शब्दों का ही खेल है सारा
भावनाओं से साक्षात्कार होता ही कब है
जो विचार शब्दों में ढल मुखरित हों
वो भावों की प्रबलता को
सहेजे हैं भी या नहीं
यह सोचने का अवकाश नहीं किसी के पास
शब्द जो कहे गये, शब्द जो सुने गये
वे उच्चारित होते ही जीवंत हो जाते हैं
और बन जाते हैं हमारी
अमर, अमिट पहचान
अक्षरों के वो समूह
जो अर्थ-अनर्थ सब कुछ समेटे हैं
वे ही सुनने वालों के
ह्दय तक दस्तक देते हैं
भले ही उनकी पृष्ठभूमि में गूँजती
अंतर्मन की अभिव्यक्ति
पृथक ही क्यों न हो