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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

22 March 2012

धन का आना और मानवीय संवेदनाओं का जाना


जब भी देखा है , सोचा-समझा है, यही पाया है कि धन का आना और मानवीय संवेदनाओं का जाना साथ-साथ ही होता है। बहुत हैरान करती है ये बात कि कल तक जो परिवार स्वयं आर्थिक परेशानियों से जूझ रहे थे, आज थोङा आर्थिक संबल पाते ही मानवीय संवेदनाओं से कोसों दूर हो चले हैं। धन के आने से रहन सहन ही नहीं सोचने समझने का रंग ढंग भी बदल जाता है। आत्मीयता खो जाती है और उनके विचार-व्यवहार में आत्ममुगध्ता न केवल आ जाती है बल्कि चारों ओर छा जाती है । 

यूँ अचानक आये धन के स्वागत सत्कार में जुटे परिवार भले ही स्वयं संवेदनहीन जाते हैं पर उन्हें अपने लिए पूरे समाज से सम्मान और संवेदनशीलता  की अपेक्षा रहती है । इतना ही नहीं अन्य लोगों को लेकर उनकी क्रिया - प्रतिक्रिया बस  नकारात्मक ही रह जाती है । वाणी के माधुर्य से तो मानो कभी परिचय ही न था । इन लोगों के मन यह विचार तो इतना गहरा उतर जाता है कि सगे सम्बन्धी हों या दोस्त, उनसे जो मिलता है उसका अपना कोई स्वार्थ होता है । 

रिश्तों को सहेजने का कर्म तो उसी दिन निभाना बंद कर देते हैं जिस दिन से धन के प्रति समर्पण के भाव मन में आ जाते हैं । फिर ये सामाजिक प्राणी से धनी प्राणी बने लोग रिश्तेदारों को बस उलाहना और नसीहत देने भर का काम करने लगते हैं । इन लोगों की एक विशेषता यह भी है कि इनके लिए मानवीय संबंधों में ऊष्मा और प्रगाढ़ता जैसे अनमोल भावों का कोई मोल नहीं रह जाता । 

तथाकथित आधुनिकता का आना तो ऐसे लोगों के जीवन में मानो आवश्यक ही है,क्योंकि वे पैसेवाले हो गए हैं । फिर चाहे आधुनिकता का कोरा दिखावा और सम्पन्नता की चमक रिश्ते-नातों को हमेशा के लिए फीका क्यों न कर दे । सच ही तो है जब पैसे का पर्दा आँखों पर पड़ता  हो तो भावनाएं कहाँ नज़र आती हैं ?

ऐसे परिवारों की स्वयं को बड़ा समझने से भी ज्यादा औरों को छोटा समझने की  सोच मुझे बहुत तकलीफदेह लगती है । धन हो या बल किसी भी तरह से आपका मान बढ़ा है कोई दूसरा छोटा कैसे हो गया ? यह बात मैं तो आज तक नहीं समझ पाई । पैसा आने से आपके जीवन में क्या बदला यह तो आप स्वयं ही जानें पर आपके पास धन दौलत आ जाने से आप औरों के लिए बदल जाएँ , सामाजिक रूप से  संवेदनहीन हो जाएँ यह कहाँ तक उचित हैं ? 

62 comments:

संतोष त्रिवेदी said...

...इसकी एक वज़ह तो यही है कि उन बेचारों को पैसा कमाने में लगे रहने से छोटी-मोटी बातों(संवेदना आदि)के लिए समय नहीं मिल पता है.

बहुत उपयुक्त विषय,जिस पर लोग अधिक चर्चा नहीं करते !

Arvind Mishra said...

क्षुद्र नदी भर चल तोराई जस थोड़ेहु धन खल बौराई
डॉ, मोनिका ,यह क्षुद्र लोगों का ही आचरण है !
धन पशुओं का !:)

Madhuresh said...

अच्छा विश्लेषण. लेकिन क्या हमेशा ऐसा होता है? मानता हूँ कई जगह ऐसा देखने को मिलता है, पर कई लोग ऐसे भी देखे हैं मैंने जो समृद्ध होकर भी कोई अभिमान नहीं रखते. शायद परिवार में क्या नैतिक मूल्य हैं, इसपर भी निर्भर करता है... बहरहाल, समर्थन है आपसे, अधिकांशतः होता है ऐसा!

केवल राम said...

धन के आने से रहन सहन ही नहीं सोचने समझने का रंग ढंग भी बदल जाता है। आत्मीयता खो जाती है....!

जीवन पता नहीं क्योँ ऐसी स्थिति में दूसरों से कट जाता है ....बल्कि होना तो यह चाहिए था कि हम ऐसी स्थिति में दूसरों के लिए मददगार बनते ....लेकिन आपका कहना सही है कि धन के आते ही संवेदनाएं कहीं दूर चली जाती हैं ...सार्थक पोस्ट ..!

कुमार राधारमण said...

संवेदनहीनता के मामले प्रायः वहां हैं,जहां धन अनुचित रास्तों से अथवा उपार्जन के लिए पर्याप्त मेहनत किए बगैर ही प्राप्त हुआ हो। अपने सामर्थ्य से धन अर्जित करने वाला व्यक्ति उन गरीबों से अधिक संजीदा होता है जिनकी संवेदनशीलता का मूल कारण ग़रीबी है। हमारी असंवेदनशीलता हमारी आध्यात्मिकता के लगातार छीजते जाने की दास्तान है।

Rajesh Kumari said...

khali haath aaya tha insaan khali hath jayega yadi yeh baat har koi dil se samjhe to rishton me kabhi khatas na aaye bhagvaan ke yahan to ameer gareeb ki koi shreni nahi hai.

Satish Saxena said...

यह उस व्यक्ति विशेष की मानसिकता और संस्कारों पर निर्भर करता है कि वह धन मिलने पर कैसे व्यवहार करेगा !
शुभकामनायें !

Kunwar Kusumesh said...

पैसा आने से आपके जीवन में क्या बदला यह तो आप स्वयं ही जानें पर आपके पास धन दौलत आ जाने से आप औरों के लिए बदल जाएँ , सामाजिक रूप से संवेदनहीन हो जाएँ यह कहाँ तक उचित हैं ? ...........absolutely correct.

ANULATA RAJ NAIR said...

होता है अकसर........
मैंने यहाँ तक महसूस किया है कि जो बहुत धनि हैं उन्हें दूसरों का स्नेह भी स्वार्थी लगता है...याने उन्हें लगता है लोग उनको उनकी सम्पन्नता की वजह से मान या स्नेह दे रहे है...
और इस वजह से वे reciprocate नहीं कर पाते..
एक प्रकार की कुंठा है ये...

अच्छा विषय उठाया आपने..
शुक्रिया.

Dr.NISHA MAHARANA said...

रिश्तों को सहेजने का कर्म तो उसी दिन निभाना बंद कर देते हैं जिस दिन से धन के प्रति समर्पण के भाव मन में आ जाते हैं । maximum log yhi krte hain.....jo sambhal gaya so sambhal gaya.bahut achchi prastuti monika jee.

पी.एस .भाकुनी said...

अक्सर यह भी देखा गया है की इन लोगों के लिए मानवीय संबंधों में ऊष्मा और प्रगाढ़ता जैसे अनमोल भावों का कोई मोल नहीं रह जाता ।
उपरोक्त सार्थक पोस्ट हेतु आभार............

Dinesh pareek said...

बहुत बहुत धन्यवाद् की आप मेरे ब्लॉग पे पधारे और अपने विचारो से अवगत करवाया बस इसी तरह आते रहिये इस से मुझे उर्जा मिलती रहती है और अपनी कुछ गलतियों का बी पता चलता रहता है
दिनेश पारीक
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http://vangaydinesh.blogspot.com/2012/03/blog-post_15.html?spref=bl

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

यह मानवीय व्यवहार का ही एक नमूना है. लोगों की मानसिकता पर निर्भर करता है.

G.N.SHAW said...

बिलकुल सही ! कुछ लोगो की सोंच ही बदल जाती है ! किन्तु धन और रूप पर कभी भरोसा नहीं करनी चाहिए ! यथार्थ तो यही है ! नव वर्ष की शुभकामनाएं !

सदा said...

अक्‍सर ऐसा ही होता है ... आपकी बात से सहमत हूं ..सार्थकता लिए हुए सटीक लेखन ..आभार ।

अजित गुप्ता का कोना said...

नया नया पैसा आने पर ऐसा होता है लेकिन पुराने जो सस्‍कारी परिवार है उनमें ऐसे भाव नहीं रहते हैं। इसलिए समाज और परिवारों में सतत संस्‍कारों की आवश्‍यकता रहती है।

सुज्ञ said...

यह समाज की सर्वव्याप्त मानसिकता है।
सामान्य लोग भी गुणी का लाभ उठाते है पर सम्मान देने की बात आती है तो धनी को सम्मान देते है। गाहे बगाहे समृद्ध की सम्पत्ति का बखान करते है। गरीब रहते जिसने सम्वेदनाओं का प्रवाह बहाया, लोगो ने उसके नेक स्वभाव को कभी न सराहा, वही व्यक्ति यदि धनी बना लोग सराहने लगते है। इस सच्चाई पर आधारित होता है 'धन का आना और मानवीय सम्वेदनाओ का जाना' आपने सही निरीक्षण किया और यह हर युग से विद्यमान है, अपवाद भी होते है पर कुलमिलाकर यह शाश्वत सत्य है।

धन पाने की महत्वाकांशा भी तभी प्रदीप्त होती है जव व्यक्ति देखता है गुणियल निर्धनता का कोई मोल नहीं समाज में, वस्तुतः सामुहिक रूप से समाज ही इस अवगुण का दोषी है।

अशोक सलूजा said...

जो होना नही चाहिए ...वोही ज़्यादातर हो रहा है !
धरातल छोड़ आसमां पे उड़ने लगते हैं |पर कारण ?
ये बहस का विषय है ...
शुभकामनाएँ!

संध्या शर्मा said...

बहुत अच्छा विश्लेषण किया है आपने सच है लोग धन आने के बाद स्वार्थी हो जाते हैं सिर्फ सुख ही दिखाई देता है उन्हें, दुःख दर्द से दूर हो जाते हैं...बिलकुल संवेदना शून्य... नव संवत्सर की हार्दिक शुभकामनाएं ....

रश्मि प्रभा... said...

पैसा - आवश्यकता से अधिक होते असुर बन जाता है इन्सान .... क्या बड़ा क्या छोटा , सबको अपने जूते की नोक पर रखता है . पैसा यानि अहम् ब्रह्मास्मि

Sunil Kumar said...

ab patthar banne ke taraf jaa rhen hain ham

kshama said...

सच ही तो है जब पैसे का पर्दा आँखों पर पड़ता हो तो भावनाएं कहाँ नज़र आती हैं ?
Bilkul sahee kah rahee hain aap!

Patali-The-Village said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति| नवसंवत्सर २०६९ की हार्दिक शुभकामनाएँ|

Yashwant R. B. Mathur said...

आपको नव संवत्सर 2069 की सपरिवार हार्दिक शुभकामनाएँ।

----------------------------
कल 24/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

मेरे भाव said...

BADHIYA AALEKH... AAJ SAMVEDNA KHATM SI HO RAHI HAI....ATI DHAN SE YAH ADHIK HO RAHA HAI

दीपिका रानी said...

कड़वी सच्चाई है यह..

Bhawna Kukreti said...

आपकी इस पोस्ट ने मेरी सोच को मजबूत किया है .बिलकूल सच बात लिखी आपने .अक्सर आर्थिक रूप से संपन्न ज्यादातर लोगों में अपने लिए तो दुनियाभर की सहानुभूति,अपने प्रति संवेदनशीलता की आस रह्रती है पर दूसरो की मदद करना बड़ा भारी महसूस होता है .मदद भी तब ही करते हैं जब उस से उनका कोई हित या प्रतिष्ठा में वृद्धि होती हो. यहांतक की कोई स्नेहवश संपर्क भी करे तो यही लगता है की शायद उसे उनके धन की अभिलाषा है .उनके लिए सबसे बड़ा सच यही होता है "रुपये से सब कुछ मिल सकता है" अगर उनकी इस बात में कोई धुंधला पन आ जाय तो वे दूसरों को दोष देने में जरा भी देर नहीं लगाते .मन तो और दुखता है जब ऐसा कोई आपका जानने वाला होता है. अकसर ऐसे लोग आपके सेवा भाव , परोपकार की भावना को स्वार्थ और मूर्खता समझते हैं और सबको मनवाते भी है. अक्सर ऐसे लोगों के संस्कार भी "रुपये की उपयोगिता " की नीव पर उगे होते हैं .

ashish said...

कनक कनक ते सौगुनी मादकता अधिकाय
वा पाए बौराय जग वा खाए बौराय

अब सिक्को की खनक सुनने से समय मिले तो संवेदना के पदचाप सुने .

Dr Xitija Singh said...

बहुत अच्छा लेख मोनिका जी ... काफी कुछ व्यक्ति की basic nature पर भी निर्भर करता है ...

Maheshwari kaneri said...

सच कहा धन तो अच्छे- अच्छो को बौरा देते हैं..सार्थक पोस्ट...

Dr Varsha Singh said...

सार्थक पोस्ट ..!
नवसंवत्सर की हार्दिक शुभकामनाएँ|

गिरधारी खंकरियाल said...

धन ही मान अपमान की जड़ है

shikha varshney said...

ज्यादातर तो ऐसा ही देखा गया है जैसा आपने कहा.

Unknown said...

नज़र बदली कि नज़ारे बदल गये,
हवा बदली कि किनारे बदल गये,
वक्त कहाँ किसी की जागीर है जो बदलेगा नही,
सबकुछ है अपनी ही धार के बहाव में
मगर समझ नही आती ये इंसान की फितरत
कि क्यों दौलत कि परछाई में क्यों आंखों के इशारे बदल गये...


मोनिका जी आपके ब्लॉग कि हर पोस्ट में एक सशक्त आवाज कि धुन सुनाई देंती है...

बहुत अच्छा लगा....ये लेख पढकर ...

मरे ब्लॉग पर भी आपका आपके विचारों के साथ स्वागत है...

संजय कुमार चौरसिया said...

सार्थक पोस्ट
nav barsh ki shubh-kaamnayen

Pallavi saxena said...

वो कहते है "न सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा" बस यह इतनी सी बात लोगों के समझ में नहीं आती इसलिए अचानक पैसा आते ही यह सब होता है। अच्छा विश्लेषण किया है आपने सार्थक एवं सारगर्भित आलेख....

उपेन्द्र नाथ said...

सही कहा आपने... एक कडवी हकीकत .

Ramakant Singh said...

अर्थ धर्म काम मोक्ष चार पुरुषार्थ में अर्थ की गरिमा को सब सम्हाल नहीं पाते ऐसी स्थिति में काम ज्ञान वाले लोग भ्रम में पड़ते हैं बस तब रिश्तों की गर्माहट कम कर डालते हैं यहीं चुक नहीं होनीं चाहिए .
किन्तु प्रकृति का यह भी नियम है
कनक कनक ते मादिनी मादकता अधिकाय
एक खाए बौरात है एक पाए बौराय

Dr. sandhya tiwari said...

सही बात है मोनिका जी लेकिन हम धन संग्रह में चुकते भी नहीं है और घमंड तो उसके बाद स्वाभाविक है

vijai Rajbali Mathur said...

व्यावहारिक रूप से आपके लेख मे उल्लिखित एक-एक बात सही है। टिप्पणियाँ बेहद जायकेदार हैं।

रिश्ते मे भांजा दामाद और PCS आफिसर से एक बात सीख कर मैंने गिरह मे गांठ बांध ली है -"पैसे वालों को जूते की ठोकर पर रखते हैं"। मुझे अक्सर पैसे के आधार पर झुका लेने की धमकियाँ मिलती रहती हैं जिनके जवाब मे मै कहता हूँ पैसे के दम पर शीश भले ही कटवा लो पर झुका नहीं पाओगे। यदि हममे आत्म बल हो तो कोई पैसे वाला कभी न झुका सकेगा। लेकिन पैसे के घमंडी चारों तरफ बिखरे पड़े हैं।

rashmi ravija said...

अक्सर ऐसा ही देखने में आता है...धन आते ही लोगों की प्रकृति बदल जाती है

सही विश्लेषण

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

बहुत सुंदर भाव अभिव्यक्ति,......

my resent post


काव्यान्जलि ...: अभिनन्दन पत्र............ ५० वीं पोस्ट.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

व्यावहारिक रूप से सटीक लिखा है ... मैंने भी ऐसा होते देखा है ... न जाने क्यों धन आते ही लोगों का आचरण बदल जाता है ...

नव संवत्सर की हार्दिक शुभकामनायें...

Sonroopa Vishal said...

मोनिका जी आपके लेख का टाइटिल पढकर ही आपके मन की बात से बाबस्ता हो गयी .....लेकिन हमारे नैतिक संस्कार की जड़े इतनी गहरी हैं कि उनको अपने जीवन में ढालने वाले कभी संवेदन हीन नहीं हो सकते ........ये उन लोगों का आचरण है जिन्हें संवेदनाओं को महसूस करना ही नहीं आता !

प्रवीण पाण्डेय said...

धन स्वभाव की मौलिकता को प्रभावित करने लगता है।

Udan Tashtari said...

सही विष्लेषण...ऐसा ही होता है!!

DR. ANWER JAMAL said...

ऐसे परिवारों की स्वयं को बड़ा समझने से भी ज्यादा औरों को छोटा समझने की सोच मुझे बहुत तकलीफदेह लगती है । धन हो या बल किसी भी तरह से आपका मान बढ़ा है कोई दूसरा छोटा कैसे हो गया ?

नव संवत्सर की हार्दिक शुभकामनाएं ...

### चुनौती जिन्दगी की: संघर्ष भरे वे दिन (१६)
प्रस्तुतकर्ता रेखा श्रीवास्तव
http://www.merasarokar.blogspot.in/2012/03/blog-post_22.html

abhi said...

"कल तक जो परिवार स्वयं आर्थिक परेशानियों से जूझ रहे थे, आज थोङा आर्थिक संबल पाते ही मानवीय संवेदनाओं से कोसों दूर हो चले हैं"

सच में...कभी कभी ये बात मुझे भी बहुत हैरान करती है!!

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

सार्थक चिंतन... प्रभावी विश्लेषण...
सादर.

Kailash Sharma said...

बहुत सार्थक प्रस्तुति...आज पैसे के आने पर लोग रिश्ते और संबंधों सभी को भूल जाते हैं..यह आज का एक कटु सत्य है..

Anonymous said...

एक शेर नजर है आपकी इस पोस्ट पर -

दुसरे को छोटा कह कर मैं कैसे बड़ा हो जाऊंगा ,

रेखा श्रीवास्तव said...

बात बहुत हद तक सच है लेकिन इस पर ये बात भी कही जा सकती है कि 'अधजल गगरी छलकत जाय ' जो नया नया धन या समृद्धि देखते हें वे बौरा जाते हें और संबंधों से मुँह मोड लेते हें लेकिन पाँचों अंगुलियाँ बराबर नहीं होती. बहुत सार्थक विषय पर लेख के लिए आभार !

मेरा मन पंछी सा said...

आज के युग में मनुष्य इतना लालची हो गया है की पैसे के आगे उसे कुछ भी दिखाई नहीं देता...दूसरो की भावनाए,संवेदनाये और अपनापन उसे खोखला सा लगता है...पैसे के आगे जीवन के मूल्य नष्ट होते जा रहे है..
सार्थक और सटीक पोस्ट......

Suman said...

सही कहा है सहमत हूँ !

महेन्‍द्र वर्मा said...

धन और अहंकार का चोली-दामन का साथ है। और जब आदमी में अहंकार पनपता है तो उसकी संवेदरशीलता का क्षरण होने लगता है।
विचारणीय आलेख।

Jyoti Mishra said...

Money makes ppl made..
in some/many cases it proves to be true..
It corrupts the brain and all left is selfish mean creature

दिगम्बर नासवा said...

बिलकुल बजी उचित नहीं हैं पर क्या करें ... ये समय का बदलाव है या किसी संस्कृति का असर या कुछ और भी ... तेज़ी से बदलाव आ रहा है समाज में ... धन और बल दोनों ही शक्तिशाली हो गए हैं समाज में ..

virendra sharma said...

क्षुद्र नदी जल भर इतराई .

अधजल गगरी छलकत जाए .ये तमाम लोग जो नीचे से ऊपर जातें हैं .सुख इन्हें पचता नहीं है .ओछापन है यह जीवन का .फलदार वृक्ष तो झुकता है ,जिस नदी में पानी कम होता है वाही इतराती है बरसाती नाले सी .

प्रेम सरोवर said...

बहुत सुंदर । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

समय चक्र said...

bahut hi vicharniy alekh...

संतोष पाण्डेय said...

मनुष्य जिससे प्रेम करता है, उसके जैसा हो जाता है. पैसे से प्रेम होने पर संवेदना के लिए स्थान ही नहीं बच पाता.

Monika Jain said...

sach to ye hai ki jo log aisa vyavhar karte hai ve chahe jitna dhan arjit kar le par bade nhi ban sakte..kyonki unki soch choti hai aur insaan bada sirf apne vicharon se banta hai...

मत भेद न बने मन भेद - A post for all bloggers

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