My photo
पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

27 July 2012

एक नन्हा जंगली फूल

नन्हा फूल जो चुन लाया चैतन्य 


बच्चों के मन की संवेदनशीलता और सोच को आँक पाना हम बड़ों के लिए असंभव ही है ।  आमतौर पर बड़े  बच्चों के विषय में सोचते रहते हैं कि  उनके लिए क्या लायें....? उन्हें क्या दिलवाएं...? ये बात और है कि ये  नन्हें- मुन्हें जो करना चाहते हैं उसके लिए शायद हमारे  जितना सोचते नहीं पर हम भी हरदम उनके मन में तो ज़रूर बसते हैं । 

चैतन्य आज एक नन्हा सा जंगली फूल ले आया । उसे लगता है कि उसकी पसंदीदा एक प्यारी सी कार्टून करेक्टर की तरह माँ भी अपने बालों में फूल लगाये । उसको यह सूझा मुझे इस बात ने चौंकाया तो ज़रूर पर ख़ुशी भी बहुत मिली । आज दो क्षणिकाएँ मेरे आँगन के नन्हे फूल की इस सूझबूझ पर :)


एक नन्हा जंगली फूल 
बन गया विशेष 
पाकर उसके हाथों का स्पर्श 
और मेरे हृदय ने मानो
छू लिया अर्श 


चुन लाया वो नन्हा सा उपहार 
मन में लिए कई  विचार 
मानो पूछ रहा हो , माँ 
तुम सजती क्यूँ नहीं ?
बस , मुझे ही संवारती हो हरदम 

20 July 2012

महिलाओं की अस्मिता पर चोट हमारी पूरी सामाजिक-पारिवारिक और प्रशासनिक व्यवस्था की विफलता है

गुवाहाटी में एक छात्रा के साथ सडक़ पर हुई शर्मसार करने वाली बेहूदगी भरी छेडख़ानी और बागपत में महिलाओं के लिए घर से ना निकलने का फरमान । दोनों घटनाएं एक साथ ही हुई और फिर सामने ले आईं हमारे समाज का वही वीभत्स चेहरा । ये दोनों समाचार यूं तो अलग-अलग हैं पर इनके मायने कहीं ना कहीं एक से ही हैं। ऐसा लगता है मानो एक कारण है तो दूसरा परिणाम। दुखद बात यह है कि कारण और परिणाम दोनों ही महिलाओं के जीवन के लिये दंश  हैं। गुवाहाटी में जहां ग्यारहवीं  कक्षा की एक छात्रा के साथ कुछ लडक़ों ने भरी सडक़ पर बेशर्मी के साथ बेहूदगी की वहीं बागपत में पंचायत ने यह फरमान सुनाया कि चालीस साल से कम उम्र की महिलाएं बाज़ार नहीं जा सकतीं और महिलाओं को फोन इस्तेमाल करने की भी इज़ाजत नहीं होगी। एक घटना हमारे समाज में मौजूद कुत्सित मानसिकता की बानगी है जिसमें एक असहाय अकेली लडक़ी की अस्मत से भीड़ भरी सडक़ पर खिलवाड़ करने की बेशर्मी होती है तो दूसरी में महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर बंदिशों का ताला जडऩे की कवायद की जाती है। 

घर हो, सडक़ हो, कार्यस्थल या फिर स्कूल ।  कहने को देश की आधी आबादी पर ऐसा लगता है मानो उनकी सुरक्षा का जिम्मा किसी का नहीं। ना प्रशासन सेक्यूरिटी दे पा रहा है और ना ही परिवार गारंटी। अगर अनहोनी हो आए तो कोई घर से कब और कैसे निकलें या ना निकलें यह सलाह देता है, तो कोई उल्टे महिलाओं के ही चरित्र और पहनावे को निशाना बनाता है। तभी तो भरी सडक़ पर सैकड़ों लागों की मौजूदगी में कुछ गिनती के मनचले एक लडक़ी से छेड़छाड़ करते हैं, उसे घसीटते हैं और उसके कपड़े तक फाड़ देते हैं। सवाल ये कि वहां खड़े तमाम लोग अगर इतनी संख्या में मौजूद होकर भी इन गिनती के हैवानों का विरोध नहीं कर पाये अपने घर की बहू-बेटियों को भी क्या बचा पायेंगें ? शायद नहीं, तभी तो हर बार यही तर्क दिया जाता है कि महिलाओं को सुरक्षित रहना है तो वे अपने घर की देहरी तक ही सिमट जाएं। इसीलिए अक्सर ऐसे तुगलकी फरमान आते रहते हैं जैसे बागपत जिले से आए हैं। ऐसे में सवाल यह है कि क्या हमारे देश में औरतें अपने घरों में भी सुरक्षित हैं? जो देश घरेलू हिंसा के आँकड़ों में अव्वल है। जहां बेटियां कूड़ेदानों में मिलती हैं । जहां मासूम बच्चियों के यौन शोषण के मामलों में अधिकतर परिजन ही दोषी पाये जाते हैं। वहां क्या घर और क्या बाहर । हर जगह औरतों की सुरक्षा एक सवाल बनकर ही रह गयी है। 

समाज में होने वाली ऐसी बर्बर और घिनौनी घटनाओं के लिए महिलाओं या लड़कियों पर बंदिशें लगाने के बजाय हमारे समाज में बेटों को संस्कारित करने की बात क्यों  नहीं की जाती? क्यों नहीं उनपर भी कुछ बंदिशें लगाईं जातीं ताकि महिलाएं तो घर के बाहर निकल सकें पर विक्षिप्त मानसिकता वाले ये मनचले घर के भीतर ही बैंठें। गौरतलब है कि गुवाहाटी में भी जिन लडक़ों ने इस छात्रा से बदसलूकी की है वे सभी पढे लिखे हैं । उनका वहशीपन बता रहा है कि उन्हें संस्कार देते समय इंसानियत का पाठ तो शायद पढाया ही नहीं गया। यूं भी हमारे परिवारों में संस्कार और समझ की सारी जिम्मेदारी शुरू से ही बेटियों की झोली में डाल दी जाती है। जरा सोचिए कि किसी लडक़ी के साथ यूं पेश आने वाले लोग कोई अनपढ-गंवार नहीं है। अच्छे खासे पढे लिखे और नौकरीशुदा इंसान हैं। इनके द्वारा किया गया यह व्यवहार हमारी पूरी सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था पर ही सवाल उठाता है। यूं सरेराह हैवानियत का तांडव करने वाले इन लोगों को सबक मिले, बंदिशें लगें तो शायद आगे भी लोग सोच समझकर ही किसी महिला की अस्मत पर हाथ डालें। पिछले कुछ बरसों में छेड़छाड़ की घटनाओं में बड़े शहरों से लेकर कस्बों तक तेजी से इजाफा हुआ है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि आज भी ऐसे दुराचारियों का कोई सख्त सजा नहीं दी जाती। समाज से लेकर पुलिस प्रशासन तक ऐसे मामलों में एक ऐसी आचार संहिता की बात करने लगते हैं। जो केवल महिलाओं पर ही लागू होती है। 


इस तरह की घटनाएं आने वाले समय में महिलाओं के व्यवहार को प्रभावित करेंगीं । उनके व्यवहार को भी नकारात्मक दिशा मिलेगी ।  कोई हैरानी की बात नहीं होगी कि खुद को बचाने के लिए औरतों का व्यवहार भी कू्ररतापूर्ण हो जाए। यूं भी समाज किसी असहाय महिला की कितनी मदद कर सकता है ये तो आए दिन होने वाली इन शर्मनाक घटनाओं में हमारे सामने आता ही रहता है। फिर नागपुर जैसी घटनाएं होंगीं जब कुछ महिलाओं ने मिलकर छेड़छाड़ करने वाले एक आदमी की सरेआम जान ले ली थी। नारी के सम्मान को अगर इस हद तक ठेस पहुचेगी तो उसे भी शायद भविष्य में हथियार उठाने ही पड़ जाएं अपनी सुरक्षा के लिए। यह हम सबको आज ही सोचना है कि तब समाज का चेहरा कितना विद्रूप हो जायेगा जब महिलाएं भी हिंसक व्यवहार पर उतारू हो जायेंगी। गुवाहाटी में दरिंदगी  का शिकार हुई लडक़ी का कहना है कि वो रोती रही गिडगिड़ाती रही पर उन हैवानों ने उसकी एक ना सुनी और उसके बदसलूकी करते रहे । ऐसे में यह समझना किसी के लिए भी मुश्किल ना होगा कि खुद को बचाने के लिए कोई लडक़ी कभी ना कभी खुद भी क्रूर  व्यवहार पर उतर ही आयेगी। इन हालातों में तो वो दिन आने ही हैं जब महिलाएं स्वयं ही ऐसे दुराचारियों का सबक सिखाने की ठान लेंगीं।  

आये दिन ऐसी घटनाएँ होती हैं  जो महिलाओं की अस्मिता पर गहरी चोट करती  हैं  । इनसे महिलाओं को  शारीरिक ही नहीं मानसिक प्रताडऩा भी मिलती है । घर हो या बाहर उनके साथ होने वाला ऐसा व्यवहार उनके  पूरे मनोविज्ञान और व्यक्तित्व को ना केवल प्रभावित करता है बल्कि बदलकर ही रख देता है। कितनी लड़कियां तो छेड़छाड़ से परेशान होकर आत्महत्या तक कर लेती हैं। कईयों की पढाई बीच में ही छूट जाती है। हमारे घर-परिवारों में बिना किसी गलती के ही उनपर बंदिशें लगा दी जाती हैं। ये बंदिशें लगाई तो बहू-बेटियों की सुरक्षा के नाम पर जाती हैं पर असल में यह हमारी पूरी सामाजिक-पारिवारिक और प्रशासनिक व्यवस्था की विफलता है। अफसोसजनक ही है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की नागरिक होने के नाते सभी संवैधानिक अधिकार पाने के बावजूद भारत में महिलाएं एक इंसान के तौर पर यहां आज भी परतंत्र हैं। 

11 July 2012

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही नहीं, विश्वसनीयता भी ज़रूरी




हम सबका का देखा, जाना और माना एक सच यह है कि हर भारतीय को हर हाल में कुछ कहना होता है ।  हमारे विचार प्रवाह की तीव्रता इतनी अधिक है कि कभी किसी विषय को लेकर अधिवक्ता बन बहस करने लगते हैं तो कभी स्वयं ही जज बन निर्णय भी सुना देते हैं । स्वयं को अभिव्यक्त करने की आदत या ज़रुरत हर हिन्दुस्तानी  के जीवन का अहम् हिस्सा रही  है, आज भी है  । हो भी क्यों नहीं ? हम तो हर परिस्थिति के लिए कुछ न कुछ कह सकते हैं । अपनी विचारशीलता को प्रस्तुत करने का कोई अवसर हम  अपने घर-परिवारों  में छोड़ते हैं और न ही देश-दुनिया के मसलों को बतियाने -गरियाने  के मामले में पीछे रहते हैं ।


तकनीक का अजब खेल है कि आज  हम सबके पास स्वयं को अभिव्यक्त करने के अनगिनत साधन भी  मौजूद हैं। ट्विटर , फेसबुक या ब्लॉग । जहाँ जो मन में आया लिख डाला । अच्छी बात है, इन साझा मंचों पर विचारों को अभिव्यक्ति मिल रही है पर मुझे लगता है इस तरह जो विचार बिना सोचे समझे साझा किये जा रहे हैं उससे सिर्फ और सिर्फ हमारी अभिव्यक्ति की विश्वसनीयता पर प्रश्न ही उठ रहे हैं । जिस तरह लिखने वाले ज़रूरी -गैर ज़रूरी सब कुछ परोस रहे हैं ठीक उसी तरह लाइक्स और टिप्पणियों के ज़रिये हर कोई विचारों के आदान प्रदान में नहीं, बस लेन-देन में जुटा  है । देखने में आ रहा है कि इन प्लेटफॉर्म्स  पर रचनात्मक और वैचारिक ऊर्जा का जिस तरह प्रयोग होना चाहिए था काफी कुछ  उससे उलट  ही हो रहा है । वैचारिक स्वतंत्रता देने वाले मंचों पर एक दूसरे  के विचारों के प्रति  सहिष्णुता का भाव तो बस  नाममात्र को बचा है । 

आज़ादी जब भी, जिस रूप में भी मिलती है हमें अधिकार संपन्न बनाती है ।  जब अधिकार मिलेंगें तो कर्तव्यों के रूप में जिम्मेदारी भी तो हमारे ही हिस्से आएगी ।  जिम्मेदारी की यह सोच हमें स्वतंत्र बनाये रखती है पर स्वच्छंद नहीं होने देती । 

क्या हम सब इसी तरह की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चाहते हैं ? जब हमारी कही बात की विश्वसनीयता ही न रहे ।   सब कुछ पसंद -नापसंद या सुंदर है अच्छा है , तक ही सिमट जाये । अभिव्यक्ति के इन प्लेटफॉर्म्स पर हमारे विचारों की विश्वसनीयता ही यह तय करेगी कि किसी विषय पर दिए हमारे मत का क्या मूल्य है ? यह तभी संभव है जब हम स्वयं अपने लिए कुछ मापदंड तय करें । अपने विचारों की प्रस्तुति से लेकर औरों के विचारों को मान देने तक । मतभिन्नता कोई बड़ी बात नहीं पर उसे सामने रखने का ढंग तो हमें सीखना ही होगा ।  हम यह बात क्यों भूल रहे  हैं कि स्वयं को अभिव्यक्त करने का अधिकार चाहने वाले हर व्यक्ति को सभ्य व्यवहार का पाठ पढना भी आवश्यक है । यह जानना और मानना ज़रूरी है कि  हमारी ही तरह किसी और को भी अपनी बात कहने का पूरा अधिकार है ।  हमारे लिखे शब्दों के मायने और मान दोनों बने रहें इसके लिए आवश्यक है कि जो भी लिखा जाय , जहाँ भी लिखा जाय वो अर्थपूर्ण हो । उसकी विश्वसनीयता का स्तर  बना रहे । 

03 July 2012

जब भी, जिससे भी मिली, उसी से कुछ सीखा

कहते हैं कि गुरु बिन ज्ञान नहीं । सच भी है गुरु जीवन के मार्गदर्शक होते हैं । ये बात और है कि जीवन की इस यात्रा में  ऐसे लोग गिनती के ही होते  हैं जिन्हें हम औपचारिक रूप से अपना गुरु मानते हैं । जिनका सानिध्य पाकर  हमारी अकादमिक या आध्यात्मिक उन्नति होती है ।  इसी नाते हम इन्हें गुरु मान इनका सम्मान करते हैं ।  लेकिन जीवन की इस राह में अनगिनत लोग ऐसे भी मिलते हैं  जिन्हें औपचारिक रूप से  गुरु नहीं मानते हम , पर उनसे भी हमें ज्ञान और मार्गदर्शन ज़रूर मिलता है ।

हर जीवन में है नया  रंग 
कभी कभी लगता है कि इस जीवन में कोई एक गुरु कैसे हो सकता है ? मैंने हमेशा यह महसूस किया कि हमारा जीवन तो सबके सहयोग से ही संवरता है । हमारे परिवेश से लेकर हमारे माता-पिता और यहाँ तक कि हमारे अपने बच्चे भी हमें बहुत कुछ सिखाते हैं । औपचारिक रूप से हम इन्हें गुरु भले न माने पर जीवन में हर व्यक्ति, हर परिस्थिति हमें कुछ ऐसा सिखा जाती है, जिससे मिली सीख सदा के लिए हमारी पथप्रदर्शक बन जाती है । यही सीखें वे उत्प्रेरक तत्व होती  हैं जो समय रहते संभल जाने का संबल देती हैं । एक गुरु की तरह हमें सही गलत को समझने की शक्ति और दूरदर्शिता  देती हैं । 

अगर अपनी बात करूँ तो लगता है कि आज तक जीवन में जिससे भी मिली उसी से बहुत कुछ सीखा । इस सूची में ऐसे भी कई लोग हैं जिन्हें अक्षर ज्ञान भी नहीं था । जैसे मेरी दादी माँ । एक निरक्षर महिला ,पर जीवन से जुड़े ज्ञान की थांती जो उनसे मिली आज तक मेरा आत्मबल है और हमेशा रहेगी । आज भी अपनी नाते रिश्तेदारी में ऐसी कई महिलाओं से मिलना हो जाता है जिनका आम सा दिखने वाला जीवन अपने आप में संघर्ष की मिसाल है । उनसे सुनी कई बातें अनायास ही इतना  कुछ सिखा बता देती हैं कि मुझे वे ज्ञान देने वाले किसी गुरु से कम नहीं लगतीं । 

अपने दोस्तों ,सखियों-सहेलियों सभी से कुछ न कुछ सीखा है और आज भी यह सिलसिला जारी है  । जब भी जिससे भी मुलाकात होती है लगता कि हर किसी में  कुछ विशेष बात है । मुझे भी इसे सीखने की कोशिश करनी चाहिए । किसी की भाषाई दक्षता तो किसी का शांत स्वाभाव , किसी का अपने घर की साज-संभाल  का ढंग तो किसी का नौकरी में अपनी काबिलियत का लोहा मनवाने की सनक ।  कभी बड़ी उम्र  के किसी अपने के अनुभव कुछ सिखा जाते हैं तो कभी अपने से छोटी उम्र वालों के जद्दोज़हद भरे निर्णय  मेरे अपने जीवन को अनुशासित बनाये रखने का पाठ पढ़ा जाते है । सच ही है कि मन चेतन हो तो पूरा परिवेश ही एक विद्यालय के समान है । मन की सजगता हर कहीं से कुछ न कुछ ढूंढ ही लेती है जो ज्ञान और मार्गदर्शन देता है । हर बार यही लगता है कि मुझे मिलने वाले हर व्यक्ति के जीवन से जुड़े निर्णय और परिस्थितियां  मुझे बहुत कुछ सिखा जाती है । कुछ ऐसा समझा जाती है जो मेरे लिए  गुरु के दिए ज्ञान से कम नहीं । यह कृतज्ञता ज्ञापन उन तमाम नाम अनाम के प्रति है जिनसे कुछ सीखने का सौभाग्य मिला ।