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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

17 November 2011

अति महत्वाकांक्षा के भंवर में फंसती महिलाएं...!




राजस्थान की भंवरी देवी का किस्सा आज मीडिया के लिए ही नहीं आमजन के लिए चर्चा का विषय बना हुआ है | यूँ तो इस घटना के कई पक्ष हो सकते हैं पर मैं जिस विषय पर बात करने जा रही हूँ वो है आज के समय में महिलाओं में आई  अति महत्वाकांक्षा की सोच |

 भंवरी देवी भी इसी अति महत्वाकांक्षा के जाल में जा फंसीं जो उन्होंने जाने अनजाने स्वयं ही बुना था | इस घटना का यह पक्ष मन में तब कौंधता है जब मस्तिष्क यह प्रश्न  उठाता है कि एक आम परिवार से जुड़ी साधारण सी नौकरी करने वाली महिला का किसी राज्य के मंत्री से इतना करीबी सम्बन्ध यूँ ही तो नहीं हो सकता .... ? न ही इस सम्बन्ध को किसी तरह से थोपा जा सकता है....... ? आखिर भंवरी देवी भी इतने वर्षों तक किसी न किसी तरह तो लाभान्वित हुईं ही होंगीं.....? 

 ऊँची साख बनाने और प्रसिद्धि कमाने की मानसिकता ने आज के दौर की महिलाओं के हौसले तो बुलंद किये हैं पर कुछ गलतियाँ करने की भी राहें सुझा दी है | भंवरी देवी की तरह किसी भी कीमत पर सब कुछ पाने की सोच रखने वाली महिलाओं का प्रतिशत बीते कुछ बरसों में हर क्षेत्र में चिंताजनक स्तर तक बढ़ा है |  स्वयं महिलाओं को भी प्रसिद्धि और पैसा कमाने के लिए यह मार्ग सुगम और सुखदायी लगता  है | जबकि सच्चाई तो यह है इन रास्तों पर चलकर अनगिनत महिलाएं ऐसे भंवर में फंस जाती हैं जिसका मूल्य कई बार तो उन्हें जान गंवाकर चुकाना पड़ता है | 

मधुमिता ,रूपम या भंवरी ऊंची पहुँच रखने और अपना दबदबा दिखाने के चलते इतनी आत्ममुग्ध हो जाती हैं कि ऐसे संबंधों की परिणति को लेकर शायद कोई विचार तक नहीं करतीं | जब इस भूल भुल्लैया का खेल समझ आता है तो मन में बस क्रोध रह जाता है | तब भंवरी की तरह कोई सीडी बनाती हैं तो कोई  रूपम की तरह जान से ही मार डालती है | इस हिमाकत का भी खामियाजा उन्हें ही भुगतान पड़ता है |  हमारे समाज में चाहे जितने बदलाव आ जाएँ महिलाओं को यह बात याद रखनी होगी हर बार भुगतना उन्हें पड़ता है | उन्मुक्त जीवन और स्वछंदता का मूल्य उन्हें ही चुकाना पड़ता है | आगे बढ़ने की यह  सोच उन्हें सशक्त नहीं करती बल्कि आगे चलकर मजबूरी और समझौतों के दलदल में धकेल देती है | जिसमें न रहते बनता है और न ही बाहर निकलने का रास्ता सूझता है | 

क्षमता और योग्यता से ऊंचे लक्ष्य अक्सर हमें उचित-अनुचित हर तरह के कार्यों में कर प्रवृत्त देते हैं | साथ ही अगर इन लक्ष्यों को पाने की जल्दबाजी हो और सही गलत का आत्मबोध भी न रहे, तो किसी कुचक्र में फंसना निश्चित है |  ऐसे में अपनी सीमाओं से परे कुछ अलग तरह के मापदंडों पर स्वयं को स्थापित और साबित करने की ललक एक गहरे गर्त में ले जाती है  और जब तक इसका आभास होता है अधिकतर मामलों में बहुत देर हो चुकी होती है | 

महिलाओं के मन में आगे बढ़ने की, सफल होने की आकांक्षा होना गलत नहीं है पर अति महत्वाकांक्षा की सोच कई बार जीवन की दिशा ही बदल देती है | इन परिस्थितियों में आभास तो बहुत कुछ पाने और बन जाने का होता है पर असल में इस खेल का हिस्सा बनकर महिलाएं अपना सब कुछ खोती ही हैं | वे बस ठगी जाती हैं | भंवरी के साथ हुई इस घटना के इस पक्ष पर विचार कर  देश की हर महिला को सबक लेना चाहिए |  | 

ऐसा भी नहीं है कि जो कुछ भंवरी के साथ हुआ वो सिर्फ सत्ता के गलियारों में ही होता है  | हर क्षेत्र में ऐसा देखने को मिल जायेगा जहाँ महिलाएं अति महत्वाकांक्षा की शिकार हो इस तरह ठगी जाती है | ज़रूरी  है कि महिलाएं स्वयं यह समझें की सशक्त होने का अर्थ सिर्फ धन कमाना या ऊंची पहुँच बनाना नहीं है | सशक्तीकरण के सही मायने हैं जागरूकता और आत्मनिर्भरता..... संवेदनशील सोच और सतर्कता...और सपने सामाजिक एवं  पारिवारिक मूल्यों का बोध ..... क्योंकि इस डोर को थामे रखा तो जीवन दिशाहीन हो ही नहीं सकता |

06 November 2011

जागे जग के पालनकर्ता ..... चतुर्मास समापन ...!

धार्मिक और आध्यात्मिक ही नहीं कई व्यवहारिक कारण भी हैं जिनके चलते हिन्दू संस्कृति में चार महीने( आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक ) कोई मांगलिक कार्य नहीं होते | माना जाता है की चतुर्मास का समय सभी देवगण भगवान विष्णु का अनुसरण करते हुए सोते हुये बिताते हैं | कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी यानि कि देवोत्थान एकादशी से फिर मांगलिक कार्यों की शुरुआत होती है | इस दिन  घर और मंदिर में दिवाली की तरह दीप प्रज्ल्वित किये जाते हैं | आज के दिन तुलसी विवाह करवाए जाने भी परम्परा है | 
चतुर्मास श्रीहरी के शयनकाल का समय तो होता ही है और भी कई व्यावहारिक कारण हैं जिनके चलते इस समय धार्मिक और सामाजिक अनुष्ठानों की तैयारियां संभव नहीं हो पातीं | इसकी वजह यह भी है कि चातुर्मास  की शुरुआत ऐसे माह से होती है जब खेती बड़ी का काम बहुत हुआ करता था और शायद आज भी होता है | भारत जैसे कृषिप्रधान देश में जहाँ चौमासे की फसल से परिवार की वर्षभर की आवश्यकताएं पूरा हुआ करती थीं |  इस समय घर के हर व्यक्ति को खेत खलिहान में ज्यादा से ज्यादा समय देना होता है | ऐसे धार्मिक सामाजिक अनुष्ठान कर पाना बड़ा मुश्किल है | हमारे देश में जहाँ अधिकतर जनसँख्या आज भी खेती बड़ी से जुड़ी है चातुर्मास में शुभ कार्यों का टालना धार्मिक ही व्यावहारिक  महत्व भी रखता है | 


स्वास्थ्य की देखभाल और जागरूकता के लिए भी चतुर्मास का बड़ा महत्व  है | इन चार महीनों में  कंद मूल और हरी सब्जियों से परहेज के लिए कहा जाता है | क्योंकि वर्ष का यही समय होता है जब जीवाणुओं का प्रकोप सबसे ज्यादा होता है | ऐसे में  अपच, अजीर्ण  और वायुविकार जैसी स्वास्थ्य समस्याएं वातावरण में आद्रता के चलते बढ़ जाती हैं |  बरसात के मौसम में रखा गया खानपान  का संयम हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभकारी सिद्ध होता है | इसीलिए  चतुर्मास को धर्म ,परम्परा ,संस्कृति और स्वास्थ्य को एक सूत्र में पिरोने वाला समय माना जाता है | 

चतुर्मास का समय प्रकृति की उपासना का भी समय है |चतुर्मास में तुलसी , पीपल सींचने और अक्षय नवमी को आंवले  के वृक्ष की पूजा की परम्परा भी इसी का हिस्सा है | देवउठनी एकादशी यानि की चतुर्मास के समापन पर  तुलसी विवाह की भी परम्परा  है |  इस परम्परा को हम प्रकृति और परमात्मा के प्रेम का प्रतीक भी मान  सकते हैं  |  


आज हम सबको इस बात की जानकारी है की  (पीपल , तुलसी ,आंवला ) ये सभी औषधीय पौधे हैं | इन सबको पूजा जाना भी कहीं न कहीं स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता का सन्देश देता है |  देवउठनी एकादशी के दिन तुलसी के पौधों का दान भी किया जाता है | यानि घर-घर में  स्वस्थ जीवन की सजगता का सन्देश दिए जाने की सुंदर और सार्थक परम्परा | 


आज देवउठनी एकादशी के दिन चार माह चल रहे मेरे चतुर्मास के उपवास भी पूरे  हुए हैं | इसे  देव प्रबोधनी एकादशी भी कहा जाता है और प्रबोधन का अर्थ ही जागना होता है...... हम सबके विचारों और कर्मों में भी देवत्व जागृत हो यही श्रीहरी से प्रार्थना है |

02 November 2011

बच्चों के साथ..............सीखने की नई शुरूआत....!




बच्चों के साथ हम बड़ों के लिए भी सीखने समझने की एक नई यात्रा आरंभ होती है। एक ऐसी यात्रा जो हमें फिर से बचपन में लौटा ले जाती है। ऐसा लगता है मानों जो कुछ आज तक सीखा है, जाना है वो सब भूलकर उन्हीं की तरह जीवन के हर रंग को मासूमयित से देखा, जाना  और जिया जाय | बच्चों का साथ हम बड़ों को हमारी सोच के पारंपरिक दायरे बाहर निकाल लाता है | नई उर्जा और सृजनात्मकता का प्रवाह हमें बच्चों से मिल सकता है | यूँ ही उनके साथ कभी उनके खिलौनों से खेलें.... कभी घूमने निकल जाएँ ....और देखें कि कितना कुछ  ऐसा है जो बच्चों से सीखा जा सकता है। 

मुझे आजकल लग रहा है कि मैनें कभी मौसम के रंगो इस तरह नहीं देखा और जिया जैसे मेरा बेटा चैतन्य करता है। कभी कभी एक फूल या घास को भी इतनी मासूमयित से अपना दोस्त बनाता है कि लगता है हम बड़ों ने जीवन जीना ही छोड़ दिया है | हमारे आसपास कितना कुछ बिखरा पड़ा है जो जीवन को एक अलग दृष्टि से देखना और जीना सीखता है। उसे चींटी काट ले तो गुस्सा नहीं आता, ना ही चींटी को तकलीफ देने की सोचता है...... उसे लगता है कि ममा को चींटी से बात करनी चाहिए और कहना चाहिए कि वो चैतन्य को बिना बात परेशान ना करे :) यानि संवाद पहले हो | 

बच्चों के मन में, जीवन में, भावनाओं में, जो उल्लास होता है वो संकट में भी मुस्कुराना सिखा देता है। कुछ पल में ही उनका बीति बातें भूल जाने वाला स्वभाव तो लगता आज के समय में हम सबका जीवन सरल कर सकता है। ये तो हम बड़े ही होते हैं मन को व्यथित करने वाली हर बात को सदा के लिए अपने साथ बांध लेते हैं। इस विषय में बच्चों का बड़प्पन देखकर लगता है मानो हम उम्र बढने के साथ-साथ मन से छोटे होते जाते हैं ।

कई बार महसूस किया है कि बच्चे व्यवहार में भी निपुण होते हैं। वे जो कहना चाहते हैं, करना चाहते हैं, कह भी जाते हैं और उसके साथ कोई लाग लपेट भी नहीं करते। देखा जाय तो व्यवहार की इस मासूम सोच में भी जीवन की उत्कृष्टता है और एक सुख भी । सुख मन पर कोई बोझ न लेकर  चलने का | बच्चों की ऐसी छोटी छोटी बातें हमें  सिखाती हैं कि जीवन सरल है और उसे सरलता से ही जिया जाये | जीवन की हर परिस्थिति में बच्चे खुश रह सकते हैं और मूलतः यही बचपन का आन्नदभाव है। 

पता नहीं बच्चों को हमेशा हम बडे. सिखाने तक ही क्यों उलझे रहते हैं.......? अल्हड़, आल्हादित बचपन जीते बच्चों से भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है।  हम सबके लिए सीखने की यह नई सोच बचपन को एक बार फिर जीने और अपने बच्चों को समझने जानने की शुरुआत भी हो सकती है |