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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

29 March 2011

क्रिकेट..... आफत और गफ़लत के बीच भारतीय महिलाएं......!


इस देश में क्रिकेट को मजहब कहा जाता है। यह एक दीवानगी है........ एक पागलपन है........... कुछ खास मैच तो ऐसे होते हैं कि सङकें सूनी हो जाती हैं और बॉस के सामने उस दिन की छुट्टी चाहने वालों की कतार लग जाती है। यहां बच्चा-बच्चा इस खेल के पीछे पागल है बङों की तो पूछिये ही मत और बुजुर्गों की क्या बतायें............ ?



खैर इन सबके बीच एक ऐसा वर्ग भी है जिनके जीवन में यह क्रिकेटिया दीवानगी काफी हलचल मचा देती है......... वो हैं महिलाएं। हालांकि ऐसी महिलाओं का प्रतिशत काफी कम है जो खुद टीवी से चिपक कर मैच देखती हैं पर यकीन मानिए वर्ल्ड कप जैसे टूर्नामेंट उनकी पल दो पल की फुरसत भी छीन लेते हैं :)



क्रिकेट का मौसम आते ही उनकी दिनचर्या बदल जाती है। नई जिम्मेदारियां सिर आ जाती हैं, हजारों काम बढ जाते हैं। इन दिनों कितना भी व्यवस्थित किया जाए घर अस्त-व्यस्त ही रहता है ......... जिस दिन कोई खास मैच हो जैसा कि आज है चाय की चुस्कियों के दौर खत्म ही नहीं होते..................... बच्चों को स्कूल नहीं जाना होता और पतिदेव को ऑफिस.............. और तो और उनके पसंदीदा टेलीविजन धरावाहिकों पर भी इस क्रिकेट की गाज गिरे बिना नहीं रहती।



इन सबके बीच हार जीत के हालातों को भी महिलाओं को ही संभालना पङता है। हार गये तो कोई नहीं जी...... और जीत गये तो मैं ना कहती थी.................कभी कभी तो पकौङियां तलते हुए करची हाथ में लिये लिये ही पति और बच्चों को तस्सल्ली देनी पङती है अगर कोई खिलाङी अचानक बोल्ड हो जाये। कोई नहीं....... हम लोग जीत जायेंगें .......!



उधर मैदान में खिलाङी जितना जी जान से खेल रहे होते हैं इधर अपने ही घर में अपने ही लोगों की आवभगत उतनी ही जोरदार ढंग से चल रही होती है। एक भी बॉल मिस ना हो जाये इसलिए पानी से लेकर खाना तक बच्चों और बङों को टीवी के सामने ही चाहिए और मिलता भी है.......



क्रिकेट की इस दीवानगी के चलते हालात बङे अलग से हो जाते हैं । आम दिनों में बात-बात में समझाइशें देने वाली मम्मियां बच्चों से बङे प्यार से कभी किसी खिलाङी का नाम पूछती हैं तो कभी उसका देश। कभी-कभी रसोई से ही आवाज लगातीं हैं............... कौन आउट हुआ रे अबके ........!

कुछ पल सुकून के मिलें तो आसपङौस के हाल पूछ लेती हैं क्योंकि बगल वाले घर में भी तो यही हाल है। वहां भी अपनी पसंद के धारावाहिकों के किरदारों की कई दिनों से कोई खैर खबर जो नहीं है ..........मन को तस्स्ल्ली देती है तो बस एक बात कि कुछ दिन और सही....... बस वर्ल्ड कप का फाइनल मैच अब होने को है।



बावजूद इन सब बातों के, क्रिकेटिया फीवर को झेलती ये भारतीय महिलाएं ही हैं जो खुश रह सकती हैं। बस..................अपनों की खुशी के लिए।

24 March 2011

बच्चों को घर से मिलें राष्ट्रधर्म के संस्कार........ !




अपनी मातृभूमि......... राष्ट्रीय प्रतीक..... संस्कृति...... सभ्यता और जीवन दर्शन का सम्मान किसी भी देश के नागरिकों का धर्म भी है और कर्तव्य भी। आज की पीढी में देखने में आ रहा है देश की गरिमा और स्वाभिमान का भाव मानो है ही नहीं। देश के कर्णधारों के ह्दय में अपनी जन्मभूमि के प्रति जो नैर्सगिक स्वाभिमान होना चाहिए उन संस्कारों की अनुपस्थिति विचारणीय भी है और चिंताजनक भी।

संस्कार यानि हमारी जङें ...... हमारी पहचान........ ये संस्कार हमेशा एक पीढी से दूसरी पीढी में हस्तांतरित होते आए हैं और आज भी जीवित हैं । तो फिर मातृभूमि के लिए सर्वस्व लुटाने वाले वीर देशभक्तों के इस देश में राष्ट्रधर्म के संस्कार से नई पीढी अनजान और विमुख क्यों है......... ?


ऐसे में यह सोच का विषय है कि क्या किया जाए..... ? मुझे लगता है कि मातृभूमि के प्रति सम्मान और देश के लिए स्वाभिमान के राष्ट्रवादी विचारों की प्रेरणा उन्हें घर-परिवार से मिलने वाले संस्कारों का हिस्सा बने। ऐसे संस्कारों से संपन्न जीवन ही हमारी भावी पीढ़ी को कर्तव्यपरायण सुनागरिक बना सकता है।

अक्सर हम देखते है कि कोई बच्चा चाहे किसी भी धर्म या संप्रदाय के परिवार में जन्मा हो छोटी उम्र से ही अपने धर्म के तौर तरीके सीख जाता है। इन बातों की पैठ उसके मन में इतनी गहरी हो जाती है कि जीवन भर वह उन्हें नहीं भूलता। इसका सबसे बङा कारण है परिवार के सदस्यों, बङे-बुजुर्गों द्वारा बच्चे को यह सब सिखाया जाना। उसके अंर्तमन में अपने धर्म-दर्शन और पारिवारिक संस्कारों का जो अंकुर बचपन में घर परिवार के सदस्य रोपते हैं उसका प्रभाव इतना गहरा होता है कि वो सदैव के लिए उनके प्रति समर्पित हो जाता है।


जैसे कोई बच्चा छोटी उम्र में अपने घर के संस्कारों और रीति-रिवाज़ों से जुङ जाता है वैसे ही पारिवारिक संस्कारों में अगर राष्ट्रधर्म की शिक्षा को भी जोङ लिया तो बचपन से ही उनके मन में राष्ट्रधर्म की सोच को प्ररेणा मिलेगी। कितना सुखद होगा अगर कुछ समय निकालकर घर के बङे बुजुर्ग और अभिभावक अपने बच्चों को कभी तिरंगे के मान या राष्ट्रगीत के सम्मान का भी पाठ पढायें।

देश के नाम पर सिर्फ शिकायतों और आलोचनाओं की बात न हो। कम से कम बच्चों से तो नहीं। सकारात्मक विचारों के साथ बच्चों को जिम्मेदार नागरिक बनने और अपने कर्तव्यों के प्रति प्रतिबद्धता की भी सीख घर से ही दी जाये। शहीदों और राष्ट्रीय चिन्हों के प्रति सम्मान से जुङा संवाद भी हमारी दिनचर्या में शामिल हो।

राष्ट्रहित की सोच के दिव्य बीज घर से ही बच्चों के मन मे बोयें जायें तो ये भाव उनके व्यक्तिव में पूरी तरह समाहित हो जायेंगें। इसके जरूरी है कि दादी नानी बच्चों को देश के लिए अपना जीवन न्यौछावर करने वाली महान विभूतियों की कहानियां सुनाएं। बच्चों के समक्ष मातृभूमि के मान का गौरव गान हो । रोजमर्रा के जीवन में शामिल यह छोटे छोटे बदलाव बच्चों की सोच की दिशा मोङने में काफी अहम साबित हो सकते हैं। जो हमारे बच्चों में देशानुराग और आत्मबलिदान की चेतना को जन्म देंगें।

अपने परिवार की नई पीढी को राष्ट्रीय धर्म के मूल्यों का बोध कराना हर परिवार की जिम्मेदारी है क्योंकि यही जीवन मूल्य उनमें भारतीय होने के गौरव और स्वाभिमान के भाव पैदा करेंगें।

17 March 2011

बनी रहे रंगों के पर्व की गरिमा.......!


रंगों का त्योंहार होली एक अनूठा पर्व है। इसकी पौराणिक मान्यता तो है ही सामाजिक महत्व भी बङा अर्थपूर्ण है। शांति और सदभाव का संदेश देने वाला यह त्योंहार भेदभाव और ऊंच नीच को भुलाकर एक हो जाने का दिन है। यह त्योंहार उदारता और सहिष्णुता की सीख देता है।

होली मस्ती और धमाल का त्योंहार है पर इस मस्ती में कई बार त्योंहार की गरिमा ही खो जाती है। मन क्षुब्ध हो जाता है जब होली के हुङदंग के नाम पर हर साल कई जानें जाती है....... अनगिनत सङक दुर्घटनायें घटित होती हैं...... महिलाओं के साथ अभद्रता का व्यवहार होता है।

ऐसा असामाजिक व्यवहार करने वाले लोग खासकर युवा अन्य लोगों के साथ ही पुलिस प्रशासन के लिए भी समस्या बनते हैं। कई बार तो इन गतिविधियों में स्वयं उनका जीवन भी खतरे में पङ जाता है। इतना ही नहीं विदेशों से भारत आकर इस त्योंहार को मनाने वाले पर्यटकों के साथ भी बदसलूकी की खबरें आती हैं। जो हमारी भारतीय संस्कृति और इन सांस्कृतिक पर्वों गरिमामयी छवि को ठेस पहुंचाती हैं।


कई बार ऐसे मौके आये हैं जब इस त्योंहार की मस्ती में डूबे लोगों को बङे- बुजुर्गों और महिलाओं के साथ सङक पर बदसलूकी करते देखा है। मन बहुत व्यथित होता है यह देखकर कि कुछ लोग कैसे मानवीय गुणों को ताक पर रखकर इस पर्व की गरिमा को धूमिल करते हैं।


कोई भी त्योंहार जब उसकी मूल भावना को भुलाकर उन्मादी ढंग से मनाया जाता है तो पूरे समाज को इसका ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है। आज के दौर नशा और उदंडता का विवेकहीन व्यवहार हमारे त्योहारों का रूप विकृत कर रहे हैं। इस उन्मादी माहौल दुर्व्यवहार से बचने के लिए शहरों में तो लोग बच्चों और परिवार के साथ घर से बाहर नहीं निकलते । आज के युवा भूलने लगे हैं कि सामाजिक समरसता पैदा करने वाले इस रंगों के उत्सव को मनाने के लिए मर्यादाओं को भूलना इसके स्वरुप को ही विकृत कर रहा है।

होली उल्लास का उत्सव है। जीवन में सतरंगी मिठास घोलने का मौका है न कि किसी की जिंदगी के रंग छीनने या उसे बेरंग कर देने का। कृपया उल्लास को उदंडता न बनने दें , इस पर्व के आध्यात्मिक और सामाजिक भावों को समझते हुए जीवन में खुशियों के रंग भरें......

आप सभी को होली की हार्दिक शुभकामनायें.......

13 March 2011

कहाँ मैं खेलूं चहकूं गाऊं .......!



कहाँ मैं खेलूं चहकूं गाऊं
आप बड़ों को क्या समझाऊं
बोलूं तो कहते चुप रहो
चुप हूं तो कहते कुछ कहो
कोई राह सुझाओ तो
मैं क्या करूं ?


मां कहती है इधर ना आओ
दादी कहती उधर ना जाओ
इतनी सारी हैं पाबंदी
क्या मैं हूं इस घर का बंदी
कोई राह सुझाओ तो
कैसे मैं जिऊं ?


दादा मुझको भूत दिखाते
पापा छिपकली से डराते
मां भी देती है ये धमकी
रात को ना मिलेगी थपकी
कोई राह सुझाओ तो
मैं क्यों डरूं ?

मैं हरदम करता हूँ काम
पल भर ना मुझको आराम
बड़ों के आगे एक न चलती
इसमें क्या है मेरी गलती
कोई राह सुझाओ तो
मैं क्यूं रूकूं ?


कार्टून का चैनल छोड़ो 
कोई चीज ना जोड़ो-तोड़ो 
मेरी घर में एक ना चलती
बिन गलती के डांट है मिलती
कोई राह सुझाओ तो.......... 
मैं क्यूं सहूँ ?

इसे बाल कविता कहूँ या बच्चे के मन के सवाल ........ या सिर्फ संवाद जो बच्चे और घर के लोगों के बीच होकर भी नहीं होता । हाँ अब इतना ज़रूर समझती हूँ कि छोटी छोटी मासूम शिकायतें बच्चों को भी होती है हमसे ................!

06 March 2011

माँ, बेटी, बहन, पत्नी.......जिनके बिना अधूरी है जिंदगी......!


हमारे जीवन को गढने , संस्कारित करने वाली माँ हो या घर आँगन की इठलाती रौनक बेटी  भाई की खुशियों के लिए दुआएं मांगती बहन हो या फिर पत्नी के रूप में एक पुरूष की प्रेरणा।

उनके हर रूप में जिंदगी बसती है। उनकी हर भूमिका परिवार और समाज की भावी रूपरेखा तैयार करती है। हर परिस्थिति हर हाल में अपनों के साथ खङी महिलाओं का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष योगदान समाज, राष्ट्र और परिवार सभी के लिए अतुलनीय है। या यों कहें कि उनके बिना अधूरी है जिंदगी ।

भावुक क्षणों में स्नेहिल और कठिन घङी में शक्ति स्तंम्भ उनकी भूमिका हमारी जीवनधारा के प्रवाह को बनाये रखने का माध्यम है। ईश्वर की एक प्रतिनिधि के रूप में महिला को सृष्टि की संचालिका भी कहा जा सकता है। शायद इसीलिए ममतामयी माँ की भूमिका के लिये तो कहा भी जाता है कि ईश्वर हर जगह नहीं हो सकते इसलिए उन्होनें माँ को बनाया। सामाजिक दायित्वों की निर्वाहिका के रूप में नारी की भूमिका निर्विवाद है।

एक स्त्री में जो जिजीविषा और संघर्ष करने शक्ति होती है उसकी बानगी किसी उच्च पद पर आसीन महिला से लेकर आम गृहणी तक हर कहीं देखी जा सकती है।

रिश्तों को संजोने से लेकर बच्चों को संस्कारित करने तक , बङे बुजुर्गों की देखभाल से लेकर पति के जीवन को दिशा देने तक, महिलाओं का बहुमुखी गुणों से अलंकृत व्यक्तित्व समाज और परिवार को सुदृढ बनाये रखने में महती भूमिका निभाता है। इन सभी अलग-अलग रूपों में स्त्री जीवन भर पुरूषों का जीवन संवारती रहती है।

स्त्री में जन्मजात रूप से परिस्थितियों को समझने और उनका सामना करने की समझ होती है। उसका मनोविज्ञान ही कुछ ऐसा होता है कि जीवन के हर मोङ पर पति बेटे या भाई को भावनात्मक संबल देने की शक्ति रखती है। फ्रेंड ,फिलॉसोफर या गाइड कुछ भी कहिए पुरूषों के जीवन को संवारने और सुव्यवस्थित करने वाली माँ, बहन, बेटी या पत्नी की भूमिका का महत्व तो स्वप्रमाणित है।

आज के दौर में महिलाओं की भूमिका और महत्वपूर्ण हो चली है। उनकी विशिष्ट भूमिका समाज में नवसृजन- नवनिर्माण कर रही है। समय के साथ कदमताल करते हुए हर क्षेत्र में महिलाओं ने अपनी जगह बनाई है। समाज को समर्पित एक व्यक्तित्व का जीवन जीते हुए भी खुद को साबित किया है। ऐसे में महिला दिवस के सौ बरस पूरे होने पर आइए उसकी हर भूमिका को नमन कर सम्मान और कृतज्ञता के साथ उनके योगदान को ह्दय से स्वीकार करें।

03 March 2011

ठगों.....जालसाजों का शिकार बनती महिलाएं.........


ना हथियार की आवश्यकता हैं और न ही जोर जबरदस्ती की........... जालसाजों का खेल कुछ ऐसा होता है कि जिसमें लोगों को ठग जाने के बाद अहसास होता है कि उन्हें छला गया है। ठग विद्या में पारंगत ये जालसाज आए दिन नई तरकीबें खोजते हैं और कभी भी किसी भी इंसान को अपना शिकार बना लेते हैं। अफसोस की बात है कि ठगी की अधिकतर घटनाओं का शिकार महिलाएं बनती हैं। ये ऐसे असामाजिक तत्व हैं जो अपने जाल में घर बैठी महिलाओं तक को फांस लेते हैं। कई बार तो ऐसी अनहोनी के वक्त पूरा परिवार ही नहीं आस-पङौस की सखी सहेलियां भी उनके साथ ही होती हैं

रूमाल में झुमकी बांध कर कुकर में रख दे............ दो दिन बाद दो जोङी झुमकी निकलेंगीं।

बच्चे को नजऱ लगी है..... एक चमत्कारी बाबा चुटकी में ठीक कर देंगें।

बैंक में पैसे जमा करने गईं हैं ...... कोई गिनने में मदद करने के लिए कहता है और दस मिनट बाद कांउंटर पर पंद्रह हजार रूपये कम निकलते हैं।

खास किस्म के पाउडर से गहने चमकाने के बहाने........... नकली जेवर थमा दिए।


महिलाओं का मनोविज्ञान ही कुछ ऐसा होता है कि वे इन जालसाजों का आसान शिकार होती हैं। आमतौर पर देखने में आता है कि महिलाएं सीधे सपाट शब्दों में किसी बात का विरोध नहीं कर पाती, ना नहीं कह पातीं । इसी के चलते कभी लालच में फंसकर तो कभी बहकावे में आकर वे आए दिन इन जालसाजों का शिकार बनती हैं। आमतौर पर भरी दुपहरी में घर की घंटी बजाने वाले इन जालसाजों का निशाना गृहणियां बनती हैं। पर अफसोस की बात यह है कि कई बार पढी लिखी समझदार महिलाएं भी इनके झांसे में आ जाती हैं।


ऐसे छलावों का शिकार होने के बाद कई बार तो महिलाएं घर के सदस्यों को भी नहीं बता पाती । क्योंकि उन्हें यह अपने ही बुने जाल में फंसने जैसा लगता है और यह महसूस होता है मानो स्वयं ही स्वयं को ठग लिया।

आज के दौर में भी कभी झाङ फूंक से जीवन की हर समस्या का हल खोज लेने की चाहत तो कभी धन और गहनों को दुगुना करवा लेने की सोच के चलते को महिलाएं इन ठगों के जाल में इस कदर फंस जाती हैं कि कई बार तो ब्लैकमेलिंग तक की नौबत आ जाती है। ये जालसाजी लोग भी उनकी आंखों में धूल झोंककर अपना खेल खेलते हैं। कई बार तो परिवार की जीवन भर की जमा पूँजी हङपकर चंपत हो जाते हैं।

कभी शब्दों का जाल तो कभी आंखों का धोखा। अखबारों और टीवी चैनल्स में आए दिन ऐसी खबरें सुर्खियां बनती हैं पर फिर भी ठगी का यह खेल जारी है। छोटे बङे शहरों से लेकर गांवों तक आए दिन ऐसी घटनाएं होती हैं। ऐसे में महिलाओं को इन बातों को समझना चाहिए। चाहे गृहणी हों या कामकाजी अपनी सुरक्षा के लिए सतर्क रहना चाहिए। इन ठगों की बातों में आने के बजाए इन्हें सख्ती से मना करें । सबसे ज्यादा जरूरी है कि लालच के इस फेर में पङने से बचें ।