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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

30 May 2011

पैसिव स्मोकिंग ......बिना ख़ता के सजा .....!





पैसिव स्मोकिंग की समस्या जिसे वैज्ञानिक भाषा में सैकंड हैंड स्मोकिंग भी कहते हैं, उन लोगों के लिए सजा बन रही है जो खुद स्मोकिंग नहीं करते हैं। सैकंड स्मोकिंग यानि कि वह धूम्रपान जो व्यक्ति खुद नहीं करता पर दूसरे द्वारा धूम्रपान किए जाने पर उसके धुएं की ज़द में आ जाता है ।

पैसिव स्मोकिंग खासकर तब ज्यादा खतरनाक हो जाती है जब धूम्रपान करने वाला व्यक्ति घर का ही कोई सदस्य हो। नॉन स्मोकर्स जो कि धूम्रपान करने वाले व्यक्ति के दोस्त, रिश्तेदार,सहकर्मी या फिर घर सदस्य होते हैं बिना खता के गंभीर बीमारियों की सजा पाते हैं।

सैंकड हैंड स्मोंकिंग की वजह से बच्चों को सबसे ज्यादा नुकसान होता है। आमतौर पर पेरेंटस का सोचना होता है कि अगर वे घर से बाहर जाकर धूम्रपान करते हैं ,  तो बच्चे पैसिव स्मोकिंग के खतरों से सुरक्षित रहते हैं। जबकि हकीकत यह है कि बच्चों की गैरमौजूदगी में धूम्रपान करने वाले अभिभावकों के बच्चे भी पैसिव स्मोकिंग के अनगिनत दुष्प्रभाव झेलते हैं।

धूम्रपान करने वाले अभिभावकों के घरों में सांस लेने वाली हवा में खतरनाक स्तर का निकोटीन पाया जाता है। निकोटीन के ये नुकसानदेह तत्व माता-पिता के कपङों और अन्य सामान में भी चिपके रहते हैं।

सैकंड हैंड स्मोकिंग से हमारा पूरा परिवेश ही प्रदूषित रहता है। यही वजह है कि इसे ईटीएस यानि कि एन्वॉयरमेंटल टॉबेको स्मोक भी कहा जाता है।

आज भी सैकंड हैंड स्मोकिंग को ज्यादा विचारणीय नहीं माना जाता। लोगों के मन यह सोच होती है अगर वे स्वयं धूम्रपान नहीं करते तो उसके खतरों से भी सुरक्षित हैं। स्वयं धूम्रपान करने वाले खुद भी नहीं जानते कि वे अपने परिवार, समाज , पर्यावरण और मासूम बच्चों की सेहत को जाने अनजाने कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं...........और उनके अपनों  को बिना ख़ता के सजा मिल रही है |  


कृपया धूम्रपान के खतरों से स्वयं को ......पर्यावरण  को और हमारे परिवारों को बचाएं...... विश्व तम्बाकू निषेध दिवस पर एक अपील.....!


27 May 2011

असामाजिक बनाती सुरों से दोस्ती....!



आये दिन बाज़ार में उतरने वाली नई तकनीक जीवन में क्या क्या बदलाव ला रही है यह तो हम सब समझ ही सकते हैं पर जो परिवर्तन सबसे ज्यादा नज़र आ रहा  है वो है असामाजिकता | यानि तकनीक के सीमा से ज्यादा इस्तेमाल ने कई तरह से हमारी सामाजिक सोच और साझे जीवन को प्रभावित किया है | खासकर  नई पीढ़ी  इन चीज़ों अपने जीवन में कुछ इस तरह से शामिल कर रही है कि समाज और परिवार तो दूर उन्हें  खुद  अपने  विषय में भी सोचने का समय नहीं है | 

ऐसा  ही एक शौक पिछले कुछ वर्षों से युवा पीढ़ी के सर चढ़कर बोल रहा है.........हर समय संगीत सुनने का शौक या कहूं की लत | खास बात यह है कि सुरों के साज है मोबाइल फोन और आइपॉड जैसे यंत्र । इन पोर्टेबल यंत्रों ने नौजवानों की दिनचर्या कुछ ऐसी बना दी है कि सुबह आंख खुलने से लेकर रात को बिस्तर में जाने तक सिर्फ संगीत में ही डूबे रहते हैं। जगह कोई भी हो घर, ऑफिस, सड़क, पार्क, ट्रेन , बस या फिर खाने की टेबल ..........! 

पार्क में जॉगिग कर रहे हों या गाड़ी चला रहें हों , संगीत कानों में बजना जरुरी है। मानो कानों को संगीत  सुनने की लत-सी पड़ हो गई हो। यह एक ऐसा नशा बन गया है कि बाहर की दुनिया की आवाजें कोई मायने नहीं रखतीं। कानों में क्या बज रहा है....?  और क्यों बज रहा है.......? इसके बारे में सोचने तक की फुरसत नहीं। बस है तो एक जुनून की कानों में कुछ आवाज बजती रहे।


मोबाइल हो या आईपॉड, दो बटन कानों में लगाओ और सारी दुनिया से कट जाओ। जिसके चलते बाहर की दुनिया में क्या घट रहा है.......?  इसे न वे सुन पाते हैं........!  न ही समझ सकते हैं.......!  नतीजतन कुछ सोचने-विचारने की तो आदत ही नहीं रहती। हरदम  संगीत  में खोये रहने वाले लोग न कुछ सुनना चाहते हैं और न ही कुछ कहना। ऐसे में धीरे-धीरे उनकी पारिवारिक और सामाजिक संवेदनशीलता भी खत्म हो रही  है। 


असामाजिक सोच के अलावा  अनगिनत मानसिक, शारीरिक और मनोवैज्ञानिक समस्याओं को भी यह आदत न्योता दे रही है | हरदम अपने परिवेश से कटे रहने वाले इन्हीं लोगों के साथ  कार या बाइक चलाते समय सबसे ज्यादा दुर्घटनाएं घट रही हैं | जब सड़क पर होते हैं तो कानों में बजने वाले संगीत कि आवाज़ भी तेज़ होती है और अपने आस पास कि कई आवाजें कानों तक पहुँच ही नहीं पातीं नतीजा कई तरह की दुर्घटनाओं के रूप में सामने आता है | इतना ही नहीं घर में किसी सदस्य की बात सुनने के लिए कानों को इस शोर से मुक्त नहीं किया जाता | 

कानों से सटाकर संगीत सुनने वाले इन उपकरणों के जरिए अनगिनत परेशानियां सौगात में मिल रही हैं | हर समय कानों के अंदर बजने वाले म्युजिक के कारण सुनने और बोलने की क्षमता बहुत प्रभावित होती है। लगातार म्युजिक सुनते रहने से सुनने की ताकत हमेशा के लिए भी खो सकती हैं। बहरेपन के साथ ही निरंतर संगीत में खोए रहने वाले लोगों को उंचा बोलने की आदत भी हो जाती है। ऐसे लोगों को शब्द कई बार दोहराने पर ही समझ आते हैं। 


इन उकरणों के एक सीमा से ज्यादा प्रयोग की वजह से कान में तेज दर्द और सूजन जैसी समस्या भी हो सकती है। इयरप्लग या इयरफोन लगाये रहने वालों के कानों में बड़ी संख्या में बैक्टीरिया जमा होने के चलते इन्फेक्सन की समस्या भी हो जाती है | 80 डेसीबल या इससे ज्यादा की आवाजें हमारी श्रवण शक्ति को नुकसान पहुंचाती हैं। इतना ही नहीं यदि कम डेसीबल की आवाजें भी लम्बे समय तक लगातार सुनी जाएं, तो वे भी हमारी सुनने की क्षमता पर बुरा असर डालती हैं। हर समय कान में म्युजिक बजते रहने के चलते  मानसिक बैचेनी और चिड़चिड़ापन भी पैदा होने लगता  है। 

सुबह सुबह पार्क में  लोगों  को कानों इयरफोन लगाये देखती हूँ सोचती हूँ सुबह की सैर के समय चिड़ियों की चहक या पत्तों की सरसराहट भी तो एक संगीत है, जो  हमें  प्रकृति के करीब लाता है। इसी तरह अपनों  के साथ बैठकर कुछ पल बतियाना, हंसी ठिठोली करना या फिर किसी अपने के गम को बांटना भी हमें वो संतुष्टि दे जाता  है, जो हर वक्त हमारे कानो में गूंजने वाले शोर-शराबे से कहीं बेहतर ही नहीं, सुकून देने वाला भी हो सकता है। 

25 May 2011

यह कैसी समस्या ....?


पिछले दो दिन से मैं कुछ ब्लोग्स पर और स्वयं अपने ब्लॉग पर भी कमेन्ट नहीं कर पा रही हूँ....... मेरे ब्लोगर प्रोफाइल में लोगिन होने के बाद भी कमेन्ट बॉक्स में सेलेक्ट प्रोफाइल का मेसेज आ रहा है...... और मैं अपने प्रोफाइल आई डी के साथ अपने विचार अन्य ब्लोग्स के  कमेन्ट बॉक्स में नहीं छोड़ पा रही  हूँ......  क्या दूसरे  ब्लोग्स  के साथ भी ऐसी कोई समस्या है .... ?  यह समस्या ब्लागस्पाट की है या मेरे ब्लॉग सेटिंग्स की ......और इसका क्या कारण हो सकता है .... कृपया सुझाएँ ....

19 May 2011

छुट्टीयाँ ...जी, वो तो छुट्टी पर हैं......!



साल भर की मेहनत के बाद आने वाली गर्मी की छुट्टीयां बच्चों के लिए किसी ईनाम से कम नही होतीं । अगर अपना समय सोचें तो छुट्टी यानि दादी-नानी के घर में धमा-चौकङी और गांव के खेतों की पगडंडी याद आती है। कुछ ऐसी यात्राओं का स्मरण होता है जिनकी ना तो प्री-प्लानिंग होती थी और ना ही जिनसे कुछ अपेक्षाएं रखी जाती थीं।


अब तो हाल यह है कि छुट्टीयां आने से पहले ही प्री-प्लानिंग हो जाती है कि बच्चा अब के साल क्या सीखेगा..............? या यों कहूं कि क्या-क्या सीखेगा...? खासकर मम्मियां तो इस कदर इस मिशन में जुट जाती है कि बच्चों को स्कूल  के दिनों की व्यस्त दिनचर्या भी इन तथाकथित छुट्टीयों से बेहतर लगती है। छुट्टियाँ शुरू होने के पहले ही एक निश्चित समय सारणी बना दी  जाती है और बच्चों के हर पल को कुछ सीखने के लिए तय कर दिया जाता है।



छुट्टियों में मिलने वाले समय में बच्चे कुछ सीखें  और समय का सदुपयोग करें यह अच्छा है पर  इतना कुछ सीखें कि उम्र के साथ समझने और जानने के लिए कुछ न बचे  तो क्या लाभ ....? पापा की पसंद क्रिकेट और स्विमिंग तो मम्मी की पसंद पेंटिंग और डांस | उनकी अपनी पसंद और कल्पनशीलता तो जबरन थोपे गए अनगिनत क्लासेस के नीचे दम तोड़ देती है | ऊपर यह अपेक्षाएं भी जो कोर्स करवाए जा रहे हैं उनमें भी अव्वल रहें | न जाने क्यों मुझे तो यही लगता है सब कुछ सीखने की इस जद्दोज़हद ने  बच्चों की सोचने-समझने की शक्ति को छीन लिया है | 


जब बात यह होती है कि बच्चा क्या सीखे......? तो निश्चित तौर पर उसकी रूचि को जानना और उसकी क्षमता की सोचना तो अभिभावकों को बेकार ही लगता है क्योंकि बच्चा तो बच्चे की तरह ही सोचेगा। भावी की जीवन रूपरेखा तैयार कर हॉबी क्लास ज्वाइन करने के गुर उसको इस उम्र में कहां से आयेंगे ...? इसलिए इसका निर्णय पूरी तरह से मम्मी पापा पर ही होता है कि क्या कोर्स किए जाएं......? मम्मी पापा का निर्णय आमतौर पर दो बातों से बहुत प्रभावित होता है.......



जो मैं नहीं कर पाया वो मेरा बेटा या बेटी जरूर करेगा चाहे बच्चे की रूचि उस चीज में हो या नहीं......


आस-पङौस में किसके बच्चे क्या कर रहे हैं....? अरे पीछे थोङे ही रहना मिसेज फलां फलां के बच्चे से..........!


कई बार तो लगता है कि बच्चों की छुट्टीयां भी दिखावा संस्कृति की भेंट चढ गईं हैं। एक बार बच्चा कोर्स ज्वाइन तो करे..... हर नाते रिश्तेदार को बाकयदा फोन करके बताया जाता है कि छोटू क्रिकेट सीख रहा है या अबैकस की क्लासेस कर रहा है। गुङिया आजकल हॉर्स राइडिंग सीख रही है या भरतनाट्यम डांस। कितनी फीस दे रहे हैं और हमारे बच्चे छुट्टीयों को किस तरह एन्ज्वॉय कर रहे हैं। उधर बच्चों के मन यह  मलाल है कि उनकी छुट्टियाँ तो इस साल भी छुट्टी पर हैं :(

मैं भी मानती हूं कि बच्चे हमारे घर-परिवार के प्रतिनिधि होते हैं पर उन्हें घर के बङों की पसंद की गतिविधियों का शो केस बना देना कहां तक उचित है ?


उन बच्चों के मन में तो झांकिए जिन्हें साल भर के बाद यह फुरसत मिली है । वे तो बचपन में ही भूल रहे है कि बचपन क्या होता है ? बाकी समय नहीं तो कम से कम स्कूल की छुट्टीयों का समय तो उन्हें जीने को मिले। कुछ मन मर्जी का करने की छूट हो। ताकि उनका मन दुखी ना हो कि गर्मियां तो आती है पर छुट्टीयां नहीं आती.........!

07 May 2011

नन्हे हाथों से सजा प्यारा उपहार.....!




दुनिया की हर माँ के लिए उसके जीवन की धुरी होते हैं उसके बच्चे | गर्भनाल के साथ जुड़ने वाला यह रिश्ता माँ और बच्चे को हमेशा के लिए एक कर देता है  | वो माँ ही तो  होती है जो बिन कहे समझ जाती है अपने बच्चे के मन के भाव  और पूरी तरह अपना जीवन समर्पित कर देती है उस नन्ही जान के लिए |



यूँ तो माँ की ममता की बात करने के लिए कोई एक दिन तय नहीं किया जा सकता पर फिर भी शायद यह सोचकर इस दिन (मदर्स डे )की शुरुआत हुई की, माँ को भी यह महसूस करवाया जाय की  वो भी खास है बहुत खास ..........!

ऐसा ही स्पेशल आज मुझे भी महसूस जब चैतन्य  एक सुंदर कार्ड और गिफ्ट लेकर आया स्कूल से | उसके नन्हे हाथों से सजा यह उपहार पाकर बहुत अच्छा लगा |


गिफ्ट पैक को देखकर ही लग रहा था कि जैसे- तैसे पेपर को सैट कर उसने अपने नन्हे हाथों से टेप लगाने का काम बड़ी मेहनत से किया होगा  | यकीन मानिये मैंने इतने सालों में कोई गिफ्ट इतने ध्यान और अहतियात से नहीं खोला :) 

उसका बनाया कार्ड देखकर मन खुश हुआ | इसमें  जो लिखा था वो शायद उसकी टीचर ने लिखा है  या फिर नेट से ली गयी कोई कोटेशन है ................!

सुंदर से इस कार्ड में उसका  नन्हा हाथ छपा था और ये  पंक्तियाँ लिखी थीं .......... 

Sometimes you get discouraged
Because I am So small
And always leave my fingerprints
On furniture and walls

But every day I 'm growing
I 'll be grown some day
And all those tiny handprints
Will surely fade away

So here 's a little handprint
Just So you can recall
Exactly how my fingers looked
When  I was very small  


पढ़ते ही आँखें भीग गयीं और उसका दिया गिफ्ट काम आया  :)
टिश्यू पेपर :) मेरा गिफ्ट ......... 



संसार की हर माँ की ममता को मेरा नमन ....... मेरी ओर से सभी माओं को इस खास दिन  (मदर्स डे ) की हार्दिक शुभकामनायें 

05 May 2011

बाल विवाह - कुरीति एक.........कारण अनेक.....!


कच्ची उम्र में विवाह के बंधन में बांध दिए जाने वाले बच्चों का जीवन कितना तकलीफों भरा हो सकता है यह समझना किसी के लिए मुश्किल नहीं। यहां तक कि उन अभिभावकों के लिए भी नहीं जो खुद मासूमों को नव दंपत्ति के रूप में आशीर्वाद देते है। ऐसा इसलिए कह रही हूं क्योंकि राजस्थान के गांव से जुङे होने के कारण ऐसे बाल विवाह काफी करीब से देखे हैं। उन अभिभावकों के साथ बैठकर बात भी की है जिनमें हम जागरूकता की कमी मानते हैं। आमतौर पर बाल विवाह जैसी कुरीति के विषय में समाचार पत्र भी इन खबरों से अटे रहते हैं कि गांवों में लोग अशिक्षित हैं और यह नहीं समझते कि बाल विवाह यानि कि बचपन में बनने वाले इस रिश्ते का उनके मासूम बच्चों के जीवन पर क्या प्रभाव होगा ?

आप स्वयं ही सोचिये खुद सात साल कि उम्र में ब्याही गई मां से ज्यादा इस बात को कौन समझ सकता है कि कम उम्र में गृहस्थी संभालने की तकलीफें क्या होती हैं.....? फिर भी वो खुश होती है कि उसकी बेटी परण (शादी) जायेगी। उनकी जिम्मेदारी का बोझ कम हो जायेगा। आखिर क्यों.....?


कारण कोई एक नहीं  है | मासूम बच्चों से उनका बचपन छीन लेने वाली इस कुरीति के पीछे सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारणों की एक लंबी फेहरिस्त है। किसी के पास देने के लिए दहेज नहीं....... तो किसी की सामाजिक हैसियत इतनी कम है कि बेटी को कम उम्र में ब्याह देना ही उन्हें एकमात्र तरीका लगता है उसे दबंगों की बुरी नजर से बचाने का....... कहीं माता पिता गरीबी और क़र्ज़ में इतना डूबे हैं की दस साल की बच्ची का बेमेल ब्याह चालीस साल के दूल्हे से रचा कर घर के बाकी बच्चों का पेट पालने की सोच रहे हैं...........कोई बेटे का ब्याह कम उम्र में इसलिए करना चाहता है क्योंकि कुछ साल बाद तो दुल्हन ही नहीं मिलेगी............. वैसे भी बेटियों को दुनिया में आने ही नहीं देगें तो बेटों दुल्हनें मिलेंगीं कैसे ......?


ग्रामीण जीवन से करीब होने के चलते जो मैंने महसूस किया है उसके बूते यह तो निश्चित तौर पर कह सकती हूं कि जागरूकता की कमी एक कारण हो सकता है पर इससे बङे कई दूसरे कारण हैं जिसके चलते कानून आते जाते रहते हैं पर यह कुप्रथा जस की तस अपनी जङें जमाये हुए है। इससे उल्ट हकीकत तो यह है कि आज बाल विवाह के साथ चाइल्ड ट्रैफिकिंग और बेमेल शादियों जैसी कुरीतियां और जुङ गईं हैं नतीजतन यह कुप्रथा और भी ज्यादा विकृत हो चली है।


आज के समय में  मुझे बाल विवाह के लिए जागरूकता की कमी से ज्यादा बङे कारण दहेज ,गरीबी और सामाजिक असुरक्षा लगते हैं क्योंकि शिक्षित और जागरूक परिवार तो दहेज की मांग करने और कन्या भ्रूणहत्या में गांव के लोगों से भी आगे हैं। शायद इसका कारण यह भी है की शिक्षा का अर्थ सिर्फ किताबें पढ़ लेना भर नहीं है | यही वजह है की समाज में व्याप्त इन कुप्रथाओं के उन्मूलन के लिए सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर समय के साथ आये बदलावों को स्वीकार करने की सोच को बल मिले यह बहुत आवश्यक है | क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता है तो बाल विवाह की जगह बच्चों की आनर किलिंग होगी |  इसीलिए समग्र रूप से बाल विवाह जैसी कुरीति को मिटाने के लिए कई  सारे कारणों पर विचार करना जरूरी है ।

मैं यह भी मानती हूं कि सामाजिक मान्यता और स्वीकार्यता के बिना कोई कानून काम नहीं कर सकता। जब तक सामाजिक सुरक्षा और सम्मान की परिस्थितियां समाज के हर व्यक्ति के हिस्से नहीं आयेंगीं ऐसी कुरीतियां फलती फूलती रहेंगीं।