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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

21 April 2011

हाँ.......काम करती हैं कहानियां.....!



बचपन की प्यारी यादों का पिटारा जिन अनगिनत बातों को समेटे रहता है उनमें से एक दादी-नानी से सुनी कहानियां भी होती हैं कहानियां जो समाज की व्यवस्था से लेकर परिवार और व्यवहार तक, जीवन के हर पहलू की सीख दिया करती थीं। घर के बङे बुजुर्गों के सान्निध्य में हर पीढी किस्सा कहानी सुनती आई है। पहले संयुक्त परिवार हुआ करते थे इसलिए शाम ढलते ही मंडली जम जाया करती थी और बच्चे सब कुछ भूल कर रम जाते थे इन कहानियों में।

बचपन भले ही बेफिक्र होता है पर जाने अनजाने कई समस्याओं से जूझता भी रहता है। उनके मनोविज्ञान को रूपायित करने वाली कहानियां कब उन्हें इन उलझनों से बाहर ले आती हैं पता ही नहीं चलता। यकीन मानिए छोटी छोटी कहानियां बच्चों के जीवन की कई बङी समस्याओं का संक्षिप्त हल हैं।

मनोवैज्ञानिक और मानसिक स्तर कहानियों में की गई प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति बच्चों के मन मस्तिष्क में गहरी जगह बना लेती है। यही वजह है कि बच्चे कहानियां सुनते ही नहीं गुनते भी हैं

हमारे देश में किस्सों कहानियों का जितना समृद्ध इतिहास है दुनिया भर में शायद ही कहीं मिले। मनोरंजन के साथ ही जीवन जीने की सीख देने वाली कहानियां टीवी और इंटरनेट के जमाने में कहीं गुम हो गयी हैं पर इनका महत्व ना तो कम हुआ है और ना ही कभी होगा।


मेरा अनुभव-
पिछले कुछ महीनों से खुद अनुभव कर रही हूं कि कहानियां काम करती हैं.......सच में काम करती हैं। चैतन्य को रोज कहानी सुनाने का सिलसिला शुरू हुआ तो उसमें कई बदलाव नज़र आने लगे। मैंने बच्चों की कई कहानियां पढीं और खुद भी रचीं। उसे जिन चीजों से डर लगता था उसे दूर करने के लिए खास किस्से बुने। परिवर्तन देखने लायक था। उसको नये शब्द मिले कहानी सुनने के दौरान उसे इतनी उत्सुकता रहती है कि सब कुछ अच्छा रहे कुछ नकारात्मक हो। वरना तो झट से टोक देता है। आजकल खुद नई कहानी बनाकर मुझे सुनाने लगा है। कई सारे पात्रों को समेटे उसकी कहानियां सकारात्मक और शब्दावली बहुत प्रभावी बन रही है। सच में यह बदलाव बहुत सुखद अनुभूति देने वाला है।

सच में कहानियां काम करती हैं.......बस जरूरत इस बात की होती है कि हम बच्चे की रूचि और मनोविज्ञान को समझकर कहानी सुनायें। अभिभावक बच्चे की किसी खास कमजोरी पर ध्यान देकर ऐसी कहानियां बुनें जो उनमें आत्मविश्वास फूँक दें। मेरा अनुभव तो यही है कि कहानियां सुनकर बच्चों में उनका अपना एक दृष्टिकोण पनपता है। उनकी शब्दावली बढती है। एक नई कहानी खुद रचने और उसका कोई परिणाम खोजने की सोच जन्म लेती है। कहानी का एक संतुलित अंत करने के विचार को बल मिलता है मानो उन्हें स्वयं अपनी राह बनाने की सोच और शक्ति मिल रही हो।

07 April 2011

महिलाओं की सेहत ही ना रहे........तो सशक्तीकरण कैसा ...?



विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार स्वास्थ्य का अर्थ मात्र रोगों का अभाव नहीं बल्कि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की स्वस्थता की सकारात्मक अवस्था है। यदि इस परिभाषा को आधार बनाया जाए तो हमारे समाज में महिलाओं के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के हालात काफी चिंताजनक है। समाज की इस आधी आबादी को शारीरिक बीमारियां तो हैं ही महिलाओं में मानसिक व्याधियों वाले मरीजों के आंकङे भी चौंकानें वाले हैं। घर और बाहर दोनों की जिम्मेदारी उठा रहीं महिलाएं भावनात्मक और मानसिक स्तर पर भी कमजोर होती जा रहीं हैं।


घर-परिवार के हर सदस्य की सेहत का ख्याल रखने वाली महिलाएं खुद अपने स्वास्थ्य को हमेशा नजरअंदाज कर देती हैं , स्वास्थ्य की संभाल की फेहरिस्त में खुद को हमेशा दोयम दर्जे पर ही रखती हैं। हैरानी की बात तो यह है कि घर के बाकी सदस्य भी महिलाओं की सेहत को खास तवज्जोह नहीं देते। जी हाँ यह सच है की जिस तरह एक महिला चाहे माँ हो या पत्नी घर के अन्य सदस्यों की सेहत का खानपान से लाकर दवा और देखभाल तक ख्याल करती है उसी तरह घर के सदस्य महिलाओं की तकलीफों के प्रति इतने जागरूक नहीं होते । महिलाओं को समाज में हमेशा से दोयम दर्जे पर ही रखा गया है। यही सोच उनकी सेहत पर भी लागू होती नजर आती है।


हमारे घरों में हालात कुछ ऐसे हैं की उनसे कोई पूछता नहीं और वे किसी को बताती नहीं। महिलाएं अपनी शारीरिक और मानसिक तकलीफों के बारे में खुलकर बात नहीं कर पाती। नतीजतन उन्हें न तो सही समय पर इलाज मिल पाता है और न ही सलाह। देश के ग्रामीण इलाकों में तो स्थितियां और भी बदतर हैं । वहां तो जागरुकता की आज भी इतनी कमी है कि महिलाएं कई बार शारीरिक और मानसिक विकारों के इलाज के लिए नीम हकीमों में उलझ जाती है।


चाहे गांव हो या शहर ऐसे कई किस्से आपको सुनने, जानने को मिल जायेंगें कि जब तक महिलाएं डॉक्टर पास इलाज के लिए आती हैं तब तक ज्यादातर मामलों में बीमारी काफी बढ चुकी होती है। जिसकी सबसे बड़ी वजह जानकारी की कमी और पारिवारिक सहयोग का अभाव है। आज भी अनगिनत औरतों के साथ उनके पति हिंसात्मक व्यवहार करते हैं । यहां इस विषय में बात इसलिए कर रही हूं क्योंकि घरेलू हिंसा महिला स्वास्थ्य से एक जुड़ा अंतरंग पहलू है। चारदीवारी के भीतर महिलाओं के साथ होने वाला यह बर्ताव उन्हें सामाजिक, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर सशक्त बनाने की सारी कवायदों को तो बेमानी साबित करता ही है उन्हें कई तरह की मनोवैज्ञानिक बीमारियों की ओर भी धकेलता है।


हमारे परिवारों में महिलाएं अपने अंदरूनी शारीरिक बदलावों और समस्याओं से भीतर ही भीतर जूझती रहती है। इस तरह मन ही मन जूझना और शारीरिक तकलीफ होने पर भी चुप रहना उनकी आदत बन सी जाती है। जिसके चलते शारीरिक व्याधियों तो पहले से होती ही हैं महिलाओं का मानसिक स्वास्थ्य भी बिगडऩे लगता है। यों भी पुरूषों की अपेक्षा महिलाएं मानसिक बीमारी की ज्यादा शिकार होती है। यदि मानसिक बीमारी में महिला एवं पुरूषों का अनुपात देखा जाए तो पुरूषों की अपेक्षा दोगुनी संख्या में महिला मरीज पाई जाती हैं।


मैं मानती हूं कि अच्छी सेहत के बिना महिलाओं के सशक्तीकरण की सोच को सार्थक नहीं किया जा सकता। महिलाओं के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में आ रही गिरावट की वजह चाहे जो भी हो, आज के हालात भविष्य में हमारे पूरे सामाजिक और पारिवारिक ढांचे के चरामरा जाने के खतरे की ओर भी संकेत करते नजर आ रहे हैं। महिलाओं को सशक्त और आत्मनिर्भर बनाने के लिए हर स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि सेहत की संभाल में पिछङती महिलाएं अन्य क्षेत्रों में कितना आगे बढ पायेंगीं......? अगर उनका स्वास्थ्य ही ना रहे तो सशक्तीकरण कैसे संभव है......?

03 April 2011

नवसृजन...नवउल्लास... नवसंवत्सर.....!





नवजीवन का ले संदेश

प्रकृति ने भी बदला वेश

नवउत्कर्ष, नवउल्लास छाया

नवसंवत्सर, नववर्ष आया



मेरे पास शब्द नहीं हैं हमारी भारतीय संस्कृति का गौरवगान करने के लिए जिसमें नववर्ष का स्वागत स्वयं प्रकृति नया रूप धरकर करती है। पूरी सृष्टि उत्सव मनाती नजऱ आती है। नया साल जिसे जानने के लिए कोई कलेंडर नहीं चाहिए। धरती मां स्वयं नवसृजन, नवश्रंगार किए पल्लवित-पुष्पित होते पेङ पौधों से सुसज्जित हो जाती है। वायु में नयी सुवास और मादकता फैल जाती है और पत्ता-पत्ता यह सन्देश देता है कि नववर्ष आ गया है ...नव उल्लास छा गया है.......!


आप सभी को नवसंवत्सर की हार्दिक मंगलकामनाएं ......