khai ko badhaya hi hai..sateek rachna..
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