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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

25 January 2012

भावनात्मक लगाव या अलगाव ...!

नार्वे में भारतीय मूल के अभिभावकों से उनके बच्चे इसलिए ले लिए गए क्योंकि बच्चों को अपने हाथों से खाना खिलाना और अपने साथ सुलाना , इस देश में बच्चों की उचित देखभाल न होने का मामला है । सात महीने तक अपने माता-पिता से अलग रहने के बाद खबर है कि अब दोनों बच्चों को उनके चाचा को सौंपा जायेगा । 


पश्चिमी देशों में बड़ी संख्या में ऐसे परिवार हैं जो अपने बच्चों को अपने साथ नहीं सुलाते और हाथ से  खाना भी नहीं खिलाते । बच्चों को लेकर बने नियम -कानूनों में बच्चों पर हाथ उठाना, उन्हें मौखिक रूप डराना या ऊंची आवाज़ में बात करना भी गैर कानूनी है । ये यहाँ के कानून भी हैं और सामाजिक- पारिवारिक मानसिकता भी। यहाँ बच्चों की परवरिश भी पूरी तरह औपचारिकता के साथ की जाती है । हमारे देश में तो ऐसे समाचार सबको चौंका देने वाले हैं कि नवजात बच्चों को भी अपने साथ तो क्या अपने कमरों में भी नहीं सुलाया जाता ।

इन देशों की जीवन शैली में एक बात हमेशा से रही है । यहाँ विज्ञान से जुड़ी बातों को ही सब कुछ माना जाता है । मनोवैज्ञानिक स्तर पर कभी भी रिश्तों के बारे में उस तरह से नहीं सोचा जाता जैसा हमारे यहाँ होता है । बच्चों को हाथों से ख़िलाना या साथ सुलाना भी यहाँ विज्ञान से जुड़ा विषय ही है । अनगिनत रिसर्च आये दिन लोगों के सामने लायीं जाती हैं कि क्यों बच्चों को साथ न सुलाया जाय ? बच्चों के लिए को-स्लीपिंग के क्या खतरे हैं ? 

आमतौर पर बच्चों को दूर रखने की जो वजहें दी जाती हैं उनमें कुछ बच्चों के स्वास्थ्य से जुड़े बिंदु हैं और कुछ उनके साथ बिस्तर में हो सकने वाली दुर्घटनाओं का अंदेशा । यहाँ गौर करने की बात यह है कि भारतीय परिवारों से अलग पश्चिमी देशों में रहने वाले लोगों की जीवनशैली भी इन कठोर नियमों के लिए जिम्मेदार है । वहां शराब और सिगरेट का चलन बहुत पहले से और बहुत ज्यादा है, खासकर माताओं में । इसीलिए कई बार नशे की हालत में रात को कुछ माता- पिता होश में ही नहीं रहते और बच्चों पर रोलओवर कर जाते हैं । इस तरह के मामलों में कई नवजात बच्चे साँस घुटने के चलते जान भी गवां बैठे हैं । हर साल वहां ऐसे हादसे होते हैं जिनके आंकड़े स्वास्थ्य विभाग लोगों के सामने रखता है । इसके आलावा निकोटिन के सेवन से पैसिव स्मोकिंग का खतरा भी बना रहता है जिसके चलते डाक्टर्स भी यह सलाह देते हैं कि बच्चों को अपने साथ न सुलाया जाये । इन देशों में बच्चों को अभिभावक अपने साथ सुलाएं या नहीं यह एक बड़ा विवादास्पद मुद्दा है।

इस विषय पर जो भी कारण दिए जाये हैं वे वैज्ञानिक स्तर पर तो सही हो सकते हैं पर किसी भी भारतीय अभिभावक के मन के  लिए तो ये समझ से परे है कि बच्चों के पालन पोषण में औपचारिकता आ जाये । यक़ीनन बच्चों को पालना उन्हें बड़ा करना सिर्फ विज्ञान का नहीं मनोविज्ञान का विषय है । हमारे यहाँ तो आज भी जिस परिवार में छोटा बच्चा होता है, उस घर का हर सदस्य लाइन लगा के खड़ा हो जाता है कि आज ये नन्हा मेहमान किसके साथ सोयेगा , किसके साथ खायेगा...?

भावनात्मक अलगाव को आधार बना इस भारतीय परिवार से बच्चों को दूर कर दिया गया । अब मन में बस यही उहापोह है कि अपने बच्चों को अपने हाथों से खिलाना,अपने साथ सुलाना भावनात्मक लगाव कहा जाये या अलगाव ।


माँ के स्पर्श से बढ़कर एक बच्चे के लिए कोई भावनात्मक सहारा नहीं हो सकता । माँ का साथ बच्चे के मन से असुरक्षा और डर को दूर करता है । रात के समय नीद में भयभीत होने पर माँ के हाथ की हलकी सी  थपकी पाकर ही बच्चे गहरी निश्चिंत नींद सो जाते हैं । बच्चों में बड़े होकर जो सामजिक भाव पनपते हैं उनमें माता-पिता का यह साथ बहुत मायने रखता है जो उन्हें भावनात्मक स्तर पर जोड़े रखता है । ख़ुशी है कि हमारे यहाँ आज भी बच्चों को बड़ा करना महज जिम्मेदारी पूरी करना भर नहीं है । पश्चिमी देशों में स्थिति इससे बिल्कुल उलट है । शायद यही कारण है कि समाज और परिवार के नाम पर इन देशों में मात्र औपचारिक रिश्ते ही बचे हैं ।

20 January 2012

ब्लॉग्गिंग से दूरी के मायने ...!

आज महीने भर बाद अपने ब्लॉग पर आना हुआ है । अपने देश, अपने घर जाकर वापस लौटी हूँ । इस बीच ब्लॉग्गिंग से पूरी तरह दूरी बने रहने के चलते एक ओर जहाँ कुछ खालीपन का लगा वहीँ अपनों का  साथ पाकर मन नयी ऊर्जा से भर गया । हाँ, इस दौरान यह ज़रूर समझ आया की ब्लॉग्गिंग से दूरी के मायने क्या हैं ? क्या है , जो दुनिया के कोने कोने में बैठे लोगों को आपस में जोड़े रखता है ? 


अभिव्यक्ति को नये आयाम देने वाली ब्लोग्गिंग की विधा सच में हमें बहुत कुछ दे रही है ।  ब्लॉग्गिंग से दूर रहकर यह बात अच्छी तरह समझ आ जाती है। सूचनाओं और साहित्य का यह संसार हमारे मन के वैचारिक दृष्टिकोण को प्रवाहमयी बनाये रखता है । अनगिनत जानकारियां मिलती हैं । इससे न केवल हमारे ज्ञान का दायरा बढ़ता है बल्कि ब्लॉगर साथियों के विचारों को ससम्मान स्वीकार करने का भाव पनपता है । मन-मस्तिष्क में उमड़ने वाले विचारों को विस्तृत दृष्टिकोण मिलता है । 


यहाँ तकनीक को समझने- समझाने की बात भी है और अपनी भाषा को समृद्ध करने का प्रयास भी । ब्लॉग्गिंग एक ऐसा मंच है जहाँ कोई अपने गाँव से जुड़ी बातें साझा कर रहा है तो कोई अंतर्राष्ट्रीय ख़बरों का विश्लेषण । सूचनाओं का पिटारा है ब्लॉग्गिंग । जिसके भी ब्लॉग पर जाएँ कुछ जानने सीखने को ज़रूर मिलता है । 


इन दिनों जब भी अख़बार उठाया तो लगा मानो कुछ कमी है । यूँ भी अख़बार के चंद पन्नों में हर किसी को  हर रोज़ उसकी पसंद की सामग्री मिल जाये यह संभव नहीं । ब्लॉग्गिंग की सबसे बड़ी विशेषता यही है की यहाँ सभी को अपनी रूचि के अनुसार पढने लिखने को मिल जाता है । रसोईघर से लेकर राजनीतिक गलियारों तक । आपको जिस विषय में पढ़ना-जानना है कुछ न कुछ ज़रूर मिल जाता है । साथ ही संवाद  भी बना रहता है । आप अपने विचार रखकर अपना दृष्टिकोण भी आसानी से व्यक्त कर सकते हैं । एक और बात जो ब्लॉग्गिंग को विशेष बनाती  है वो यह की आज भी इसमें व्यावसायिकता और औपचरिकता ने सेंध नहीं लगाई है । मन जो कहना चाह रहा है, कहा जा रहा है । 


चाहे बात स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारियां देने की हो या वैज्ञानिक जागरूकता लाने की  , हर तरह ब्लोग्स आज पढ़े और लिखे जा रहे हैं । सामजिक मूल्यों और राजनीतिक उठापठक का विश्लेषण भी खूब किया जा रहा है । मुझे खुद कई बार लगता है की ब्लॉग्गिंग के ज़रिये  कई सारी जानकारियां मिल जाती हैं और काम भी आती हैं । 


समसामयिक विचारों के साथ ही कई बार ब्लोग्स पर जाने माने साहित्यकारों की रचनाएँ भी पढ़ने को मिल जाती हैं । जिन्हें ब्लॉगर साथी अपने ब्लोग्ग्स पर साझा करते रहते हैं । ब्लॉग्गिंग में हमारी हिंदी भाषा भी  समृद्ध बन रही है । यहाँ गद्य भी निखर रहा है और पद्य भी । संचार जगत की इस नयी विधा ने हम सबको अभिव्यक्ति का एक ऐसा मंच  दिया है जो लोकल भी है और ग्लोबल भी। यक़ीनन ब्लॉग्गिंग को व्यक्तिगत रूप से कोई जितना देता है उसका हिस्सा बनकर उससे कहीं अधिक पाता है ।