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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

28 March 2012

सच का सामना या .....निजता का मोल


आज के दौर में निजता यानि की प्राइवेसी का भी अपना मूल्य है । उस निजता का जो कभी अनमोल हुआ करती थी । तभी तो सच को स्वीकार करने के नाम पर एक आम हिन्दुस्तानी से लेकर जाने माने चहेरों तक, सभी की हिम्मत देखते ही बनती है । इसे  मनोरंजन कहिये  या स्वयं के जीवन के सारे भेद खोलने के मूल्य का खेल,  करना बस इतना है कि आइये और सच को स्वीकारिये । सच, जो आपके अपने जीवन से जुड़ा है । सच ,जिसे  आपने अभी तक किसी अपने से भी साझा न किया हो । 

दर्शकों के मनोविज्ञान को भलीभांति समझने वाले टीवी चेनल्स तो ' दर्शक अपने विवेक से काम लें ' इतना कहकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेते हैं । ऐसे में स्वयं दर्शकों को सचमुच विवेक और सजगता से काम लेना चाहिए । क्योंकि इन कार्यक्रमों को बनाने वाले और इनका हिस्सा बनने वाले तो अपने आर्थिक हित साधने में जुटे हैं । तभी तो जो लोग जीवन भर अपनों के सामने मुखौटा पहने रहते हैं वे टीवी के ज़रिये सबके सामने सच बोलने में जुटे हैं । 

हमारी निजता का संरक्षण हमारी जिम्मेदारी भी है और कर्तव्य भी । ऐसे में मनोरंजन के नाम उसका मोल लगाकर परोसने का काम खूब फल फूल रहा है । अपने निजी जीवन को बेपर्दा करने के लिए मानो होड़ सी लगी है । सच कहने के नाम पर अपने  ही जीवन के किस्से बेचे जा रहे हैं । ऐसा हो भी क्यों नहीं ? , हर सवाल , हर जवाब और हर हर आंसू का तयशुदा मोल जो मिलता है ।

कहीं रियलिटी टीवी के नाम पर घर के झगड़े सुलझाये जा रहे हैं तो कहीं सच कहने के बहाने ऐसा कुछ कहा जा रहा है जो व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर मात्र बिखराव ही ला रहा है । एक समय था जब आम आदमी से लेकर चर्चित चहरों तक , हर कोई यही चाहता था कि उसके जीवन की निजी बातें लोगो के सामने ना आयें । ऐसे में टीआरपी के लिए रचे जा रहे आडम्बर में आम आदमी का यूँ भागीदार बनना मेरी तो समझ से परे है । 

मैं यहाँ टीवी संस्कृति को दोष नहीं देना चाहती क्योंकि हम आमतौर पर अपनी गलतियाँ भी औरों पर मढ़ देने की आदत के शिकार हैं। इन कार्यक्रमों में भाग लेने वाले लोग अपने विवेक से काम क्यों नहीं लेते ? और अगर नहीं लेते तो शायद उसकी भी अपनी वजह है । कभी कभी सोचती हूँ कि इन कार्यक्रमों से जीतने की धनराशी का प्रावधान हटा दिया जाय तो कितने लोग आकर सच कहना चाहेंगें ? मुझे तो यह सच स्वीकारने से ज्यादा जीवन के भेद बेचने का खेल लगता है । 

25 March 2012

गणगौर .....लोकजीवन में बसा नारीत्व का उत्सव

राजस्थान के बारे कहा जाता है यहाँ इतने तीज-त्योंहार  होते हैं कि यहाँ की महिलाओं के हाथों की मेहंदी का रंग कभी फीका नहीं पड़ता । इनमें तीज और गणगौर तो दो ऐसे विशेष पर्व हैं जो महिलाएं ही मनाती हैं ।  गणगौर का त्योंहार होली के दूसरे दिन से प्रारंभ होकर पूरे सलाह दिन तक चलता है ।

शिव गौरी के दाम्पत्य की पूजा का पर्व गणगौर मानो प्रकृति का उत्सव है । माटी की गणगौर बनती हैं और खेतों से दूब और  जल  भरे  कलश  लाकर  उनकी पूजा की जाती है । मुझे यह एक अकेला ऐसा त्यौहार लगता है जब सब सखिया रळ-मिल हर्षित उल्लासित हो माँ गौरी से सुखी और समृद्ध जीवन के लिए प्रार्थना की जाती हैं । 

आज भले ही समय बहुत बदल गया है पर मैंने स्वयं इस त्योंहार  को अपने गाँव में कुछ इस तरह मनाया है कि बहू -बेटियां पूरे हक़ से चाहे जिस खेत में जाकर दूब ला सकतीं थीं । कोई रोक-टोक नहीं होती थी । गीत गातीं , नाचती और देर रात तक बिना किसी भय के गाँव भर में घूमती थीं ।

पीहर से मिली मेरी चुनरी ...जहाँ भी रहूँ साथ रहती है 
गणगौर पूजा के लिए नवविवाहित युवतियां पीहर आती हैं । शायद इसीलिए गणगौर के गीतों में पीहर का प्रेम, माता -पिता के आँगन में बेटी का आल्हादित होना और अपने ससुराल एवं जीवन साथी की प्रीत से जुड़े सारे रंग भरे  हैं । गणगौर पूजा में तो ये लोकगीत ही  मन्त्रों की तरह गाये जाते हैं । पूजा के हर समय और हर परम्परा के लिए गीत बने हुए हैं, भावों की मिठास और मनुहार लिए ।

महिलाएं सज-संवर कर सुहाग चिन्हों को धारण किये हंसी ठिठोली करती हुईं  पूजा के लिए एकत्रित होती हैं । पूजा के समय स्त्रियाँ एक खास तरह की चुनरी भी पहनती है ।

सोलह दिन तक उल्लास और उमंग के साथ चलने वाला यह पारंपरिक पर्व सही मायने में स्त्रीत्व  का उत्सव लगता है मुझे तो । एक महिला के ह्रदय के हर भाव को खुलकर कहने, खुलकर जीने का उत्सव । विवाह  के बाद पहली गणगौर मनाने के लिए  ब्याही बेटियों का पीहर आना और सब कुछ भूलकर फिर से अपनी सखियों संग उल्लास में खो जाना रिश्तों को नया जीवन दे जाता है ।

22 March 2012

धन का आना और मानवीय संवेदनाओं का जाना


जब भी देखा है , सोचा-समझा है, यही पाया है कि धन का आना और मानवीय संवेदनाओं का जाना साथ-साथ ही होता है। बहुत हैरान करती है ये बात कि कल तक जो परिवार स्वयं आर्थिक परेशानियों से जूझ रहे थे, आज थोङा आर्थिक संबल पाते ही मानवीय संवेदनाओं से कोसों दूर हो चले हैं। धन के आने से रहन सहन ही नहीं सोचने समझने का रंग ढंग भी बदल जाता है। आत्मीयता खो जाती है और उनके विचार-व्यवहार में आत्ममुगध्ता न केवल आ जाती है बल्कि चारों ओर छा जाती है । 

यूँ अचानक आये धन के स्वागत सत्कार में जुटे परिवार भले ही स्वयं संवेदनहीन जाते हैं पर उन्हें अपने लिए पूरे समाज से सम्मान और संवेदनशीलता  की अपेक्षा रहती है । इतना ही नहीं अन्य लोगों को लेकर उनकी क्रिया - प्रतिक्रिया बस  नकारात्मक ही रह जाती है । वाणी के माधुर्य से तो मानो कभी परिचय ही न था । इन लोगों के मन यह विचार तो इतना गहरा उतर जाता है कि सगे सम्बन्धी हों या दोस्त, उनसे जो मिलता है उसका अपना कोई स्वार्थ होता है । 

रिश्तों को सहेजने का कर्म तो उसी दिन निभाना बंद कर देते हैं जिस दिन से धन के प्रति समर्पण के भाव मन में आ जाते हैं । फिर ये सामाजिक प्राणी से धनी प्राणी बने लोग रिश्तेदारों को बस उलाहना और नसीहत देने भर का काम करने लगते हैं । इन लोगों की एक विशेषता यह भी है कि इनके लिए मानवीय संबंधों में ऊष्मा और प्रगाढ़ता जैसे अनमोल भावों का कोई मोल नहीं रह जाता । 

तथाकथित आधुनिकता का आना तो ऐसे लोगों के जीवन में मानो आवश्यक ही है,क्योंकि वे पैसेवाले हो गए हैं । फिर चाहे आधुनिकता का कोरा दिखावा और सम्पन्नता की चमक रिश्ते-नातों को हमेशा के लिए फीका क्यों न कर दे । सच ही तो है जब पैसे का पर्दा आँखों पर पड़ता  हो तो भावनाएं कहाँ नज़र आती हैं ?

ऐसे परिवारों की स्वयं को बड़ा समझने से भी ज्यादा औरों को छोटा समझने की  सोच मुझे बहुत तकलीफदेह लगती है । धन हो या बल किसी भी तरह से आपका मान बढ़ा है कोई दूसरा छोटा कैसे हो गया ? यह बात मैं तो आज तक नहीं समझ पाई । पैसा आने से आपके जीवन में क्या बदला यह तो आप स्वयं ही जानें पर आपके पास धन दौलत आ जाने से आप औरों के लिए बदल जाएँ , सामाजिक रूप से  संवेदनहीन हो जाएँ यह कहाँ तक उचित हैं ? 

07 March 2012

महिला सशक्तीकरण...व्यावहारिक बदलाव ज़रूरी



आज हमारे देश में ना तो महिलाओं को सशक्त बनाने वाली सरकारी योजनाओं की कमी है और ना ही स्त्री विमर्श करने वालों की । जो आये दिन यह निष्कर्ष निकालते हैं कि इस विषय में हम कितना आगे बढे हैं ? अब तक क्या पाया है और आगे क्या हासिल करना शेष है ? पर लगता है कि जो कुछ भी हो रहा है वो व्यावहारिक जीवन में , हमारे आसपास के परिवेश में नज़र नहीं आ रहा । 

कुछ योजनायें और लोगों जागरूक करने वाले विज्ञापन समाज में महिलाओं की स्थिति ना तो बदल पाए हैं और ना ही बदल पायेंगें । हाँ , अगर सामाजिक -पारिवारिक और वैचारिक बदलाव आये तो शायद औरतों की समस्याएं कुछ कम हों । साथ ही विचारों के इस परिवर्तन को व्यव्हार में भी लाया जाय । महिलाएं पंच- सरपंच बन भी जाये तो क्या ? अगर उन्हें निर्णय लेने अधिकार ही ना मिले।  या फिर उनके इन अधिकारों पर घर के लोग ही अतिक्रमण कर लें। दुखद है कि हो भी यही रहा है । ऐसे में सरकारी नीतियां कहाँ तक सफल हो पाएंगीं ?  सरकार महिलाओं को हक़ तो दे सकती हैं पर जब तक उनके अपनों की सोच में परिवर्तन नहीं आता उनका चौखट से चौपाल तक आने का सफर आसान नहीं है ।

आज हम एक पढ़ी-लिखी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर महिला को हर तरह से सशक्त और सफल मान लेते हैं । पर क्या महिलाओं के सशक्तीकरण का पक्ष मात्र आर्थिक रूप से सशक्त होना ही है ?  धन उपार्जन तो यूँ भी महिलाएं हमेशा से ही करती आई  हैं । आज भी गाँव में खेती-बाड़ी में महिलाएं पुरुषों से कहीं ज्यादा श्रम करती हैं । जिसके चलते प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अर्थोपार्जन में उनकी भागीदारी है और सदा से ही रही है ।  

दरअसल, हमारे सामाजिक ढांचे में महिलाओं के मुश्किलें बड़ी व्यावहारिक सी हैं । जिनका समाधान सिर्फ आर्थिक आत्मनिर्भरता या प्रशासनिक कार्ययोजनाओं के माध्यम से नहीं ढूँढा जा सकता है ।  इसीलिए महिला सशक्तीकरण कुछ मिटाने या बनाने का नहीं बल्कि अस्मिता और सामाजिक सरोकार का संघर्ष है, सुरक्षित और सम्मानजनक जीवन जीने की लड़ाई है । 

कभी कभी लगता है कि हमारे आस-पास बहुत कुछ बदल तो रहा है पर ये बदलाव सतही ज्यादा हैं । महिलाएं कामकाजी तो बन रही हैं पर सुरक्षित घर लौट आने की गारंटी नहीं है । एक पढ़ी-लिखी माँ भी बेटी को जन्म देने का निर्णय स्वयं नहीं कर सकती । आज हमारे परिवारों और समाज में दोगलापन ज्यादा दिखता है । थोड़ी सोच  समझ बढ़ी तो हमने कथनी और करनी में अंतर करना सीख लिया । यही वजह है कि जो बदलाव आये हैं वे भी पूरी तरह से महिलाओं के पक्ष में ही हों ऐसा नहीं है । इसीलिए वैचारिक बदलाव जब तक हमारे व्यव्हार का हिस्सा नहीं बनेंगें, महिला सशक्तीकरण का नारा बस खेल ही बन कर रह जायेगा ।