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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

27 July 2011

महिलाओं की सफलता के पीछे भी है पुरुषों का हाथ.....!


अक्सर यह सुनने में आता है की पुरुषों की सफलता के पीछे किसी न किसी(माँ ,पत्नी, बहन) रूप में एक महिला का हाथ होता है। ऐसे में यह सवाल भी लाज़मी है की दुनिया भर में अपनी कामयाबी का परचम लहराने वाली भारतीय महिलाओं के पीछे क्या किसी पुरुष का सहयोग और साथ नहीं है? यह सच है की औरतों के साथ कुछ घरों आज भी सामंतवादी सोच के चलते अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता पर तस्वीर के दूसरे पहलू पर भी गौर करना जरूरी है। हमारे समाज में आज ऐसे घरों की भी कमी नहीं है जहाँ पूरे घर-परिवार से लड़कर भी पिता अपनी बेटियों को घर से दूर पढने और काम करने की इज़ाज़त देकर उनका हौसला बढ़ा रहे है। ऐसे जीवनसाथी भी मिल जायेंगे जिनके साथ और सहयोग से कई लड़कियां शादी के बाद भी अपनी पढाई लिखाई जारी रख रही हैं और करियर में नए आयाम छू रही है। बहन की कोई इच्छा पूरी न होने पर माता-पिता से लड़ने वाले भाई भी कम नहीं । मैंने ऐसे कई घर देखे हैं जहाँ करियर और पढाई के बाबत बहन पर रोकटोक हो तो भाई बहन की जमकर वकालत करते हैं।


आये दिन सफलता की नयी इबारत लिख रही महिलाओं के पीछे भी किसी न किसी रूप में पुरुषों का सहयोग जरूर है। फिर चाहे वो मनोबल और मार्गदर्शन देने वाले पिता हों, संबल देने वाला जीवनसाथी या बहन की सफलता से गौरान्वित होने वाले भाई।


मौजूदा दौर में सशक्त बनती बेटियों के पीछे उनके स्नेहिल पिताओं का बहुत बड़ा हाथ है। क्योंकि बात चाहे ऊंची तालीम की हो या करियर बनाने की बेटियों को पीछे रखने का विचार भी उनके मन में नहीं होता। 


आज के पापा बेटी की परवरिश में भी कोई कमी नहीं रखना चाहते। अनुशासन और व्यवहारिकता का पाठ पढ़ने वाले पापा ही बेटी के सपनों को पंख फ़ैलाने का असमान देते हैं । पिता के रूप में एक पुरुष बेटी के जीवन की नींव  को वो मजबूती देता है जिसके दम पर वो पूरी जिंदगी हौसले के साथ जी सकती है। तभी तो आजीवन बेटियां अपने पिता के व्यक्तित्व से प्रभावित रहतीं हैं। इसी तरह स्नेह और सुरक्षा का नाता भाई बहन का होता है। भाई जो चाहे उम्र में छोटा हो या बड़ा बहन के लिए हमेशा फिक्रमंद रहता है। आजकल कई घरों में देखने में आ रहा है की बहन कि पढ़ाई या नौकरी के बारे में अगर माता-पिता को कोई संकोच होता है तो भाई उन्हें समझाते हैं कि लड़कियों का पढना लिखना कितना जरूरी है? हर तरह से बहन का बचाव करना हमारे यहाँ के भाई अपना फ़र्ज़ समझाते है।


शादी के बाद किसी महिला के लिए संबल और स्नेह का स्रोत होता है पति का साथ। बीते कुछ बरसों में जीवनसाथी की सोच में आये सकारात्मक बदलावों ने महिलाओं को और सशक्त किया है। वे पत्नी की तरक्की में अपना पूरा योगदान दे रहे हैं। देखने में आ रहा है उन्हें पत्नी कि कामयाबी और उपलब्धियां हीन भावना नहीं देतीं बल्कि गौरव का अहसास कराती हैं । बहुत अच्छा लगता है यह देखकर कि शादी के बाद भी कई पति अपनी पत्नी को आगे पढने और आत्मनिर्भर बनने की राह सुझाते हैं और ज़रुरत पड़े तो परिवार के उन सदस्यों से भी लड़ जाते हैं जिनकी सोच रूढ़िवादी है।


हमारे समाज में ऐसे परिवारों की गिनती आज भले कम है जहाँ बेटियां पिता की विरासत तक संभाल रही हैं पर हकीकत यह भी है की इस संख्या में हो रहा इजाफा उस बदलाव की ओर इशारा करता है जहाँ पुरुषों को हर हाल, हर रूप में शोषक की उपाधि देना सही नहीं है। क्योंकि जिंदगी के अच्छे-बुरे वक़्त में पिता, पति या भाई किसी न किसी रूप में पुरुष भी हमारे साथ खड़े नज़र आते है।

12 July 2011

आम औरत की छवि बिगाड़ते टीवी धारावाहिक...!

टेलीविजन पर प्रसारित होने वाले अधिकतर धारावाहिकों में मुख्य किरदार महिलाओं के ही होते हैं।  छोटे पर्दे दिखाये जाने वाले ज्यादातर धारावाहिकों में महिलाएं नई-नई कूटनीतिक चालें चलकर बड़े-बड़े घरानों को बर्बाद या आबाद कर सकती हैं। उच्च वर्ग का रहन सहन इन सीरियल्स पर इतना हावी है कि आम महिलाओं के जीवन से जुडी समस्याओं के लिए इनमें कोई जगह नजर नहीं आती। इतना ही नहीं इन धारावाहिकों में कुछ बातें तो हकीकत से बिल्कुल उलट ही नजर आती है। 

 इन सीरियल्स के ज्यादातर महिला किरदार कामकाजी न होकर गृहणी के रूपे में गढे जाते हैं । इन धारावाहिकों  में घरों में होने वाली उठा-पटक काफी तड़क-भड़क  के साथ परोसी जाती है। जिनमें महिला किरदार अहम भूमिका निभाते नजर आते है। 

इन धरावाहिकों में परंपरा के नाम पर कुछ भी परोसा जा रहा है | आधारहीन कल्पनाशीलता के नाम पर इनमें कई गैर जिम्मेदाराना बातें दिखाई जाती है। हद से ज्यादा खुलापन और और सामाजिक रिश्तों की मर्यादा से खिलवाड़ को तकरीबन हर सीरियल की कहानी का हिस्सा बनाया जाता है। हैरानी की बात तो यह है कि यह सब कुछ भारतीय सभ्यता और संस्कृति के नाम पर पेश किया जा रहा है। जिसका विचारों और संस्कारों पर गहरा असर पड रहा है। बहुत से धारावाहिकों में विवाहेत्तर संबंधों को प्रमुखता से दिखाया जाता है। 

अधिकतर भारतीय भाषा और साज सज्जा में दिखाये जाने वाले महिला पात्रों को व्यवहारिक स्तर पर ऐसे कुटिल, कपटी और षडयंत्रकारी रूप में टेलीविजन के पर्दे पर उतारा जा रहा है जो हकीकत के सांचे में फिट नहीं बैठते। विवाह संस्कार हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी  विशेषता रही है, जबकि इन धारावाहिकों में शादी जैसे गंभीर विषय को भी मनमाने ढंग से दिखाया जाता है। 

 भारतीय सभ्यता ,संस्कृति और पारिवारिक मूल्यों के नाम पर दिखाई जा रही ये कहानियां  परंपरागत मान्यताओं अवमूल्यन और सामाजिक सांस्कृतिक विकृति को जन्म दे रही हैं.है। दिनभर में कई बार प्रसारित होने वाले इन धारावाहिकों के दर्शक लगभग हर उम्र के लोग है। आमतौर पर सपरिवार देखे जाने वाले इन टीवी सीरियलों से परिवार का हर सदस्य चाहे छोटा हो बडा, जैसा चाहे वैसा संदेश ले रहा है। 

आलीशान रहन सहन और हर वक्त सजी धजी रहने वाली महिला किरदारों की जीवन शैली एक आम औरत को हीनभावना और उग्रता जैसी  सौगातें दे रही है।  टीवी चैनलों पर हर वक्त छाये रहने वाले इन धारावाहिकों में संस्कारों की बातें तो बहुत की जाती है पर पात्रों की जीवन शैली और दिखाई जाने वाली घटनाओं का देखकर महसूस होता है कि इनके जरिए कुछ नई धारणाएं , नए मूल्य गढ़े जा रहे हैं। 

ऐसे कार्यक्रमों के बीच में दिखाये जाने वाले विज्ञापन भी खासतौर महिलाओं को संबोधित होते हैं। कई टीवी सीरियलों के तो कथानक ही विज्ञापित प्रॉडक्ट का सर्मथन करने वाले होते हैं। बात चाहे पार्वती और तुलसी जैसे किरदारों द्धारा पहनी मंहगी साड़ियों की हो या रमोला सिकंद स्टाइल बिंदी की । इन सास बहू मार्का सीरियलों में दिखाये जाने वाले उत्पाद आसानी से बाजार में अपनी जगह बना लेते हैं।  इन सीरियलों में महिला किरदारों का प्रेजेंटेशन और साज सज्जा  का इतना व्यापक असर होता है कि बाजार में इन चीजों की मांग लगातार बनी रहती है। 


ये महिला किरदार या तो पूरी तरह आदर्श होते हैं या नैतिकता से कोसों दूर। जिसका सीधा सा अर्थ यह है कि टीवी सीरियल्स में दिखाये जा रहे महिला चरित्र वास्तविकता से परे हैं। क्या एक आम महिला दिन भर सज-धज कर सिर्फ कुटिलता करने की योजना बनाती  रहती है ..? ज़्यादातर गृहणियां ऐसा करते दिखाई जाती हैं ...जबकि हकीकत यह है घर पर रहने वाली महिलाओं को इतना काम होता है की स्वयं के लिए भी समय नहीं मिलता | कामकाजी महिलाओं की व्यस्तता तो और भी ज्यादा है ... |  सच में मुझे तो ये किरदार घर-परिवार और समाज में मौजूद आम महिलाओं की छवि बिगाड़ने वाले ही लगते हैं...!



06 July 2011

सवालों में उलझा बचपन .....!


इसे मासूम  मन में उपजी जिज्ञासा कहें या सब कुछ जान लेने की जल्दबाजी , बच्चों के  क्या ,क्यों और कैसे का सिलसिला कभी ख़त्म नहीं होता । कई बार तो प्रश्र ही ऐसे होते है कि अभिभावक उलझ कर रह जाते हैं। उनके प्रश्नों को टाल जाना ही बड़ों को बचने का एकमात्र मार्ग नज़र आता है | पर क्या यह सही है ? कभी कभी लगता  है की बच्चों का भी अधिकार है की वे अपने प्रश्नों का सही और संतुलित उत्तर पा सकें | 


हम बड़े  खुद को मानसिक ज़द्दोज़हद से बचाने के लिए भी बच्चों के सवालों से बचने का भरसक प्रयत्न करते हैं | अक्सर यह भी कहते रहते हैं कि आजकल के बच्चे सवाल बहुत करते हैं। आप स्वयं ही सोचिये  आज के दौर में बच्चों के पास घर बैठे ही कई जानकारियों का अंबार लगा है। टीवी, इंटरनेट के जरिए इंर्फोमेशन एक्सप्लोजन की स्थिति की आ गई। बच्चों को मिलने वाली यह चाही अनचाही जानकारी उनके मन में कई प्रश्रों को पैदा करती है।

विज्ञापनों और टीवी कार्यक्रमों के जरिए कई विषयों का ज्ञान तो उन्हें उम्र से पहले ही हो रहा है। जाहिर सी बात है सूचनाओं कि यह बाढ प्रश्नों की  सौगात तो साथ लाएगी ही | यही सवाल अभिभावकों की भागदौड़ भरी ज़िन्दगी और बच्चों की मानसिक अपरिपक्वता पर भारी पड़ रहे हैं | 


माता-पिता अक्सर बच्चों के सवालों को लेकर टालमटोल की मानसिकता रखते हैं। याद रखिए बच्चे के मन में उठ रहे सवालों को सही ढंग शांत करना हर अभिभावक की जिम्मेदारी  है। हम सबके लिए ज़रूरी है कि अगर बच्चे के सवाल अटपटे और उलझाऊ हों तो आप उन्हें कुछ समय बाद बात करने को कहें और प्यार से समझाइश दें पर गुस्सा या टालमटोल ना करें। आप भी बच्चों की मानसिक जद्दोज़हद समझने की कोशिश करें। यह स्वीकार करें कि बच्चे की यह उम्र जिज्ञासा से भरी होती है और उनके मन में पल पल कई सवाल जन्म लेते हैं। 


विशेषज्ञों का मानना है कि तीन साल की उम्र में तो  बच्चे सबसे ज्यादा प्रयोग ही क्यों.......? शब्द का करते हैं। इसलिए माता-पिता को चाहिए कि उनके इन सवालों को उनके शारीरिक और मानसिक विकास का हिस्सा समझें और टालने के बजाय सुलझाने की कोशिश करें। मुझे तो यह भी  लगता है कि इन सवालों के माध्यम से हम अपने बच्चे को बेहतर  ढंग से समझ सकते हैं | 

ना केवल बच्चों को समझाने के लिए बल्कि उन्हें समझने के लिए भी उनके सवालों पर गौर करना अति आवश्यक है।  उम्र और परिस्थितियों के अनुसार बच्चों के सवाल बदलते रहते हैं। ऐसे में अभिभावक  बच्चों के सवालों को धैर्य से सुनकर उनके व्यवहार में आ रहे बदलावों को भी समझ सकते हैं। आमतौर पर बच्चों के मन में शारीरिक बदलाव , रिश्तेदारी, जन्म-मृत्यु और धर्म कर्म से जुङे काफी सवाल रहते हैं। ऐसे में बच्चे के सवालों को गैर ज़रूरी बताकर नज़रंदाज़  करने के बजाय उनके मनोविज्ञान को  समझने की कोशिश जरूरी है।

जहाँ तक हो सके बच्चों के प्रश्नों का गलत जवाब कभी न दें  | कई बार बच्चों के सवालों को माथापच्ची समझ, उन्हें निपटाने की सोच के साथ अभिभावक गलत जवाब भी दे देते हैं। जबकि ऐसा कतई नहीं होना चाहिए। बच्चें की जिज्ञासा को सही तरीके से शांत करें । इस उम्र में बताई गई कई बातें हमेशा के लिए उनके मन-मस्तिष्क में घर कर जाती हैं, जिससे आगे चलकर उनका पूरा व्यक्तित्व प्रभावित होता है। कई बार गलत जवाब पाकर बच्चे के मन में संशय और बढ जाता है। ऐसे में उनकी उत्सुकता को कभी गलत जवाब देकर और ना उलझाएं। बच्चे यों भी गलत चीजों के प्रभाव में बहुत जल्दी आ जाते हैं | इसलिए उन्हें गलत जवाब देकर उनके मन में और भटकाव को जन्म न दें।