आज के दौर में निजता यानि की प्राइवेसी का भी अपना मूल्य है । उस निजता का जो कभी अनमोल हुआ करती थी । तभी तो सच को स्वीकार करने के नाम पर एक आम हिन्दुस्तानी से लेकर जाने माने चहेरों तक, सभी की हिम्मत देखते ही बनती है । इसे मनोरंजन कहिये या स्वयं के जीवन के सारे भेद खोलने के मूल्य का खेल, करना बस इतना है कि आइये और सच को स्वीकारिये । सच, जो आपके अपने जीवन से जुड़ा है । सच ,जिसे आपने अभी तक किसी अपने से भी साझा न किया हो ।
दर्शकों के मनोविज्ञान को भलीभांति समझने वाले टीवी चेनल्स तो ' दर्शक अपने विवेक से काम लें ' इतना कहकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेते हैं । ऐसे में स्वयं दर्शकों को सचमुच विवेक और सजगता से काम लेना चाहिए । क्योंकि इन कार्यक्रमों को बनाने वाले और इनका हिस्सा बनने वाले तो अपने आर्थिक हित साधने में जुटे हैं । तभी तो जो लोग जीवन भर अपनों के सामने मुखौटा पहने रहते हैं वे टीवी के ज़रिये सबके सामने सच बोलने में जुटे हैं ।
हमारी निजता का संरक्षण हमारी जिम्मेदारी भी है और कर्तव्य भी । ऐसे में मनोरंजन के नाम उसका मोल लगाकर परोसने का काम खूब फल फूल रहा है । अपने निजी जीवन को बेपर्दा करने के लिए मानो होड़ सी लगी है । सच कहने के नाम पर अपने ही जीवन के किस्से बेचे जा रहे हैं । ऐसा हो भी क्यों नहीं ? , हर सवाल , हर जवाब और हर हर आंसू का तयशुदा मोल जो मिलता है ।
कहीं रियलिटी टीवी के नाम पर घर के झगड़े सुलझाये जा रहे हैं तो कहीं सच कहने के बहाने ऐसा कुछ कहा जा रहा है जो व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर मात्र बिखराव ही ला रहा है । एक समय था जब आम आदमी से लेकर चर्चित चहरों तक , हर कोई यही चाहता था कि उसके जीवन की निजी बातें लोगो के सामने ना आयें । ऐसे में टीआरपी के लिए रचे जा रहे आडम्बर में आम आदमी का यूँ भागीदार बनना मेरी तो समझ से परे है ।
मैं यहाँ टीवी संस्कृति को दोष नहीं देना चाहती क्योंकि हम आमतौर पर अपनी गलतियाँ भी औरों पर मढ़ देने की आदत के शिकार हैं। इन कार्यक्रमों में भाग लेने वाले लोग अपने विवेक से काम क्यों नहीं लेते ? और अगर नहीं लेते तो शायद उसकी भी अपनी वजह है । कभी कभी सोचती हूँ कि इन कार्यक्रमों से जीतने की धनराशी का प्रावधान हटा दिया जाय तो कितने लोग आकर सच कहना चाहेंगें ? मुझे तो यह सच स्वीकारने से ज्यादा जीवन के भेद बेचने का खेल लगता है ।