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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

13 December 2011

धन-बल को मिलने वाला मान है भ्रष्टाचार की जड़ ....!

भ्रष्टाचार का एक बड़ा कारण हम सब की, समग्र रूप से हमारे समाज की वो मानसिकता है जिसमें धन का, धनी व्यक्ति का मान बहुत ऊँचा बना कर रखा है | हमारे समाज में  धनी व्यक्ति को कभी भय तो कभी लोभ-लालच के चलते जनता हमेशा श्रेष्ठ स्थान देकर पूजनीय बना देती  है | इसी सोच ने आज हमारे जीवन में धनार्जन को सर्वोपरि बना दिया है | जो जितना धनी उसका जीवन उतना ही आसान और उसके हिस्से उतना ही मान सम्मान | मुझे लगता है कि जब तक यह सोच हमारे परिवारों और समाज में मौजूद है हम चाहे जितने अनशन कर लें, मोर्चे निकाल लें , भ्रष्टाचार को समूल नष्ट करने का मार्ग मिल ही नहीं सकता | जब हम उन विषयों पर गंभीरता से विचार करते हैं जिनसे यह स्पष्ट हो सके कि भ्रष्टाचार आखिर हमारे सिस्टम में है, तो है क्यों ...?  तो धन-बल को दिया जाने वाला मान एक प्रमुख कारण के रूप में सामने आता है |
भ्रष्टाचार का मुद्दा सिर्फ नेताओं और सरकारी अफसरों तक ही सीमित नहीं है | हमारे समाज में हर व्यक्ति को लगता है कि धन अर्जित कर लिया तो बल आसानी से जुटाया जा सकता है | पैसा और पावर हाथ आया तो फिर सब कुछ उनकी मुठ्ठी में | इसीलिए हर व्यक्ति के मन में अधिक से अधिक धनार्जन की सोच पनपती है | यह इच्छा बलवती हो उठती है कि बस पैसा कमाया जाय बाकि सब मुश्किलें तो फिर यूँ ही हल हो जायेंगीं |  ज़ाहिर सी बात है कि ईमानदारी के मार्ग पर चलकर जीवन की ज़रूरतें तो पूरी हो सकती हैं पर धन-बल जुटाने की इच्छाएं नहीं | बस....यहीं से भ्रष्टाचार की शुरुआत होती है कभी न ख़त्म होने वाले अभिशाप के सामान | 
भ्रष्टाचार कोई रोग नहीं है जिससे हमारा देश जाने अनजाने संक्रमित हो गया है | यह तो सीधे सीधे उस धन को जुटाने की तरकीब है जिसके बल पर हमारे सामजिक-पारिवारिक वातावरण में कोई व्यक्ति सम्मान अर्जित करता  है, स्वयं को स्थापित कर पाता है |  आज के दौर में हमारे समाज में धन का मान सद्गुणों से कहीं ज्यादा है | पैसे के आते ही अवगुण भी गुण बन जाते हैं , यह समझना कठिन नहीं है  कि जिस धन को एकत्रित करने से समाज में इन्सान की  प्रतिष्ठा बढती हो, उसे मान सम्मान मिलता हो, उसे जुटाने में वो किस हद तक जायेगा , या फिर जा रहा है ?

ऐसे देश में भ्रष्टाचार कैसे खत्म हो सकता है ,  जहाँ किसी व्यक्ति का मान उसकी बेटी की शादी में खर्च किये गए धन से निर्धारित होता है |  जहाँ  समाज की नज़र में किसी एक मनुष्य की मनुष्यता बौनी हो जाती है दूसरे के आलीशान मकान के आगे | किसी घर के आगे खड़ी महँगी गाड़िया तय करती हैं कि उसे कितना सम्मान मिलेगा ? किसी परिवार की महिलाओं के  झाले-झुमकों का वज़न तय करता है कि उन्हें मिलने वाले मान-सम्मान का माप-तौल क्या होगा ? 

जब अच्छा मनुष्य होने के प्रमाण भी धन ही देने लगे तो पैसा बटोरने की मानसिकता को तो बढ़ावा मिलेगा ही |   समाज ही नहीं हमारे यहाँ तो परिवार और नाते रिश्तेदारों में भी उसी में भी उसी की पूछ-परख होती है जो अच्छा कमाता खाता है | कौन कितना सफल या असफल है यह भी उसकी कमाई के आधार ही आँका जाता है | कई बार धार्मिक, सामाजिक आयोजनों में तन-मन से सहयोग देने वालों के बजाय धन से सहयोग करने वालों कहीं ज्यादा माननीय बनते देखा है | यह दुखद है कि  धन-बल के  इस खेल में मनुष्यता और मौलिक प्रतिभा कहीं खो गए हैं | हर एक व्यक्ति इस भागदौड़ भरे जीवन में सिर्फ पैसा बटोरने के पीछे लगा है | ताकि वो भी अधिक से अधिक धन जुटा कर उस संभ्रांत वर्ग का हिस्सा बन सके जिसे हर सुख और सम्मान का अधिकारी माना जाता है | बस ...यही सोच भ्रष्टाचार को जन्म भी देती है और बढ़ावा भी |  

01 December 2011

सहानुभूति सदैव मौन व्यक्ति के हिस्से ही क्यों....?



हमारे परिवेश  में सहानुभूति सदैव मौन व्यक्ति के हिस्से ही क्यों आती है  .....? यह सवाल  कई बार मेरे मन में उठता है |  बोलने वाला व्यक्ति चाहे जितनी सही और सटीक बात कहे अक्सर उसके हाथ न तो प्रशंसा आती है और न ही दूसरों की संवेदना | कई बार लगता है जैसे मौन रहना  क्रिया है तो सहानुभूति प्रतिक्रिया |  

परिस्थितियां विवादित हों या सामान्य, प्रश्नों के घेरे में सदैव वही आता है जो बोलता है , अपने विचार खुलकर सामने रखता है | मौन रहने वाला व्यक्ति सदैव इन सब बातों से परे रहता है | चूंकि उसने कुछ कहा नहीं तो उसे कुछ सुनना और समझना भी नहीं है | अगर कोई व्यक्ति मौन रहता है तो यही माना जाता है कि फलां व्यक्ति तो हमेशा शांत रहता है उसे कुछ नहीं पता या फिर सब कुछ पता है | 

यह बात आज तक नहीं समझ पाई कि मौन क्या सिर्फ व्यवहारगत विषय है ? जिसे हम चुप रहने की आदत भी कह सकते हैं | यानि कि कुछ लोगों की आदत ही होती है कि वे अधिक वार्तालाप नहीं करते | घर हो या बाहर उन्हें संवाद करना नहीं भाता | ऐसे व्यक्ति चाहे महिला हो या पुरुष सिर्फ दूसरों को सुनना पसंद करते हैं | अपने संगी साथियों  के विचारों को जानना समझना उन्हें अच्छा लगता है | मेरा अवलोकन कहता है कि यह बातें  हर उस इन्सान के साथ लागू नहीं की  जा सकतीं जो चुप रहता है |  

कुछ लोग अपनी सुविधानुसार मौन या मुखर होते रहते हैं | उनका मौन कभी अनिश्चितकालीन होता है  तो कभी निश्चितकालीन |  यह भी बाकायदा सोच समझ कर तय किया जाता है कि किस व्यक्ति के सामने मौन रहना  है और कहाँ मुखर होना है ? जब इतना सब कुछ सोच समझकर किया जाता है तो चुप्पी को हमेशा सहानुभूति क्यों मिलती है .... या फिर यूँ कहें कि क्यों मिलनी चाहिए ? जब लोग  ' मौनं सर्वार्थसाधनम '  मौन सभी कार्यों का साधक है , के भाव को पूरी तरह से अपने जीवन में उतारते प्रतीत होते हैं |  किसी के कहे कड़वे वचन मन को गहरे घाव दे जाते हैं पर जब किसी से प्रतिक्रिया( संवाद ) की आशा हो , उस समय सामने वाले व्यक्ति द्वारा सोच समझकर साधी गयी चुप्पी भी मन को बींध देती है | 

सोचती हूँ अगर बोलने वाला व्यक्ति पूरी रीति-नीति के साथ अपनी बात सामने रखता है तो मौन खड़े रहना भी तो एक नीतिगत निर्णय हो सकता है | ठीक उसी तरह से सोचा विचारा हुआ जिस तरह से मुखरित व्यक्ति अपने विचार साझा करके करता है | 

कई बार तो यह भी देखने आता है कि किसी एक व्यक्ति का हर बात में मौन रहना , संवाद से बचना भी  दूसरे व्यक्ति को आक्रोशित करता है |  जब कुछ कहा जाना आवश्यक है तब मौन और जब शांतिपूर्ण ढंग बात सुननी हो तो मुखरता | घर हो या दफ्तर ऐसी परिस्थितियाँ हम सबके आसपास कई बार बनती हैं पर  हमारी संवेदनाएं तो इन हालातों में भी चुप खड़े व्यक्ति की झोली में ही गिरती हैं | ऐसा क्यों ...?