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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

22 February 2011

बैंड.......बाजा........बंदूक .......!




किसी शादी या सांस्कृतिक समारोह में गोली चलना और किसी की जान जाना , ऐसी खबरें है जो आये दिन अखबारों की सुर्खियां बनती है। ऐसे समाचार जब भी पढने सुनने को मिलते हैं ना केवल अफसोस होता है बल्कि मन गुस्से से भर जाता है। आखिर हम कौन से जमाने में जी रहे हैं और किस सोच के साथ जी रहे हैं ? अगर खुशियां मनानी है तो मनाइए ना जरूर मनाइए, लेकिन किसी की जान की कीमत पर नहीं । यह कौनसा तरीका है जश्र मनाने का जो किसी समारोह में तो रंग में भंग का काम करता ही है किसी के जीवन को भी हमेशा के लिए दुख की सौगात थमा देता है।

कितना अफसोस जनक है कि गांव हो या शहर हम अपनी संस्कृति को छोङ शादी जैसे सांस्कृतिक समारोहों में ऐसी घातक और विद्रूप चीजों को जगह दे रहे हैं। हैरानी की बात है भी कि हम अपने रीति रिवाजों और आपसी मेल कराने वाले रंग ढंग को छोङ ऐसी चीजों को समारोहों का हिस्सा बना रहे हैं। शादियों में होने वाले हमारे नेगचार और रस्म रिवाज ही इन कार्यक्रमों की शोभा बढाने के काफी हैं तो फिर इस जानलेवा धूम-धङाके की क्या आवश्यकता है?


गोली क्यों चली............ ? किसने चलाई..........? कैसे चली...........? और किसकी जान गई...........? इन सब पहले मेरे मन में बस एक ही सवाल आता है कि शादी जैसे सामाजिक-पारिवारिक समारोह में किसी के पास बंदूक होने की आवश्यकता ही क्या है?

सवाल यह भी नहीं है कि इन दुर्घटनाओं में दूल्हे की जान गई या किसी मजदूर की। किसी रिश्तेदार की जिंदगी जाए या मेहमान की। प्रश्र तो यह है कि दो लोगों को सुखद जीवन की शुभकामना देने के लिए जुटे लोगों में से कोई भी अपना जीवन क्यों खो दे......? पर दुर्भाग्यपूर्ण ही है आए दिन ऐसी घटनाएं घटती हैं जो हमारी सामाजिक जवाबदेही पर भी सवालिया निशान लगाती हैं।

गांवों में आमतौर पर ऐसी घटनाएं ज्यादा होती हैं। वजह साफ है कि वहां दो रिश्तेदारों का बंदूक तानकर बारात में चलना हैसियत के प्रर्दशन का तरीका है। अफसोस की बात है कियही ऐंठ- अकङ अब तक ना जाने कितने लोगों की जान ले चुकी है।

मन में यह बात भी आती हैं कि हमारे गांवों में जहां बात बात में पंचायतें बैठ जाती हैं वहां ऐसे मुद्दों के बारे में बात क्यों नहीं होती ? क्यों नहीं ऐसे लोगों को सजा दी जाती जो दिखावे और शराब के नशे में चूर हो ऐसे समारोहों में गोलियां चलाते हैं और ऐसी दुर्घटनाओं को अंजाम देते हैं।

यह ज्यादा विचारणीय इसलिए भी है क्योंकि ये सिर्फ दुर्घटनायें नहीं हैं। समाज में मौजूद मानसिकता और अहम की भी बानगी है। यह भी एक तरह का शक्ति प्रर्दशन है जो मुझे किसी सामंती परंपरा से कम नहीं लगता।

14 February 2011

संकल्पों और विकल्पों का द्वंद्व.....!


जीवन में संकल्पों का बहुत महत्व है। हमारे द्धारा लिए गये संकल्प हमारी इच्छाशक्ति और जीवन सिद्धांतों के प्रति दृढता को प्रतिबिंबित करते हैं। संकल्प हमारे मन को बांधने का कार्य करते हैं। उसे दिशाहीनता से बचाते हैं। मन में आए दिन अनगिनत इच्छाएं पैदा होती हैं। अक्सर हर तरह विचार बिना दस्तक दिए ही भीतर चले आते हैं । ऐसे में ज्ञान और नियमों के सहारे सही मार्ग को चुनने की आवश्यकता होती है जो बिना संकल्प लिए नहीं किया जा सकता।

संकल्प कुछ भी हो सकता है । कैसा भी हो सकता है। मौन रहने का संकल्प....... सुबह जल्दी उठ जाने का संकल्प....... किसी बुरी आदत या लत से मुक्ति पाने का संकल्प........ स्वस्थ जीवन शैली अपनाने का संकल्प........ या फिर अपनी दिनचर्या व्यवस्थित रखने का संकल्प..........!

संकल्प कोई भी हो उसे निभाने के लिए एक संघर्ष करना पङता है । खुद से लङना पङता है। मुझे तो कभी कभी यह भी महसूस होता है कि अपने आप से लङना सबसे मुश्किल है। शायद यही कारण है कि खुद से द्वंद्व करते समय हमारा मन किसी संकल्प के टूट जाने की स्थिति में कई सारे विकल्प हमारे सामने ले आता है। विशेष बात यह भी है कि इन परिस्थितियों में हमारा अंर्तमन हमें उलाहना भी नहीं देता।


आज हमारा जीवन कुछ ऐसा बन गया है कि ही जैसे ही संकल्प लेने की सोचते हैं उससे जुङे विकल्पों तक मन-मस्तिष्क पहले पहुंच जाता है।


कोई नहीं....... आज नहीं हुआ कोई बात नहीं, कल से फलां फलां काम कर लेंगें। अगर कल भी नहीं हुआ तो फिर अगला आने वाला कल तो है ही ..............!

ऐसे कई विचार मन में मंडराने लगते हैं और संकल्प छूटते रहते हैं। एक ओर विकल्पों के फेर में पङकर मनोबल कमजोर होता जाता है तो दूसरी ओर हम यह सोचकर आत्मसंतुष्ट रहते हैं कि ऐसा न हो पाया तो वैसा तो कर ही लेंगें।

आज इस विषय में बात इसलिए हो रही है कि हमारी कई सामाजिक , व्यक्तिगत , राजनीतिक यहां तक की व्यावाहारिक समस्याओं की जङ भी हमारी संकल्पहीनता ही है। हम विकल्पों के आदी होते जा रहे हैं। यह नहीं तो वो सही।


आज जीवन में स्थायित्व की कमी है। दृढ संकल्प की कमी जीवन में कई तरह के पश्चाताप को जन्म देती है और दिशाहीनता लाती है। पर इतना तो तय है कि संकल्पों को पूरा करने इन्हें विकल्पों से इतर देखना और समझना जरूरी है। क्योंकि संकल्प तो सदा विकल्पों के साथ ही रहते हैं।

07 February 2011

विद्या ददाति धनं....!



विद्या विनय देती है, विनय से पात्रता आती है , पात्रता से धन, धन से धर्म और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है। ये सिर्फ शब्द नहीं हमारी जङे हैं। जङें, जिनमें जीवन का सार और संसार का आधार है। हो भी क्यों नहीं........? इन शब्दों में विद्यार्जन का लक्ष्य जो समाया है वो जीवन की समग्रता और सार्थकता की बात करता है केवल जीविका कमाने की नहीं। यानि ऐसा लक्ष्य जो हमें अच्छा मनुष्य बनने की राह सुझाता है ।


आज विद्या ददाति विनयं ...... नहीं, विद्या ददाति धनं .......की सोच हमारी मानसिकता बन चुकी है। बीते कुछ समय में विद्यार्जन के मायने ज्ञानार्जन न होकर सिर्फ पढाई तक सीमित हो गये हैं। पढाई यानि किताबी ज्ञान । पुस्तकें पढकर अव्वल रहने का ऐसा खेल जिसमें जीवन विद्या की तो बात ही नहीं होती। अब विद्या विनय और पात्रता के जरिये धन और धर्म को पाने का मार्ग नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ धन कमाने का मार्ग है। वैसे भी अब पात्रता से धन नहीं धन से पात्रता हासिल की जाती है।


विद्या को हमारे जीवन की वो विलक्षण संपदा माना जाता है जिसे जितना खर्च किया जाए उतनी ही बढती है । ज्ञानाजर्न की यही विशेषता वैचारिक प्रामाणिकता के साथ साथ जीवन जीने के संस्कार और संयम देती है। ऐसे में केवल धन जुटाने के ध्येय से ली जा रहीं डिग्रियां विद्या की सार्थकता को कम कर रही हैं। जीवन व्यवहार में शिक्षा का कोई प्रभाव नजर नहीं आता ।


मोटी तनख्वाह कमाने वाले नई पीढी के प्रतिनिधि हमारी संस्कृति और सभ्यता के सच्चे प्रतिनिधि नहीं बन पा रहे हैं। आज की किताबी पढाई बस एक दौङ बन कर रह गई है। इसमें आत्मसमान और कर्तव्यनिष्ठा की सीख नहीं जो देश को बौद्धिक एवं मानसिक रूप से परिपक्व और संवेदनशील सुनागरिक दे सके। विनय , अनुशासन और संस्कारित जीवन लक्ष्यों की प्राप्ति की सोच की कमी आज की पीढ़ी के व्यवहार में साफ़ नज़र आती है।


जीवन के हर क्षेत्र में आई अराजकता के इस दौर में आज किताबी ज्ञान के स्थान पर संस्कारित शिक्षा की नितांत आवश्यकता है। जो विद्यार्जन को केवल अर्थोपार्जन का साधन ही न बना दे। शिक्षा को ऐसे जीवन सिद्धातों से जोङना जरूरी है जो मानवीय मूल्यों का भी बोध कराये। संस्कार निर्माण का मार्ग सुझाये।

शत-प्रतिशत नतीजों के इस दौर में हम यह भूल ही गये ही गये हैं कि विद्या खुद को गढने की कला है। हमारे भीतर छिपी क्षमताओं और बुद्धिमता को उभारने का माध्यम। हमारी अनमोल विरासत को सहेजे रखने का वो ज़रिया जिसमें सदियों से यही माना गया है कि मनुष्यता को पाने में ही विद्या की गरिमा है।

बसंत पंचमी के पावन पर्व पर मां शारदे से यही प्रार्थना है की हम सबके जीवन में ज्ञान का निर्झर प्रवाहित करें .........!
बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनायें।

01 February 2011

मनुष्यता का सम्मान ...!



हमारे समाज में सम्मान  बड़ा भारी भरकम शब्द है। इसके वज़न का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है की हर साल अपने मान सम्मान के लिए न जाने कितने परिवार अपने ही बच्चों की जीवन लीला तक समाप्त कर देते हैं। दिलोदिमाग पर गहरी पैठ रखता है यह सम्मान शब्द। हमारे यहाँ सब तरह के वर्गों की अपनी अपनी इज्ज़त है । और इस सम्मान के लिए जान लेना या खून खराबा करना कोई नयी बात नहीं । परिवार का सम्मान , किसी एक खास समाज का सम्मान , जाति विशेष का सम्मान, यहां तक की एक खास पद का भी मान-सम्मान । अगर किसी तरह के सम्मान की अनुपस्थिति है तो वो है मनुष्यता का सम्मान।

विडंबना यह भी है हमारे यहां कोई सम्मान या इज्जत इसलिए नहीं पाता कि वो उस सम्मान के लायक है। बल्कि पद, पढाई, पैसा और पावर कुछ ऐसे शब्द हैं जिन्होंनें ऐसी परिपाटी बना दी है कि अमुक परिवार या व्यक्ति को मान-सम्मान दिया जाना चाहिए या यूं कहें कि देना ही  पड़ेगा  । फिर चाहे वे इस मान के योग्य हों या न हों । परिपाटियों का बिना सोचे समझे निर्वहन करने में तो हमारा समाज हमेशा से ही अव्वल रहा है। ऐसे में इज्जत पाकर फूले न समाने वाले समाज के इन तथाकथित जीवों को भी इस सम्मान की लत सी लग जाती है। अगर कोई इनकी शान में जरा भी गुस्ताखी करे तो इन्हें बहुत दुख होता है और गुस्ताखी करने वाले को भी कोई न कोई खमियाजा भुगतना ही पङता है। ऐसा हो भी क्यों नहीं...? पद, पैसा और पावर कुछ न कुछ समाज के इन माननीय जीवों के हाथ में होता ही है ।

कुछ लोग ऐसे भी मिल जायेंगें जिनका अपने घर में कोई मान नहीं होता पर समाज में उन्हें खूब वाहवाही मिलती है। यकीन मानिए वे इससे बहुत खुश भी रहते हैं क्योंकि मान सम्मान पाने के लिए मंच पर बोले गये शब्दों और आपके सामाजिक और पारिवारिक व्यहार में समानता होना कहां जरूरी है ? विशेषकर भारत देश में :( यहां कोई अपनी धौंस से सम्मान ले रहा है तो किसी को धनी होने के चलते अपने आप ही लोग सम्मान दे रहे हैं। इतिहास साक्षी है कि धन और बल दोनों ही ऐसी चीजें है जो जिस गति से आती हैं उसी गति से इंसान के जीवन से मनुष्यता को विदा कर देती हैं।


कभी कभी लगता है एक मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य का मान करे उसके कर्म का सम्मान करे, सृष्टि के इस साधारण से नियम को भी हमने कितना जटिल बना लिया है। सम्मान तो सम्मान है। हर मनुष्य चाहे वो धनवान हो या निर्धन , पढा लिखा हो या अनपढ, बच्चा हो या बङा सम्मान पाने का अधिकारी होता है। ठीक इसी तरह हर मनुष्य का कर्तव्य भी बनता है कि वो बिना किसी भेदभाव के सबको सम्मान दे। समाज में हर भेद को भुला कर मनुष्यता का सम्मान हो....!