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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

20 August 2011

श्याम.....जीवन चेतना का नाम...!

   

भगवान कृष्ण, नटखट गौपाल, या सुदामा के बाल सखा......कृष्ण  भारतीय जनमानस की आत्मा में बसे ऐसे अवतार हैं जिनका जीवन अनगिनत कहानियों और लीलाओं से भरा है । ईश्वर का हर अवतार पूजनीय है पर कृष्ण तो मानो हर घर में बसे हैं। नंदगांव के कन्हैया से लेकर अर्जुन के पार्थ तक उनका चरित्र  जीवन जीने के अर्थपूर्ण संदेश संजोये हुए है | बालपन से लेकर कुटुम्बीय जीवन तक, उनकी हर बात में जीवन सूत्र छुपे हैं।  


कृष्ण यह समझाते, सिखाते हैं  कि जीवन जङ नहीं हैं। पेङ पौधे हों या जीव जन्तु सम्पूर्ण प्रकृति की चेतना से जुङना ही सच्ची मानवता है। कान्हा का गायों की सेवा और पक्षियों से प्रेम यह बताता है कि जीवन प्रकृति से ही जन्म लेता है और मां प्रकृति ही इसे विकसित करती है, पोषित करती है।  सच में कभी कभी लगता है कि हम सबमें इस चेतन तत्व का विकास होगा तभी तो आत्मतत्व जागृत हो पायेगा। 


नीतिराज कृष्ण का चरित्र सदैव चमत्कारी और कृतित्व कल्याणकारी रहा है। उनका जीवन इस बात को रेखांकित करता है कि जीवन में आने वाली हर तरह की परिस्थितियों में कहीं धैर्य तो कहीं गहरी समझ आवश्यक है। कृ ष्ण का जीवन हर तरह से एक आम इंसान का जीवन लगता है। तभी तो किसी आम मनुष्य के समान भी वे दुर्जनों के लिए कठोर रहे तो सज्जनों के लिए कोमल ह्दय। जब सीमायें पार हो जाये तो बस ..... उनका यह व्यवहार भी तो प्रकृति से प्रेरित ही लगता है | 

कृष्ण का जीवन प्रकृति के बहुत करीब रहा | कदम्ब का पेड़ और यमुना का किनारा उनके लिए बहुत विशेष स्थान रखते थे | प्रकृति का साथ ही उनके   विलक्षण चरित्र को आनन्द और उल्लास का प्रतीक बनाता है | शायद यह भी  एक कारण है कि कान्हा का नाम लेने से ही मन में  उल्लास और उमंग छा जाती है। उन्होनें कष्ट में भी चेहरे पर मुस्कुराहट और बातों में धैर्य की मिठास को बनाये रखा। कोई अपना रूठ जाए तो मनुहार कैसे करनी है....?  किस युक्ति से अपनों को मनाया जाता है...? यह तो स्वयं कृष्ण के चरित्र से ही सीखना चाहिए। 

वसुधैव कुटम्बकम के भाव को वासुदेव कृष्ण ने जिया है। मनुष्यों और मूक पशुओं से ही नहीं मोरपंख और बांसुरी से भी उन्होनें मन से प्रेम किया। कई बार तो ऐसा लगता मानो कृष्ण ने किसी वस्तु को भी जङ नहीं समझा। तभी तो आत्मीय स्तर का लगाव रहा उन्हें हर उस वस्तु से भी जो उस परिवेश का हिस्सा थी जहाँ वे रहे | 


कृष्ण से जुड़ी हर बात हमें जीवन के प्रति जागृत होने का सन्देश देती है | मानव मन और जीवन के कुशल अध्येता कृष्ण यह कितनी सरलता और सहजता से बताते हैं कि जीवन जीना भी एक कला है | उनके चरित्र को जितना जानो उतना ही यह महसूस होता है कि इस धरा पर प्रेम का शाश्वत भाव वही हो सकता है जो कृष्ण ने जिया है | यानि कि सम्पूर्ण प्रकृति से प्रेम | यही अलौकिक प्रेम हम सबको  को आत्मीय सुख दे सकता है और इसी में समाई है  जनकल्याणकारी चेतना भी  |

13 August 2011

अधिकार चाहिये तो कर्तव्य भी निभाइये...!


     
स्वतंत्र भारत के नागरिकों के मन में शायद ही इससे बङा कोई दुख हो कि उन्हें उनके  अधिकार नहीं मिलते। वे अधिकार जो संविधान में वर्णित हैं और भारत के नागरिक होने के नाते उन्हें मिलने चाहिए |  साथ ही वे अधिकार भी जो संविधान में तो नहीं है पर हमें तो चाहियें क्योंकि हम सिर्फ स्वतंत्र ही नहीं स्वछन्द होकर जीना चाहते हैं। तभी तो इस देश में सबको पता है कि अधिकार क्या है पर कर्तव्य के बारे में कोई नहीं सोचता।  एक आम नागरिक बिना किसी मजबूरी के भी नियम कायदों को तोड़कर एक अजीब सा सुकून महसूस करता है। 

चलिए बङे बङे कामों की बात नहीं करते हैं बस कुछ छोटी छोटी बातें .......

नेताओं से सबको शिकायत है पर वोट डालने का समय नहीं निकाल पाते हम । एक सार्वजनिक स्थान पर किसी निहत्थे व्यक्ति को कुछ लोग पत्थरों से कुचल देते हैं और भीड़ खड़े-खड़े तमाशा देखती है |  मैं भी मानती हूं कि इन बदमाशों को कोई एक आदमी आगे बढकर नहीं रोक सकता पर क्या पूरी भीङ एक हो जाये तो ऐसे आपराधिक तत्वों को सबक नहीं सिखाया जा सकता ...?
यह भी दुखद है कि हम आज भी अपने राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का मान करना नहीं सीख पाये हैं। हमारे परिवेश को स्वच्छ रखने के प्रति भी अपनी जिम्मेदारी हम कहां समझते हैं...? ज़रा सोचिये ....हमारा घर, आस-पड़ौस, फिर एक कॉलोनी, शहर और फिर देश हम सब चाहें तो क्या सुंदर और स्वच्छ नहीं रह सकते...?

अपनी सांस्कृतिक विरासत का मान करें। गर्व महसूस करें भारतीय होने का क्योंकि हमारा देश है तो हम हैं, हमारी पहचान है | जबकि हमें सबसे ज्यादा कमियां ही हमारी संस्कृति और परम्पराओं में नज़र आती हैं  | ऐसी अनगिनत बातों की सूची तैयार की जा सकती है जिन्हें भारत का एक आम नागरिक बिना किसी परेशानी के कर सकता है और करना भी चाहिए पर करता नहीं हैं। क्योंकि देश और समाज के प्रति कर्तव्य निभाने का पाठ तो हमारे  परिवारों में पढाया ही नहीं जाता। 
हम खुद सोच सकते हैं कि एक परिवार में जो व्यक्ति (महिला हो पुरूष) अगर अपने कर्तव्य नहीं निभा नहीं पाता तो अपने अधिकारों को भी खो देता । फिर यह तो पूरे देश की बात है । हमारे संविधान में हमारे कर्तव्य और अधिकार दोनों बताये गये है तो फिर हल्ला सिर्फ अधिकारों को लेकर ही क्यो....? अभी कुछ समय से विदेश में हूं तो यह देखा और जिया है कि यहां की  जिन बातों से हम भारतीय सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं उनको बनाये रखने में  सरकार से ज्यादा यहाँ की जनता की भूमिका है। फिर चाहे वो साफ-सफाई हो या यातायात के नियमों का पालन । यहां आम नागरिक अपनी जिम्मेदारी जानता, समझता और  निभाता है। 

हम सब भी अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्यों को निभाने की सोच लें क्या कुछ भी नहीं बदलेगा..? हमें यह तो याद रखना ही होगा कि अगर देश में शांति, सुरक्षा और सद्भाव ही नहीं रहेगा तो अधिकार लेकर भी कैसा जीवन जी पायेंगें हम......?

08 August 2011

शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व .......!



Peaceful Coexistence .. न जाने इस  शब्द को समझना जितना आसान है जीवन में उतारना उतना ही मुश्किल क्यों है...? साझी संस्कृति, साझा जीवन देखने जानने में जितना सरल लगता है उसे अपनाने में उतनी जटिलताएं सामने आने लगती हैं |  हालांकि सह-अस्तित्व  की सोच तो प्रकृति की हर इकाई के लिए आवश्यक है पर मनुष्य को इस विषय में कुछ ज्यादा विचार करने की आवश्यकता है |  क्योंकि घर-परिवार से लेकर देश दुनिया तक हम (दूसरों) यानि कि अपने अलावा प्रकृति की हर इकाई के अस्तित्व को नकार कर अपने अस्तित्व को बनाये रखने और उसकी श्रेष्टता सिद्ध करने की कोशिश में लगे रहते हैं | 


हमारे घर परिवारों में कई बार यह देखा जाता है की हम एक दूसरे समझना तो चाहते हैं पर समझ  नहीं पाते | या यूँ कहा जाये की स्वयं को सर्वोपरि समझने की सोच किसी दूसरे व्यक्ति के अस्तित्व को स्वीकारनें ही नहीं देती | यह सोच बीते कुछ बरसों में ज्यादा प्रबल हुई है ...औरों के अधिकारों के बारें में न सोचकर बस खुद की उपयोगिता का गुणगान करना हमारी आदत बन चुका है | हाँ , इतना अंतर ज़रूर है की कोई ये श्रेष्ठता प्रमाणित करने का कार्य बोलकर करता है तो कोई चुपचाप ऐसा करके सहानुभूति भी साथ बटोर लेता है | 


अपने अलावा किसी और के अस्तित्व को स्वीकार कर उसे सम्मान देने का काम घर हो या बाहर कोई आसानी से नहीं कर पाता | यहीं से एक अंतर्विरोध और संघर्ष शुरू होता है | एक अघोषित युद्ध , जो अपनत्व और सहभागिता की सोच को पूरी तरह मिटा देता है | 


मौजूदा दौर में अकेलेपन की सौगात भी हमें इसी सोच के चलते मिली है | क्योंकि अगर हम हमसे जुड़े लोगों की आकांक्षाओं और भावनाओं का मान ही नहीं कर पायेंगें तो संबंधों का बिखरना तो तय है | यही तो रहा है हमारे  परिवारों में, हमारे समाज में | सबको शीर्ष पर पहुंचना है अपना अस्तित्व बनाने और बनाये रखने की चिंता खाए जा रही है पर यह सोचने का समय किसी के पास नहीं की मेरा अस्तित्व अगर है भी, तो क्यों है.....? किसके लिए है....?

02 August 2011

शगुन और संस्कृति के रंग लिए लहरिया....!


         
राजस्थान या राजस्थानी संस्कृति से जुङे लोगों के लिए लहरिया सिर्फ कपङे पर उकेरा गया डिजाइन या स्टाइल भर नहीं है। ये रंग बिरंगी धारियां शगुन और संस्कृति के वो सारे रंग समेटे हैं जो वहां के जन जीवन का अटूट हिस्सा हैं। यहां सावन में लहरिया पहनना शुभ माना जाता है। आज भी गांव ही नहीं शहरी संस्कृति में भी लहरिया के रंग बिरंगे परिधान अपनी जगह बनाये हुए है। लहरिया की ओढनी या साङी आज भी महिलाओं के मन को खूब भाती है। 

राजस्थान के उल्लासमय लोक सांस्कृतिक पर्व तीज के अवसर पर धारण किया जाने वाला सतरंगी परिधान लहरिया खुशनुमा जीवन का प्रतीक है। सावन में पहने जाने वाले लहरिये में हरा रंग होना शुभ माना जाता है । जो कि प्रेरित  है प्रकृति के उल्लास और सावन में हरियाली की चादर ओढे धरती  माँ  के हरित श्रृंगार से । 


लहरिया राजस्थान का पारंपरिक पहनावा है । सावन के महीने में महिलाएं इसे जरूर पहनती हैं। शादी के बाद पहले सावन में तो  बहू-बेटियों को बहुत मान-मनुहार के साथ लहरिया लाकर दिया जाता है। आज भी राजसी घरानों से लेकर आम परिवारों तक लोक संस्कृति की पहचान लहरिया के रंग बिखरे हुए है। 

कहते हैं कि प्रकृति ने मरूप्रदेश को कुछ कम रंग दिए तो यहां लोगों ने अपने पहनावे में ही सात रंग भर लिए, लहरिया उसी का प्रतीक है। रेगिस्तान में बसे लोगों के सृजनशील मन ने तीज के त्योंहार और लहरिया के सतरंगी परिधान को जीवन का हिस्सा बना प्रकृति और रंगों से नाता जोड़ लिया | तभी तो राजस्थान के अनूठे लोक जीवन की रंग बिरंगी संस्कृति के द्योतक लहरिया पर कई लोकगीत भी बने है। 

हमारी संस्कृति के परिचायक कई रीति रिवाज हैं जो यह बताते है कि हमारे परिवारों में बहू-बेटियों की मान मनुहार के अर्थ कितने गहरे हैं ? सावन के महीने में तीज के मौके पर मायके या ससुराल में बहू-बेटियों को लहरिया ला देने की परंपरा भी इसी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा रही है और आज भी है । यह त्योंहार यह बताने का अवसर  है कि बहू-बेटियों के जीवन का सतरंगी उल्लास ही हमारे घर आंगन का इंद्रधनुष है।