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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

30 April 2012

मेरा काम है अनमोल


वो घर की रीढ है। सबके दुख-सुख की भागीदार । उसका जीवन भले ही एक परीधि में सिमटा हो, वो पूरा संसार संभालती है। वो ही है जो माँ, पत्नी या बहू, बेटी हर रूप में वो घर-परिवार  के सदस्यों के जीवन की रफ्तार को कायम रखने वाली ऊर्जा बनती है । 


श्रमिक दिवस पर संगठित हो या असंगठित सभी वर्गों के श्रमिक अपनी मांगें पूरी करने को आवाज उठाते हैं। इस दिन काम के मोल की बात की जाती है। मोल यानि की किसी भी काम एवज में मिलाने वाला मेहनताना। ऐसे में आज के दिन बात उन महिलाओं की जो लक्ष्मी कमाने घर के बाहर भले ही न जाती हों, महीने के आखिर में निश्चित तनख्वाह नहीं लाती हों पर समाज और परिवार  में उनका योगदान किसी भी रूप में कम नहीं आँका जा सकता। गृहिणियां  परिवार की उस पृष्ठभूमि की तरह हैं जो खुद भले ही पीछे छुप जाती हैं पर इनके बिना घर के किसी भी सदस्य की तस्वीर साफ तौर पर उभर कर सामने नहीं आ सकती। 

चाहे गाँव हो या शहर सबसे पहले बिस्तर छोड़ने और सबसे बाद अपने आराम की सोचने वाली घरेलू महिलाएं पति, बच्चों और घर के अन्य सदस्यों की देखभाल में इतनी व्यस्त हो जाती हैं कि स्वयं को हमेशा दोयम दर्जे पर ही रखती हैं। सबका स्वास्थ्य संभाल  लेती हैं पर स्वयं की सेहत को लेकर गंभीर नहीं हो पातीं ।  गृहिणियां  सिर्फ देना ही जानती हैं ।  उनकी कोई मांग होती भी है तो परिवार के बड़ों या बच्चों की ख़ुशी से ही जुड़ी होती है । उनकी  अपेक्षा तो बस इतनी ही होती है कि उन्हें  भी सभी से वो स्नेह और सम्मान मिले जिसकी वे अधिकारी हैं  ।  

 गृहिणियां  ही होती हैं जिनके लिए न काम के घंटे निश्चित होते हैं और न ही पारिश्रमिक  । वे हफ्ते के सातों दिन काम करके भी सुनती हैं कि दिन भर घर में करती क्या हो ? पर कभी उनके समर्पण में कोई कमी नहीं आती । वे सब शिरोधार्य करती हैं बड़ों की आज्ञा हो या बच्चों की मनुहार । 

अक्सर सोचती हूं कि क्या एक बच्चे को दिनरात एक कर बड़ा करने का मोल चुकाया जा सकता है या फिर तय की जा सकती है उस महिला के काम की कीमत जब कोई महिला अपने साज-श्रृंगार से अधिक  समय उस मकान को संवारने में लगाती है ,जो उसके बिना घर नहीं कहा जा सकता। 

कौन आँक सकता है कीमत उस भागदौड़ की जिसमें सामाजिक दायित्वों का निर्वहन सबसे ऊपर है ? उन गृहिणियों  के हिस्से आने वाली जिम्मेदारी का मूल्य तय करना कैसे संभव है जो एक  परिवार को बांध कर रखने , उसका मान ऊंचा रखने के लिए  खुद न जाने कितनी बार झुकती हैं , भीतर से टूटती-बिखरती हैं । 

हमारी अर्थव्यस्था में  गृहिणियों  के काम की आर्थिक भागीदारी को नहीं आँका गया है । शायद इसीलिए उनके काम का मान भी नहीं होता । परिवार और समाज के लिए यह बात कभी विचारणीय रही ही नहीं कि उसकी भागीदारी के बिना घर के अन्य लोगों के जीवन की गति भी थम  जाएगी । हालाँकि अनगिनत शोध यह साबित कर चुके हैं कि घर की  धुरी बनकर रहने वाली घरेलू महिलाओं के काम की आर्थिक वैल्यू भी कुछ कम नहीं है । पर सच तो यह है कि उनकी भागीदारी को सिर्फ आर्थिक रूप में आँका भी नहीं जा सकता जा सकता ।

तभी तो गृहिणियां  अपने काम के बदले पारिश्रमिक मांगती ही कब हैं  ? क्योंकि इस देश की  हर गृहिणी  यह जानती है कि उसके काम की कीमत लगाना किसी के बूते की बात नहीं । वो जो कुछ भी अपने परिवार और समाज के लिए करती है वो अनमोल है ।

17 April 2012

घर छोड़कर जाता छोटू

जयपुर में हाल ही मे हुई एक घटना में माँ की डांट से व्यथित होकर दस साल के भाई और आठ साल की बहन ने घर  छोड़ दिया। दोनों मासूम बिना सोचे समझे घर से निकल पड़े  । यह सुखद रहा कि पुलिस इन्हें वापस घर ला पाई लेकिन ऐसा हर उस बच्चे के साथ नहीं हो पाता जो जाने-अनजाने ऐसा कदम उठा लेता है। पुलिस के पूछने पर दोनों ने बताया कि उन्हें नहीं मालूम वे कहां जाते ? बस, मम्मी की डांट दुखी थे इसलिए घर से छोड़ दिया। 

कुछ समय पहले टीवी पर एक उत्पाद के विज्ञापन में अपने मन की ना होने पर एक बच्चा बड़ी  मासूमियत से कहता है कि ‘मैं घर छोड़कर जा रहा हूं।’ बच्चों के मुंह से ऐसी बातें सुनकर किसी के भी चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है, पर असल जिंदगी में होने वाले ऐसे हादसे बच्चों का ही नहीं पूरे परिवार का जीवन बदल देते हैं। इसीलिए जरूरी है कि समय और उम्र के हिसाब से  बड़े  ही मासूम बच्चों के मन को समझें । बच्चों को भी उनके मन की कहने दें। बच्चों को संबोधित करने से लेकर अपनी बात कहने तक, अभिभावक संयमित व्यवहार करें। ऐसी घटनाओं से जुड़े अध्ययन बताते हैं कि अधिकतर मामलों में बच्चों के घर छोड़ने की सबसे बड़ी वजह बड़ों  के द्वारा उनके साथ किया गया अपमानित व्यवहार ही होता है। इस बात का खास ख्याल  रखें कि माता-पिता बात बात में बच्चों को अपमानित करते हुए बात ना करें। आज के दौर में बच्चे बहुत सेंसेटिव हो गये हैं। ऐसे में अभिभावकों के लिए जरूरी है कि वे उनके साथ सोच विचार कर बात करें। बाल मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि अगर बच्चों से कोई गलती हो जाती है तो उनके साथ कम्युनिकेट करें क्योंकि सजा देना किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकता। उल्टा अभिभावकों का ऐसा व्यवहार बच्चों का हिंसक बना देता हैं। उनके मन में आक्रोश और बदला लेने की सोच पनपने लगती है। जिसके चलते भी बच्चे कई बार घर छोड़  देते हैं। 

हमारे देश की आबादी का एक तिहाई हिस्सा बच्चे हैं। बावजूद इसके  आए दिन बच्चों द्वारा ऐसे कदम उठाने की घटनाएं हमारी पूरी सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाती हैं। सर्वे बताते हैं कि पेरेंटस के झगड़ों के चलते भी कई बच्चे अपनों से दूर हो जाते हैं। मौजूदा दौर में टूटते परिवार भी ऐसी घटनाओं का कारण बना रहे हैं। सर्वेक्षण बताते हैं कि जो बच्चे अपने पिता के साये में नहीं पलते वे 15. 3 गुना ज्यादा बिहेवेरियल डिसऑर्डर के शिकार होते हैं। यही वजह है कि दुनियाभर में घर छोड़ने  वाले बच्चों में अधिकतर फादरलैस घरों के बच्चे ही होते हैं। कई मामलों में यह सामने आता है कि बड़ों के बीच होने वाली अनबन के चलते बच्चे ने घर छोड़ा  है क्योंकि अपने आसपास ऐसा माहौल देखकर बच्चे स्वयं को असुरक्षित पाते हैं। माता-पिता के झगड़े देखकर उन्हें लगता है कि बड़े  उनसे भावनात्मक लगाव ही नहीं रखते।  इतना ही नहीं हद से ज्यादा एकेडैमिक प्रेशर और पारिवारिक तनाव के साथ ही अभिभावकों का हद से ज्यादा आलोचनात्मक और तुलनात्मक रवैया भी बच्चों के मन में असुरक्षा की भावना पैदा करता है। पेरेंटस के समय की कमी होना भी इस समस्या की एक बङी वजह है। आजकल शहरी परिवारों में ऐसे परिवारों की संख्या बढी है जिसमें दोनों अभिभावक कामकाजी हैं। नतीजतन बच्चों से संवाद ना के बराबर होता हैं। ऐसे में बच्चे कई बार गलत संगत में पड़ जाते हैं तो कई बार अकेलेपन और अवसाद का शिकार हो जाते हैं।  बच्चों की अधिकांश परेशानियों का हल यही है कि अभिभावक  उन्हें समय दें और उनके व्यवहार के बदलाव को समय रहते समझें। 

परिवार से रूठकर यूं घर से निकल जाने वाले बच्चे ना जाने कैसी कैसी विपत्तियां झेलने को मजबूर हो जाते हैं। कई बार शोषण के ऐसे भंवर में फंसते हैं कि पूरी जिंदगी बाहर नहीं निकल पाते।  यूँ अपना घर छोड़ देने वाले अधिकतर बच्चे जीवन भर के लिए भीख मांगने, वेश्यावृत्ति, ड्रग्स और अपराध की अंधेरी दुनिया में फंस जाते हैं और कभी वापस नहीं लौट पाते,  इसीलिए  बहुत ज़रूरी है कि बच्चों के लिए घर-परिवार के सदस्य  बच्चों के प्रति संवेदनशील बनें ।

बाल मनोविज्ञान के चितेरे ....दीनदयाल शर्मा जी


बच्चों के मन को समझना और उनके लिए लिखना आसान नहीं होता  । बच्चों के मासूम  मन की और उनकी रूचि की सामग्री को शब्द देना लेखन की दुनिया में शायद सबसे कठिनतम काम है । मुझे बच्चों के मन को समझने और बाल साहित्य पढने में बहुत रूचि है । अबकी बार जब जयपुर जाना हुआ तो दीनदयालजी से बात हुयी और उनकी कुछ पुस्तकें मिली । काफी समय से सोच रही थी कि उनके बाल साहित्य को लेकर मैं अपने विचार आप सबके साथ साझा करूं। उनके ब्लॉग पर काफी समय से उनकी बाल रचनाएँ नियमित पढ़ती रूप से पढ़ती आई हूँ । ऐसे में उनकी पुस्तकें पढना और बाल मन को समझना मेरे लिए एक सुखद एवं सुंदर अनुभव रहा । 

बाल साहित्यकार  के रूप में दीनदयाल जी की सोच बच्चों के मन को गहराई  से समझने वाली है । मनोरंजन और रोचकता के साथ-साथ जीवन से जुड़ी सीधी सरल सीख उनके बाल साहित्य में परिलक्षित होती है । उनकी बाल कवितायेँ और कहानियां बच्चों में चेतना जागने के साथ ही बाल मन की जिज्ञासाओं को भी समेटे है । 

पापा मुझे बताओ बात 
कैसे बनाते दिन और रात 

और ढेर सी बातें मुझको 
समझ क्यों नहीं आती हैं 
न घर में बतलाता कोई 
न मेडम बतलाती है 

बच्चों के मन में रहने वाले द्वंद्व और प्रश्नों को उकेरे उनकी कई रचनाएँ प्रभावित करती हैं। उनकी रची कविताओं में कहीं पर्यावरण को बचाने की सीख है तो कहीं राष्ट्रप्रेम की प्यारी बातें । गंभीर हो या हास्य बाल मनोविज्ञान पर दीनदयालजी की पकड़ चकित करती है । उनकी पुस्तक 'इक्यावन बाल पहेलियाँ'  ऐसी बाल सुलभ समझ को दर्शाती है । 

बातों बातों में बच्चों को बहुत कुछ समझा देने वाली बाल पहेलियाँ सरल भाषा शैली में हैं और जानकारी से भरपूर भी । यह पुस्तक रोचक, ज्ञानवर्धक  और सशक्त बाल पहेलियाँ समेटे है ।  जैसे पेड़ और पुस्तक को लेकर उनकी रची ये बाल पहेलियाँ  । 

खड़ा खड़ा जो सेवा करता 
सबका जीवन दाता 
बिन जिसके न बादल आयें 
बोलो क्या कहलाता ?

दिखने में छोटी सी लगती
गज़ब भरा है ज्ञान 
पढ़कर इसको बन सकते हम 
बहुत बड़े विद्वान  

बच्चों के मन को समझते हुए ही उन्होंने अपनी पुस्तक 'कर दो बस्ता हल्का' में बाल मन को कहीं गहरे छुआ है । इन्हें पढ़ते हुए बरबस ही बड़ों के चेहरों पर भी मुस्कान आ जाती है । बच्चों का मासूम मन क्या चाहता है,  यह उनकी रचनाओं में प्रमुखता से झलकता है । 

मेरी मैडम 
मेरे सरजी 
हमें पढ़ाते 
बाल साहित्यकार दीनदयाल शर्मा  जी 
अपनी मरजी

बस्ता भारी 
मन है भारी  
कर दो बस्ता हल्का 
मन हो जाये फुलका

राजस्थानी बाल साहित्य की दुनिया में भी दीनदयालजी एक जाना-माना नाम हैं  । हिंदी और राजस्थानी  दोनों ही भाषाओँ में पूरे अधिकार से बाल साहित्य रचते हैं । उनकी पुस्तक ' बाळपणै री बातां ' की लेखन शैली इसी बात का प्रमाण है । बाल मन को समझने वाली उनकी सोच उनके लेखन में साफ़ झलकती है । तभी तो उनकी रचनाओं में बालमन की चंचलता भी है और सब कुछ जान लेने की उत्सुकता भी । 'बाळपणै री बातां' पुस्तक हिंदी साहित्य अकादमी के पुरस्कार हेतु नामांकित भी हुई है । इस पुस्तक में स्कूल ,घर और अपने परिवेश से जुड़ी बच्चों के मन की बातों का लेखा जोखा है । इस  पुस्तक  में उन्होंने एक संवेदनशील पिता और बाल साहित्यकार के रूप में अपने बच्चों से के साथ हुए अनुभव और संवाद को साझा किया है । 

बच्चों और बाल साहित्य के प्रति उनके समर्पण इतना है कि वे टाबरटोली नाम का एक अख़बार भी निकालते हैं जो बच्चों के लिए निकलने वाला देश पहला अख़बार है । उनका  ब्लॉग बचपन  भी बच्चों को ही समर्पित है । 

दीनदयालजी की पुस्तकें पढ़कर यही लगा कि उनकी रचनाएँ बच्चों की रूचि-अरुचि और बाल मन की भाषाई समझ को ध्यान में रखकर रची गयीं हैं । उनकी  बाल सुलभ अभिव्यक्ति इतनी सहज एवं सरल है कि हर शब्द बच्चों की कलात्मक अभिवृत्तियों, जिज्ञासाओं और संवेदनाओं को उकेरता सा लगता है ।