हम सबका का देखा, जाना और माना एक सच यह है कि हर भारतीय को हर हाल में कुछ कहना होता है । हमारे विचार प्रवाह की तीव्रता इतनी अधिक है कि कभी किसी विषय को लेकर अधिवक्ता बन बहस करने लगते हैं तो कभी स्वयं ही जज बन निर्णय भी सुना देते हैं । स्वयं को अभिव्यक्त करने की आदत या ज़रुरत हर हिन्दुस्तानी के जीवन का अहम् हिस्सा रही है, आज भी है । हो भी क्यों नहीं ? हम तो हर परिस्थिति के लिए कुछ न कुछ कह सकते हैं । अपनी विचारशीलता को प्रस्तुत करने का कोई अवसर हम न अपने घर-परिवारों में छोड़ते हैं और न ही देश-दुनिया के मसलों को बतियाने -गरियाने के मामले में पीछे रहते हैं ।
तकनीक का अजब खेल है कि आज हम सबके पास स्वयं को अभिव्यक्त करने के अनगिनत साधन भी मौजूद हैं। ट्विटर , फेसबुक या ब्लॉग । जहाँ जो मन में आया लिख डाला । अच्छी बात है, इन साझा मंचों पर विचारों को अभिव्यक्ति मिल रही है पर मुझे लगता है इस तरह जो विचार बिना सोचे समझे साझा किये जा रहे हैं उससे सिर्फ और सिर्फ हमारी अभिव्यक्ति की विश्वसनीयता पर प्रश्न ही उठ रहे हैं । जिस तरह लिखने वाले ज़रूरी -गैर ज़रूरी सब कुछ परोस रहे हैं ठीक उसी तरह लाइक्स और टिप्पणियों के ज़रिये हर कोई विचारों के आदान प्रदान में नहीं, बस लेन-देन में जुटा है । देखने में आ रहा है कि इन प्लेटफॉर्म्स पर रचनात्मक और वैचारिक ऊर्जा का जिस तरह प्रयोग होना चाहिए था काफी कुछ उससे उलट ही हो रहा है । वैचारिक स्वतंत्रता देने वाले मंचों पर एक दूसरे के विचारों के प्रति सहिष्णुता का भाव तो बस नाममात्र को बचा है ।
आज़ादी जब भी, जिस रूप में भी मिलती है हमें अधिकार संपन्न बनाती है । जब अधिकार मिलेंगें तो कर्तव्यों के रूप में जिम्मेदारी भी तो हमारे ही हिस्से आएगी । जिम्मेदारी की यह सोच हमें स्वतंत्र बनाये रखती है पर स्वच्छंद नहीं होने देती ।
क्या हम सब इसी तरह की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चाहते हैं ? जब हमारी कही बात की विश्वसनीयता ही न रहे । सब कुछ पसंद -नापसंद या सुंदर है अच्छा है , तक ही सिमट जाये । अभिव्यक्ति के इन प्लेटफॉर्म्स पर हमारे विचारों की विश्वसनीयता ही यह तय करेगी कि किसी विषय पर दिए हमारे मत का क्या मूल्य है ? यह तभी संभव है जब हम स्वयं अपने लिए कुछ मापदंड तय करें । अपने विचारों की प्रस्तुति से लेकर औरों के विचारों को मान देने तक । मतभिन्नता कोई बड़ी बात नहीं पर उसे सामने रखने का ढंग तो हमें सीखना ही होगा । हम यह बात क्यों भूल रहे हैं कि स्वयं को अभिव्यक्त करने का अधिकार चाहने वाले हर व्यक्ति को सभ्य व्यवहार का पाठ पढना भी आवश्यक है । यह जानना और मानना ज़रूरी है कि हमारी ही तरह किसी और को भी अपनी बात कहने का पूरा अधिकार है । हमारे लिखे शब्दों के मायने और मान दोनों बने रहें इसके लिए आवश्यक है कि जो भी लिखा जाय , जहाँ भी लिखा जाय वो अर्थपूर्ण हो । उसकी विश्वसनीयता का स्तर बना रहे ।