किसी शादी या सांस्कृतिक समारोह में गोली चलना और किसी की जान जाना , ऐसी खबरें है जो आये दिन अखबारों की सुर्खियां बनती है। ऐसे समाचार जब भी पढने सुनने को मिलते हैं ना केवल अफसोस होता है बल्कि मन गुस्से से भर जाता है। आखिर हम कौन से जमाने में जी रहे हैं और किस सोच के साथ जी रहे हैं ? अगर खुशियां मनानी है तो मनाइए ना जरूर मनाइए, लेकिन किसी की जान की कीमत पर नहीं । यह कौनसा तरीका है जश्र मनाने का जो किसी समारोह में तो रंग में भंग का काम करता ही है किसी के जीवन को भी हमेशा के लिए दुख की सौगात थमा देता है।
कितना अफसोस जनक है कि गांव हो या शहर हम अपनी संस्कृति को छोङ शादी जैसे सांस्कृतिक समारोहों में ऐसी घातक और विद्रूप चीजों को जगह दे रहे हैं। हैरानी की बात है भी कि हम अपने रीति रिवाजों और आपसी मेल कराने वाले रंग ढंग को छोङ ऐसी चीजों को समारोहों का हिस्सा बना रहे हैं। शादियों में होने वाले हमारे नेगचार और रस्म रिवाज ही इन कार्यक्रमों की शोभा बढाने के काफी हैं तो फिर इस जानलेवा धूम-धङाके की क्या आवश्यकता है?
गोली क्यों चली............ ? किसने चलाई..........? कैसे चली...........? और किसकी जान गई...........? इन सब पहले मेरे मन में बस एक ही सवाल आता है कि शादी जैसे सामाजिक-पारिवारिक समारोह में किसी के पास बंदूक होने की आवश्यकता ही क्या है?
सवाल यह भी नहीं है कि इन दुर्घटनाओं में दूल्हे की जान गई या किसी मजदूर की। किसी रिश्तेदार की जिंदगी जाए या मेहमान की। प्रश्र तो यह है कि दो लोगों को सुखद जीवन की शुभकामना देने के लिए जुटे लोगों में से कोई भी अपना जीवन क्यों खो दे......? पर दुर्भाग्यपूर्ण ही है आए दिन ऐसी घटनाएं घटती हैं जो हमारी सामाजिक जवाबदेही पर भी सवालिया निशान लगाती हैं।
गांवों में आमतौर पर ऐसी घटनाएं ज्यादा होती हैं। वजह साफ है कि वहां दो रिश्तेदारों का बंदूक तानकर बारात में चलना हैसियत के प्रर्दशन का तरीका है। अफसोस की बात है कियही ऐंठ- अकङ अब तक ना जाने कितने लोगों की जान ले चुकी है।
मन में यह बात भी आती हैं कि हमारे गांवों में जहां बात बात में पंचायतें बैठ जाती हैं वहां ऐसे मुद्दों के बारे में बात क्यों नहीं होती ? क्यों नहीं ऐसे लोगों को सजा दी जाती जो दिखावे और शराब के नशे में चूर हो ऐसे समारोहों में गोलियां चलाते हैं और ऐसी दुर्घटनाओं को अंजाम देते हैं।
यह ज्यादा विचारणीय इसलिए भी है क्योंकि ये सिर्फ दुर्घटनायें नहीं हैं। समाज में मौजूद मानसिकता और अहम की भी बानगी है। यह भी एक तरह का शक्ति प्रर्दशन है जो मुझे किसी सामंती परंपरा से कम नहीं लगता।