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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

20 July 2012

महिलाओं की अस्मिता पर चोट हमारी पूरी सामाजिक-पारिवारिक और प्रशासनिक व्यवस्था की विफलता है

गुवाहाटी में एक छात्रा के साथ सडक़ पर हुई शर्मसार करने वाली बेहूदगी भरी छेडख़ानी और बागपत में महिलाओं के लिए घर से ना निकलने का फरमान । दोनों घटनाएं एक साथ ही हुई और फिर सामने ले आईं हमारे समाज का वही वीभत्स चेहरा । ये दोनों समाचार यूं तो अलग-अलग हैं पर इनके मायने कहीं ना कहीं एक से ही हैं। ऐसा लगता है मानो एक कारण है तो दूसरा परिणाम। दुखद बात यह है कि कारण और परिणाम दोनों ही महिलाओं के जीवन के लिये दंश  हैं। गुवाहाटी में जहां ग्यारहवीं  कक्षा की एक छात्रा के साथ कुछ लडक़ों ने भरी सडक़ पर बेशर्मी के साथ बेहूदगी की वहीं बागपत में पंचायत ने यह फरमान सुनाया कि चालीस साल से कम उम्र की महिलाएं बाज़ार नहीं जा सकतीं और महिलाओं को फोन इस्तेमाल करने की भी इज़ाजत नहीं होगी। एक घटना हमारे समाज में मौजूद कुत्सित मानसिकता की बानगी है जिसमें एक असहाय अकेली लडक़ी की अस्मत से भीड़ भरी सडक़ पर खिलवाड़ करने की बेशर्मी होती है तो दूसरी में महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर बंदिशों का ताला जडऩे की कवायद की जाती है। 

घर हो, सडक़ हो, कार्यस्थल या फिर स्कूल ।  कहने को देश की आधी आबादी पर ऐसा लगता है मानो उनकी सुरक्षा का जिम्मा किसी का नहीं। ना प्रशासन सेक्यूरिटी दे पा रहा है और ना ही परिवार गारंटी। अगर अनहोनी हो आए तो कोई घर से कब और कैसे निकलें या ना निकलें यह सलाह देता है, तो कोई उल्टे महिलाओं के ही चरित्र और पहनावे को निशाना बनाता है। तभी तो भरी सडक़ पर सैकड़ों लागों की मौजूदगी में कुछ गिनती के मनचले एक लडक़ी से छेड़छाड़ करते हैं, उसे घसीटते हैं और उसके कपड़े तक फाड़ देते हैं। सवाल ये कि वहां खड़े तमाम लोग अगर इतनी संख्या में मौजूद होकर भी इन गिनती के हैवानों का विरोध नहीं कर पाये अपने घर की बहू-बेटियों को भी क्या बचा पायेंगें ? शायद नहीं, तभी तो हर बार यही तर्क दिया जाता है कि महिलाओं को सुरक्षित रहना है तो वे अपने घर की देहरी तक ही सिमट जाएं। इसीलिए अक्सर ऐसे तुगलकी फरमान आते रहते हैं जैसे बागपत जिले से आए हैं। ऐसे में सवाल यह है कि क्या हमारे देश में औरतें अपने घरों में भी सुरक्षित हैं? जो देश घरेलू हिंसा के आँकड़ों में अव्वल है। जहां बेटियां कूड़ेदानों में मिलती हैं । जहां मासूम बच्चियों के यौन शोषण के मामलों में अधिकतर परिजन ही दोषी पाये जाते हैं। वहां क्या घर और क्या बाहर । हर जगह औरतों की सुरक्षा एक सवाल बनकर ही रह गयी है। 

समाज में होने वाली ऐसी बर्बर और घिनौनी घटनाओं के लिए महिलाओं या लड़कियों पर बंदिशें लगाने के बजाय हमारे समाज में बेटों को संस्कारित करने की बात क्यों  नहीं की जाती? क्यों नहीं उनपर भी कुछ बंदिशें लगाईं जातीं ताकि महिलाएं तो घर के बाहर निकल सकें पर विक्षिप्त मानसिकता वाले ये मनचले घर के भीतर ही बैंठें। गौरतलब है कि गुवाहाटी में भी जिन लडक़ों ने इस छात्रा से बदसलूकी की है वे सभी पढे लिखे हैं । उनका वहशीपन बता रहा है कि उन्हें संस्कार देते समय इंसानियत का पाठ तो शायद पढाया ही नहीं गया। यूं भी हमारे परिवारों में संस्कार और समझ की सारी जिम्मेदारी शुरू से ही बेटियों की झोली में डाल दी जाती है। जरा सोचिए कि किसी लडक़ी के साथ यूं पेश आने वाले लोग कोई अनपढ-गंवार नहीं है। अच्छे खासे पढे लिखे और नौकरीशुदा इंसान हैं। इनके द्वारा किया गया यह व्यवहार हमारी पूरी सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था पर ही सवाल उठाता है। यूं सरेराह हैवानियत का तांडव करने वाले इन लोगों को सबक मिले, बंदिशें लगें तो शायद आगे भी लोग सोच समझकर ही किसी महिला की अस्मत पर हाथ डालें। पिछले कुछ बरसों में छेड़छाड़ की घटनाओं में बड़े शहरों से लेकर कस्बों तक तेजी से इजाफा हुआ है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि आज भी ऐसे दुराचारियों का कोई सख्त सजा नहीं दी जाती। समाज से लेकर पुलिस प्रशासन तक ऐसे मामलों में एक ऐसी आचार संहिता की बात करने लगते हैं। जो केवल महिलाओं पर ही लागू होती है। 


इस तरह की घटनाएं आने वाले समय में महिलाओं के व्यवहार को प्रभावित करेंगीं । उनके व्यवहार को भी नकारात्मक दिशा मिलेगी ।  कोई हैरानी की बात नहीं होगी कि खुद को बचाने के लिए औरतों का व्यवहार भी कू्ररतापूर्ण हो जाए। यूं भी समाज किसी असहाय महिला की कितनी मदद कर सकता है ये तो आए दिन होने वाली इन शर्मनाक घटनाओं में हमारे सामने आता ही रहता है। फिर नागपुर जैसी घटनाएं होंगीं जब कुछ महिलाओं ने मिलकर छेड़छाड़ करने वाले एक आदमी की सरेआम जान ले ली थी। नारी के सम्मान को अगर इस हद तक ठेस पहुचेगी तो उसे भी शायद भविष्य में हथियार उठाने ही पड़ जाएं अपनी सुरक्षा के लिए। यह हम सबको आज ही सोचना है कि तब समाज का चेहरा कितना विद्रूप हो जायेगा जब महिलाएं भी हिंसक व्यवहार पर उतारू हो जायेंगी। गुवाहाटी में दरिंदगी  का शिकार हुई लडक़ी का कहना है कि वो रोती रही गिडगिड़ाती रही पर उन हैवानों ने उसकी एक ना सुनी और उसके बदसलूकी करते रहे । ऐसे में यह समझना किसी के लिए भी मुश्किल ना होगा कि खुद को बचाने के लिए कोई लडक़ी कभी ना कभी खुद भी क्रूर  व्यवहार पर उतर ही आयेगी। इन हालातों में तो वो दिन आने ही हैं जब महिलाएं स्वयं ही ऐसे दुराचारियों का सबक सिखाने की ठान लेंगीं।  

आये दिन ऐसी घटनाएँ होती हैं  जो महिलाओं की अस्मिता पर गहरी चोट करती  हैं  । इनसे महिलाओं को  शारीरिक ही नहीं मानसिक प्रताडऩा भी मिलती है । घर हो या बाहर उनके साथ होने वाला ऐसा व्यवहार उनके  पूरे मनोविज्ञान और व्यक्तित्व को ना केवल प्रभावित करता है बल्कि बदलकर ही रख देता है। कितनी लड़कियां तो छेड़छाड़ से परेशान होकर आत्महत्या तक कर लेती हैं। कईयों की पढाई बीच में ही छूट जाती है। हमारे घर-परिवारों में बिना किसी गलती के ही उनपर बंदिशें लगा दी जाती हैं। ये बंदिशें लगाई तो बहू-बेटियों की सुरक्षा के नाम पर जाती हैं पर असल में यह हमारी पूरी सामाजिक-पारिवारिक और प्रशासनिक व्यवस्था की विफलता है। अफसोसजनक ही है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की नागरिक होने के नाते सभी संवैधानिक अधिकार पाने के बावजूद भारत में महिलाएं एक इंसान के तौर पर यहां आज भी परतंत्र हैं। 

69 comments:

केवल राम said...

विचारोतेजक लेख ......महिलाओं की सुरक्षा पर सिर्फ राग अलापे जाते हैं ..प्रबंध नहीं किये जाते ....और यकीन मानिए जिन्हें हम कहते हैं न कि यह क़ानून के रखवाले हैं है ....उनकी नजरों में ही नारी की कोई अहमियत नहीं ..अगर ऐसा होता तो आये दिन इन पर बलात्कार के आरोप नहीं लगते ...देश में यह हालात पैदा नहीं होते .....!

वाणी गीत said...

मैं भी यही मानती हूँ कि स्त्रियों को ढकने या उघाड़ने की सीख देने की बजाय पुरुषों को संस्कारित करने की आवश्यकता अधिक है . इसके अलावा सुरक्षा व्यवस्था और कानून का भय भी ज़रूरी है !

vijai Rajbali Mathur said...

यों तो शीर्षक मे ही उत्तर भी छिपा है परंतु मैं समझता हूँ कि यदि इसमे 'पाखंडी-ढ़ोंगी धर्म' को भी जोड़ दिया जाये तो समाधान स्थाई हो सकता है। महा भारत काल के बाद से 'धर्म=सत्य,अहिंसा (मानसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य'का तीव्रता से ह्रास हुआ है और उसके स्थान पर पोंगा-पंडितों जो कुरीतियाँ धर्म की आड़ मे थोप दी हैं वे ही 'सामाजिक-पारिवारिक-प्रशासनिक' दुर्व्यवस्था हेतु उत्तरदाई हैं और उनके कारण ही 'कुत्सित घटनाएँ' यत्र-तत्र समय-समय पर होती रहती हैं। 'प्राथमिक पाठशाला'=परिवारों मे संस्कार दिये ही नहीं जाते बच्चों को जन्मते ही स्कूल भेजने की आपा-धापी शुरू हो जाती है फिर दूसरों को ही दोष क्यों?प्रत्येक परिवार को 'नैतिकता' का बीड़ा उठाना होगा तब जाकर हल निकलेगा।

संतोष त्रिवेदी said...

सभ्य-समाज पर कलंक हैं ऐसी घटनाएँ !

रचना said...

अच्छा लग रहा हैं की ब्लॉग जगत की महिला सब अब एक सुर से बेटो को संस्कारित करने की बात कर रही हैं . नारी ब्लॉग पर २००८ से हमने बराबरी की यही मुहीम चला रखी
आलेख अच्छा लगा

Amrita Tanmay said...

अभी टी.वी.पर महिलाओं के लिए आचार संहिता वाला एपिसोड चल रहा है..कि कैसे रहना चाहिए..

संध्या शर्मा said...

"इस तरह की घटनाएं आने वाले समय में महिलाओं के व्यवहार को प्रभावित करेंगीं । उनके व्यवहार को भी नकारात्मक दिशा मिलेगी । कोई हैरानी की बात नहीं होगी कि खुद को बचाने के लिए औरतों का व्यवहार भी कू्रतापूर्ण हो जाए। "
जी आप बिलकुल सही कह रहे हैं, नागपुर में हुई घटना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है, और क्यों न हो जब इतनी भीड़ चंद वहशियों को कुकृत्य करते देखती रहती है, कुछ नहीं कर सकती तो ऐसा होना लाज़मी है. समाज को बेटों की नैतिक और सामाजिक शिक्षा पर ध्यान देना ही होगा, उन्हें संस्कारित करना भी समाज और परिवार का धर्म है, संस्कारों का ठेका सिर्फ बेटियों का नहीं है... सार्थक आलेख

Bhawna Kukreti said...

SCH ME KABHI KABHI YAHI MAN ME AATA HAI KI AISE KAAM KARNE VAALON KO KHUD SE DANDIT KIYA JAAY.MAGAR VO STHAYI HAL NAHIN HAI,BETON KO HI SANSKAAR SIKHANE HONGE,SANSKAAAR KEVAL BETIYON KE LIYE HI NAHIN HOTE.

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

परिवार के साथ समाज का भी दायित्व बनता है बच्चों को संस्कार देने का। मनुष्य और पशु दोनों की जन्मने की प्रक्रिया एक जैसी ही है। कहा गया है "संस्कारात द्विज उच्यते।" संस्कार मिलने पर ही मानव, पशु से मनुष्य बनता है। इस प्रक्रिया को उसका दुसरा जन्म भी कहा गया है।

इसलिए माता-पिता और समाज का कर्तव्य है कि वह संसार को अच्छा नागरिक दे।

ANULATA RAJ NAIR said...

सशक्त लेखन मोनिका जी....
इंतज़ार है सदियों से....जब महिलाओं की स्थिति में सुधार होगा....जब उन्हें वास्तव में इज्ज़त दी जायेगी.
ऐसी घटनाएं झकझोर देती हैं....फिर दोबारा हो जाते हैं...फिर झकझोर देने को.....
दुखद है...

सादर
अनु

प्रतुल वशिष्ठ said...

दुखद बात यह है कि कारण और परिणाम दोनों महिलाओं के जीवन के लिए दंश के लिए हैं।
@ .... जीवन के लिये दंश हैं. [सुधार करें.]

प्रतुल वशिष्ठ said...

@ मुझे लगता है.... जनता में अपराध करने का साहस/दुस्साहस 'शासन' में बैठे लोगों को देखकर करता है... जब कुर्सियों पर ही वैसे लोग बैठे हों जो दुराचारों में लिप्त हों... तब छेड़छाड़ और चरित्रहनन जैसे कृत्यों पर कैसा खौफ? सत्ता में बैठे लोग ऐसे मसलों पर गंभीर नहीं हैं. हर व्यक्ति जब तक अपने लिये छूट की हिमायत करता रहेगा और उसके लिये अपनी शक्ति (संविधान से मिली) का दुरुपयोग करेगा, तब तक हालात संभलने वाले नहीं...
- स्त्री पहनावे में व सामाजिक आचरण में अनैतिक छूट चाहती है.
- पुरुष भी कुछ हद तक ऐसा चाहता है, और
- सत्ता में काबिज लोग तो छूट की हद चाहते हैं. ............. तो कैसे संभलें हालात?

प्रतुल वशिष्ठ said...

@ काफी दिनों से सोच रहा हूँ इस मसले पर... तरह-तरह के विचार आ-जा रहे हैं. अभयदान मिले तो हर दृष्टि से सोचना चाहता हूँ...

प्रतुल वशिष्ठ said...

@ काफी दिनों से सोच रहा हूँ इस मसले पर... तरह-तरह के विचार आ-जा रहे हैं. अभयदान मिले तो हर दृष्टि से सोचना चाहता हूँ...

- पहले मैंने उनपर सोचा, जिनके साथ ऐसा नहीं होता? क्या पूरी ढकी महिलाओं के साथ ऐसा होता है..यानी 'बुरके में ढकी' या पूरे वस्त्र पहनी.... यदि हाँ, तो वह कितना प्रतिशत है? और उनके साथ कौन-कौन-से दुराचार हो रहे हैं? क्या जिस परिवार में सभी हों ... यानी माँ-पिता, दादा-दादी, चाचा-चाची, बेटा-बेटी, बहन-भाई... क्या सभी एक-दूसरे का ध्यान नहीं रखते... ध्यान रखने के नाम पर वे परस्पर एक-दूसरे को अच्छा-बुरा समझाते रहते हैं... टीका-टिप्पणी भी करते हैं? .... संयुक्त परिवार में तो ये सब संभव है, लेकिन एकल परिवार और बिखरे हुए परिवारों वाले समाज में व्यवस्था कैसी हो? सोचे जा रहा हूँ.. आखिर कौन रखे एक-दूसरे का ध्यान, कौन करे एक-दूसरे पर समझाइश वाली टीका-टिप्पणी?

सदा said...

आपकी बात से पूर्णत: सहमत हूँ .. सार्थकता लिए सशक्‍त लेखन ...आभार

प्रतुल वशिष्ठ said...

आज समाज ऐसा बन गया है जिसमें व्यक्ति अपने तक सिमटा हुआ है... उसे समाज से कोई सरोकार नहीं... वह उपभोक्ता एक रूप में सभी कुछ पा लेता है.. जानकारी के लिये भी उसे गुरु की नहीं मात्र एक बहु-चैनल वाले टीवी की जरूरत होती है.. और इंटरनेट की भी.. वह जैसा सुनना, देखना और सोचना चाहता है उसे मिल भी जाताहै.... वह अपने लिये समाज के सभी अंकुशों को समाप्त करने की चाहना किये है... वह कोई दबाव, और कोई अंकुश बर्दाश्त नहीं करना चाहता.

माना कि ...

आज एक महिला जो अलग जीवन बिता रही है... वह अपने विचारों को अंतिम सत्य और अपनी सोच को पूर्णतया सही ठहराती रही है.. उससे यदि 'मर्यादा' की बात की जाये तो वह पलटकर कहती है कि 'आप कौन होते हैं? हमें मर्यादा और आचार-सहिंता पर उपदेश देने वाले?' प्रतिक्रियावश ... तभी मेरे मन में प्रश्न उठता है ... "कौन होता है मनु, जिसने सामाजिक वर्ण-व्यवस्था का आधार लेकर 'सभ्य समाज के लिये पहली आचार-सहिंता बनायी?" "कौन होता है अम्बेडकर, जिसने भारत के संविधान को अंतिम रूप दिया? कौन होते हैं वे सभी विद्वान् जो अपराधों पर दंड-विधान लागू करते हैं?" "कौन होते हैं जीवन में सौलह संस्कारों का निर्धारण करने वाले?" ........... यदि हमने एक-दूसरे की आपत्तियों को सही नज़रिए से नहीं समझा तो स्थिति अधिक बिगड़ेगी.. सुधरने वाली नहीं.

मेरा मन पंछी सा said...

बहुत दुखद घटना है यह सब...
सिर्फ इतना ही कहना है शुरुवात घर से करे
अपने भाई ,बेटो को संस्कार दे ,,दोस्तों से इस बात की गंभीरता पर चर्चा करे. क्यूंकि ये कुकर्मी कोई आसमान से नहीं आये है..
हमी में से एक है ....

प्रतुल वशिष्ठ said...

@ डॉ. मोनिका जी, जब पढ़े-लिखे लोग ऎसी घटना को अंजाम देते हैं... और उसका क्लिप भी मुहैया होता है... सिलसिलेवार रूप से घटनाएं घटित होती हैं... तब अनायास एक 'संदेह' भी जन्म लेता है.

- वहशीपन करने वाले युवा ..... पढ़े लिखे थे.

- मीडिया मौजूद था... एक पत्रकार के रूप में.

- लड़की का इस घटना के बाद क्या रवैया रहा.... इस पर नज़र रहनी चाहिए.

- महिला आयोग और क्षेत्रीय प्रशासन ने कितनी संवेदनशीलता इस मसाले पर दिखायी... क्योंकि आज़ सत्ता पक्ष की ओर से बहुतेरे प्रयास ऐसे किये जा रहे हैं जिनपर आपको सहजता से विश्वास नहीं होता.... संक्षेप में कहना सही रहेगा... 'हमारे छिद्र न देखो.. हमारे फटों में टांग न उलझाओ, बस अपने फटों में उलझे रहो'. "कहीं जितनी भी क्लिप वाली घटनाएं हैं प्रायोजित तो नहीं?"


- बड़े स्तर जितने भी दुष्कर्म हो रहे हैं... उनपर परदा तभी तक पड़ा रहेगा जब तक जनता और जागरुक बुद्धिजीवी अपने ही फटों में उलझे रहेंगे.

प्रतुल वशिष्ठ said...

इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि आज भी ऐसे दुराचारियों का कोई सख्त सजा नहीं दी जाती। समाज से लेकर पुलिस प्रशासन तक ऐसे मामलों में एक ऐसी आचार संहिता की बात करने लगते हैं। जो केवल महिलाओं पर ही लागू होती है।

@ इन्हीं सबसे संदेह पैदा होते हैं... और हर घटना 'नाटक' लगती है... हर घटना पर एक संदेह होने लगा है "कहीं ये प्रायोजित तो नहीं, किसी उद्देश्य की पूर्ति को?

प्रवीण पाण्डेय said...

हर व्यक्ति को अपना हृदय टटोलने की आवश्यकता है..

ashish said...

समाज के आधे हिस्से की अस्मिता पर अगर प्रश्नचिन्ह लगा रहेगा तो समतामूलक और सर्व जन हिताय की बातें केवल गप्पे ही है .

पी.एस .भाकुनी said...

काश ! की कोई खाप पंचायत फरमान (कथित बंदिशें ) जारी करने की बजाय यह निर्णय लेती की इस प्रकार की घटनाओं को अंजाम देने वालों को स्वयं पंचायत कठोर से कठोर दंड देगी......अथवा ऐसी शर्मनाक घटनाओं को रोकने के लिए खाप पंचायतें स्वयं आगे आते. क्योंकि ऐसे सामूहिक अपराधों का विरोध करने वाले इक्का-दुक्का व्यक्तियों को न तो हमारा समाज सुरक्षा प्रदान कर पाता है और न ही हमारी पुलिस अथवा प्रशासन अतएव सामूहिक अपराधों का विरोध भी सामूहिक रूप से ही बेहतर हो सकता है ......
उपरोक्त चिन्तंयोग्य आलेख हेतु आभार.

Kailash Sharma said...

बहुत सारगर्भित और विचारोत्तेजक आलेख...महिला सुरक्षा के लिये केवल कानून बनाने से काम नहीं चलेगा. हमें समाज की मानसिकता में परिवर्तन की आवश्यकता है.

Arvind Mishra said...

ऐसे घटनाएं हमें स्तब्ध करती हैं मगर हमें यथार्थ को भी पहचानना होगा -
इन दोनों घटनाओं में अतिवादियों का नंगा नाच हुआ है -
सबसे बड़ी बात जबतक हम अपने ऐच्छिक समाज की स्थापना पूर्णतया नहीं कर लेते
अपनी सुरक्षा की न्यूनतम सावधानियां बरतनी होगी ...
एक बार में और कैसे लोगों की कल्पना की जा सकती है ?

Shikha Kaushik said...

ये बंदिशें लगाई तो बहू-बेटियों की सुरक्षा के नाम पर जाती हैं पर असल में यह हमारी पूरी सामाजिक-पारिवारिक और प्रशासनिक व्यवस्था की विफलता है-
bilkul sahi kaha hai aapne .aapse sahmat hun .गुवाहाटी में पत्रकार गिरफ्तार..वाह रे पत्रकार ...

Anonymous said...

ज़बरदस्त लेख है.....इस लेख में भारतीय समाज का नंगा यतार्थ है.....समाधान यही है की मानसिकता को बचपन से ही बदला जाये घर में से ही बेटी और बेटों में फर्क करना बंद हो तो उनमे एक दूसरे के प्रति सम्मान पैदा हो सके.....इस सटीक आलेख पर आभार आपका।

रश्मि प्रभा... said...

यही होता है , होता रहेगा - जाने कब तक

Maheshwari kaneri said...

बहुत दुखद घटना है ....विकास के इस युग में भी स्त्रियों के साथ ऐसा क्यों..? बहुत अच्छा मुद्दा उठाया है .मोनिका जी ..

VIJAY KUMAR VERMA said...

बेहतरीन प्रस्‍तुति।

VIJAY KUMAR VERMA said...

बेहतरीन प्रस्‍तुति।

ऋता शेखर 'मधु' said...

महिलाओं की अस्मिता पर चोट हमारी पूरी सामाजिक-पारिवारिक और प्रशासनिक व्यवस्था की विफलता है--

सटीक और सामयिक आलेख !!

अशोक सलूजा said...

अफ़सोसनाक और शर्मनाक ...

समय चक्र said...

apke vicharon se sahamat hun ...bahut sahi likha hai...abhaar

amit kumar srivastava said...

कब होगा इसका अंत |

Ramakant Singh said...

भले लगते हैं लिखे पन्नों पर
नारी का अधिकार
पुरुष का अहंकार

badi dukhad ghatana jise sunakar hi sharm aati hai.

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

सारगर्भित और विचारोत्तेजक सुंदर आलेख...

महिला सुरक्षा कानून बनाने से समाज की मानसिकता में परिवर्तन होना तो मुश्किल है,हमे स्वयं में सुधार
लाना होगा,अपने समाजिक स्तर में ऐसे लोगो को बहिस्कृत किया जाय,,,,

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सार्थक आवाज़ उठाई है .... पी एस भाकुनी जी की टिप्पणी से सहमत हूँ ... एक सही दिशा दे सकती हैं पंचायतें लेकिन वो भी स्त्रियॉं पर ही बंदिश लगा रही हैं ॥

कुमार राधारमण said...

बढ़ते शहरीकरण और टूटते परिवारों के बीच एक ऐसा उद्दंड वर्ग हमारे बीच आया है जिसमें से कुछ के पास बिना श्रम के ही अबाध पैसा आ गया है और कुछ के लिए समाज,मूल्य,नैतिकता आदि का कोई मतलब नहीं रह गया है। चूंकि अब इससे जुड़ी समस्याएं एक हद को पार कर गई हैं,लिहाजा संबंधित व्यवस्थाएं तो ठीक होनी ही चाहिए,स्वयं महिलाओं के लिए भी यह आत्ममंथन का वक्त है।

virendra sharma said...

डॉ मोनिका जी रास्ता समाज के अन्दर से ही निकलता है .नागपुर और घटें एक नजीर तो आम हो .कृपया "तुगलकी " और " दरिंदगी "शुद्ध रूप लिख लें.नेज़ल (अनुनासिक )शब्दों अक्षरों का भी ध्यान रखें "जिसमें "लिखें "जिसमे "नहीं .अंग्रेजी में लिखें "jismen "तो होगा जिसमें और लिखिएगा jisme to होगा "जिसमे ".शुक्रिया .बढ़िया मुद्दा उठाया है आपने जो भारत के सन्दर्भ में सार्वकालिक ही कहा जाएगा .

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

हां यही एक प्रश्न है कि ऐसी मानसिकता का अंत कहा हो जहां वेह्शीपण है..असुरक्षा है महिलाओं की.... बस एक ही उत्तर है इसका ...लड़के लड़कियों ... मतलब बच्चों के प्रति माँ बाप का सही कर्तव्य निर्वाह ... बच्चों चाहे वह लड़का हो या लड़की दोनों को नैतिकटा मानवता के मार्ग पर चलना सिखाएं ... अच्छे संस्कार बोयें उनकी आत्मा में.... हमारा हम् सब का समाज सुरक्षित होगा...

रचना दीक्षित said...

गुवाहाटी का अब जो रूप निकल कर आ रहा है बह मीडिया पर भी प्रश्नचिन्ह लगा रहा है. क्या हम एक चटपटी खबर बनाने के लिये एक मासूम लड़की को सड़क पर निर्वस्त्र भी कर सकता है.

काश हम अपने मूल्यों को पहचाने.

दिगम्बर नासवा said...

प्रभावी ... विचारोतेजक लेख ... ये सच है पिछले ६०-६२ सालों में देश में कोई काम नहीं हुवा हालात सुधारने के नाम पे खराब ज्यादा हुवे हैं ... मोरल शिक्षा जो की अनिवार्य होनी चाहिए स्कूल से घरों से ... उसको खतम किया गया है ... क़ानून पे भरोसा न के बराबर रह गया है ...

bkaskar bhumi said...

मोनिका शर्मा जी नमस्कार...
आपके ब्लॉग 'परवाज...शब्दों के पंख'से लेख भास्कर भूमि में प्रकाशित किए जा रहे है। आज 22 जुलाई 'बंदिशों का ताला जडऩे की कवायद' शिर्षक के लेख को प्रकाशित किया गया है। इसे पढऩे के लिए bhaskarbhumi.com में जाकर ई पेपर में पेज नं. 8 ब्लॉगरी में देख सकते है।
धन्यवाद फीचर प्रभारी
नीति श्रीवास्तव

S.N SHUKLA said...

बेटी और बेटों में फर्क करना बंद हो ...सटीक आलेख पर आभार

mark rai said...

is samay ...mahilaon ke upar hinsa badh gayi hai....aisa lagta hai aadhunik education ne hame kuch sikhaya nahi.....

संगीता पुरी said...

अफसोसजनक ही है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की नागरिक होने के नाते सभी संवैधानिक अधिकार पाने के बावजूद भारत में महिलाएं एक इंसान के तौर पर यहां आज भी परतंत्र हैं।
बहुत सटीक लिखा ..

बढिया लेख !!

rashmi ravija said...

बिलकुल अब समय आ गया है कि छेडछाड की इन घटनाओं को गंभीरता से लिया जाए और भविष्य में ऐसी घटनाएं ना हों..इसके लिए आवश्यक कदम उठाये जाएँ.
बहुत ही सार्थक आलेख .

Pallavi saxena said...

जहां तक मेरी समझ कहती है मेरे हिसाब से तो अब जैसे को तैसा वाली कहावत को सिद्ध कर दिखाने का समय आगया है महिलाओं के लिए बहुत हो गयी कानून और सरकार से अपने लिए सुरक्षा और एक सभ्य एवं सुरक्षित समाज कि गुहार अब तो तभी कुछ होगा जब ऐसा करने वालों को भी मौका ए-वारदात पर वैसा ही दंड तुरंत मिले ताकि उनको भी उस पीड़ा का एहसास हो सके जो उन्होंने स्वयं किसी और को दिया।

Sniel Shekhar said...

A woman is like a tea bag – you never know how strong she is until she gets in hot water. – Eleanor Roosevelt.

Sniel Shekhar said...

Nicely written.. Congratulations

virendra sharma said...

भारत में तो सेहत के भी हाशिये पर पड़ी है औरत जबकि सेहत से ही जुडी है उसके सौन्दर्य की नव्ज़ .उसकी तो नींद भी अपनी नहीं है थकी मांदी औरत परिवार को भी अपना सर्वोत्तम नहीं दे पाती .कमसे कम उसकी नींद पर तो डाका न डाला जाए .लेकिन ये सब भारत के सन्दर्भ में बारीक बातें हैं इतिहास साक्षी है उसने बारहा चंडी और काली बनके ही नर पिशाचों का दमन किया है रिपु दमन है नारी उसे संगठित हो एक टुकड़ी हर छोटे बड़े शहर में बनानी होगी .बलात्कारियों के घर के बाहर प्रदर्शन करना होगा .ईव्ज़ टीज़र्स को भी इसका मतलब समझाना होगा .

निर्मला कपिला said...

सही बात है।

Anonymous said...

thought provoking bitter truth

Dr.NISHA MAHARANA said...

puri tarah sahmat....

Asha Joglekar said...

कोई और नही आयेगा मदद के लिये हर लडकी को सक्षम बनना होगा और जूडो कराटे और प्रतीकारात्मक व्यायाम का प्रशिक्षण लेना होगा इसके लिये महिलायें चाहे स्कूल क़लेज में हो या घर में आगे आयों ।

Arshia Ali said...

100 प्रतिशत सहमति।

............
International Bloggers Conference!

Suresh kumar said...

Hame apne ghar se hi shuruaat karni chahiye orto or ladkiyo ko to sada samjhate or n jaane kaisi -kaisi pabndiya lagate aaye hain ham. Ab boys ko bhi samjhana chahiye ki ye galt baat hai or saza bhi kuch sakhat honi chahiye..

sm said...

भारत में महिलाएं एक इंसान के तौर पर यहां आज भी परतंत्र हैं।
agree with you
nice article

virendra sharma said...

अब तो यह समस्या भारतीय समाज का एक और कैंसर बनती जा रही है महिलाओं को सुरक्षा कवच कैसे मुहैया करवाया जाए माँ के कथित सपूतों से माँ बाप के तारण हारों से ?

डॉ. जेन्नी शबनम said...

बिल्कुल सही कहा कि ...''विक्षिप्त मानसिकता वाले ये मनचले घर के भीतर ही बैंठें।'' औरतों पर सारी पाबंदिया, सारे संस्कार भी औरतों के लिए, अगर कोई घटना हो जाए तो दोष भी स्त्री का. औरतों के साथ ऐसी दुर्घटनाएं हो रही हैं और ये करने वाला भी किसी न किसी औरत का बेटा है. आखिर कमी तो पालन पोषण में है और हमारे देश के कानून में. कठोर कदम जब तक न उठाए जायेंगे ऐसी घटनाएं नहीं रुकेंगी.

ताऊ रामपुरिया said...

पता नही हम कब बदलेंगे? चहुंओर कहीं ना कहीं ये सब घटित हो रहा है. कानून अधिकार यह सब कागजी बातें दिखाई देती हैं, जरूरत एक सामाजिक दबाव और बदलाव की है.

रामराम.

Coral said...

सच मे अफ़सोस है की भारत मे महिलाये आज भी स्वतंत्र नहीं है !

जयकृष्ण राय तुषार said...

बहुत ही विचारपूर्ण लेख |आभार
गोपालदास नीरज को समय मिले तो पढ़िए -
www.sunaharikalamse.blogspot.com

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" said...

sabhee ko atm chintan karne kee jarurat hai...ek majboot samajik dhancha hee roktham ka kargar upay hai...aapka lekh atam ko jhakjhorkar sochne ke liye prerit karta hai..sadar badhayee ke sath

डॉ. मोनिका शर्मा said...

@ प्रतुलजी
सुधार कर लिया है.... आभार

यक़ीनन सत्तासीन लोगों से लेकर आम इन्सान तक सभी को अनैतिक छूट चाहिए, परिणाम हम देख ही रहे हैं | आगे जो होने वाला है उसका अनुमान लगाना भी मुश्किल नहीं है .....

हम पारिवारिक और सामाजिक रूप से बिखर गए हैं यही जड़ है इन मुसीबतों की , इसमें कई शक नहीं की अब न बेटियों को सीख देने वाला कोई है और न ही बेटों को.... महिलाएं भी सजग रहें और पुरुष भी मर्यादित व्यवहार करें यही हल है इन घटनाओं के लिए .....हमें एक दूसरे की आपत्तियों और विचारों को समझना और सम्मान देना सीखना ही होगा , सहमत हूँ आपसे

आपको अभयदान की क्या आवश्यकता ..? किसी भी विषय पर दिए आपके विचार सदैव एक वैचारिक पृष्ठभूमि तैयार करते हैं | पहले भी पढ़ा है आपको | आगे भी जो लिखेंगें, पूरा विश्वास संतुलित और सार्थक ही होगा |

Vandana Ramasingh said...

क्या हमारे देश में औरतें अपने घरों में भी सुरक्षित हैं?.....सही सवाल उठाया आपने ...वहशीपन तो वहशीपन ही है संस्कारित किये बिना सुधार कहाँ हो सकता है

Dr Varsha Singh said...

सशक्त लेखन......आलेख अच्छा लगा.

abhi said...

आपके दोनों आलेख से पूर्ण सहमत हूँ..दो आलेख से मेरा मतलब है..ये वाला और 'कुचक्रों में फंसती बेटियां और परिवारजनों का दायित्व' !

Unknown said...

ये हमारे लिए एक बहुत शर्मनाक बात है की हम अपनी लड़कियों को सुरक्षित नहीं कर सकते। उनको मजबूत बनाने के वजाए उनको झुकने के लिए मजबूर करते है। महिलायो की सुरक्षा बहुत जरुरी है हम सब को मिलकर महिलाओ को मजबूत बनाना चाहिए

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