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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

22 January 2011

एकांत की सुखद अनुभूति.....!



जब भी कभी अकेलेपन या एकांत की बात होती है उसे किसी जाने अनजाने भय से जोड़  दिया जाता है। ऐसा क्यों ? क्या सचमुच अकेलापन भयभीत करने वाला होता है? क्या कभी कभी ऐसा नहीं लगता कि अकेलेपन से बढकर कोई आनंद नहीं हो सकता? अपने भीतर झांकने की सुखद अनुभूति के आगे कोई और भाव ठहरता ही कहां है?

न शब्द न शोर....... एकांत का सुख वही समझ सकता है जो अपने आप के साथ समय बिताता है। यह वो समय होता है जब स्वयं को साधने का मार्ग तलाशा जा
ता है और कोशिश की जाती है मुझ को मैं से मिलवाने की। यही वो अनमोल पल होते हैं जिनसे हमारे विचारों को र्इंधन मिलता है। अपना मूल्यांकन करने की सोच जाग्रत और पोषित होती है। सच कहूं तो मुझे जीवन को समायोजित करने की ऊर्जा का स्रोत भी लगता है एकांत।

एकांत के बारे में एक आम धारणा यह भी है कि आप अकेले हैं क्योंकि कोई आपके साथ नहीं है या किसी को भी आपका साथ नहीं चाहिए। मुझे यह बात सही नहीं लगती क्योंकि अकेलापन समृद्ध, सृजनात्मक और स्वयं का चुना हुआ भी तो सकता है। ऐसा अकेलापन सदैव अपने होने की चेतना को जाग्रत करता है। अकेलेपन को अक्सर अवसाद से भी  जोड़कर देखा जाता है, पर हद से ज्यादा संवाद भी तो हमें मानसिक  पीड़ा  के सिवा कुछ नहीं देता।

आज की तेज रफतार जिंदगी में हम चाहकर भी अकेले नहीं रह पाते। भले ही इंसानों की भीङ हमारे आसपास न हो पर कुछ न कुछ हमें घेरे रहता है जो अपने भीतर झांकने का मौका ही नहीं देता। हरदम लोगों से घिरे रहना या हर समय दूसरों से सम्पर्क में बने रहने के चलते सोचने-विचारने का समय ही नहीं मिलता। हालांकि इस अजब-गजब सी व्यस्तता में भी हर इंसान कहीं न कहीं खुद को नितांत अकेला ही महसूस करता है, पर ऐसा अकेलापन आत्मचिंतन की राह नहीं सुझाता। क्योंकि आत्मचिंतन के लिए आत्मकेंद्रित होना जरूरी है। मनुष्यों की ही नहीं बेवजह के विचारों की  भीड़  भी इसमें बाधक बनती है।

कुछ अनसुलझे प्रश्नों का उत्तर खोजने और नये प्रश्नों के जन्म की वैचारिक प्रक्रिया को निरंतर बनाये रखने के लिए भी एकांत आवश्यक है। प्रकृति के करीब जाने और जीवन के प्रति आस्था बनाये रखने में भी एकांत की अहम भूमिका है। अपने आप को जानने , पहचानने और समझने का अहसास करवाने वाला सार्थक एकांत मुझे जीवन की जरूरत लगता है ।

17 January 2011

बनाने और ढहाने का खेल.....!

शहीदों के परिवारों के लिए खङी की गई आदर्श हाउसिंग सोसायटी को गिराने के आदेश को सुनकर मन को बहुत पीङा हुई । यकीनन मैं ही नहीं हर देशवासी के मन को इस समाचार ने पीङित किया है। बार बार बस एक ही सवाल मन मस्तिष्क में दस्तक दे रहा कि सही मायने में सजा देनी ही है तो उन आरापियों को दी जानी चाहिए जो इस घोटाले के लिए जिम्मेदार है । इस तरह इस इमारत को धराशायी करने के निर्णय का सकारात्मक पक्ष क्या हो सकता है.......?

बङे से बङे निर्माण कराने और फिर उन्हें गिरा देने का काम तो सरकार और सरकारी अफसरों के लिए एक खेल है। दो दिन पहले सङक बनना और फिर उसे खोद कर कभी पाइपलाइन डालना तो बिजली के तार..................! ओवरब्रिज आधा बन जाने के बाद अचानक यह याद आना कि उसे तो किसी और ही जगह ओर ही दिशा में बनाया जाना था ..............! अनगिनत उदाहरण मिल जायेंगें जो हमारे नेताओं और नीति निर्माताओं की सुंदर और दूरदर्शी योजनाओं की पोल खोलती हैं। आखिर निर्माण से पहले उससे जुङे सारे पहलुओं पर विचार क्यों नहीं किया जाता...........? क्यों नहीं सोचा जाता कि इन निर्माण कार्यो में जनता की गाढी कमाई का इस्तेमाल होता है और अनमोल श्रम शक्ति का अपव्यय............!

सरकार के ऐसे अफसोसजनक कदमों के चलते हर हाल में परेशानी जनता को ही उठानी पङती है। देश के किसी भी कोने में, किसी भी शहर में, जब निर्माण कार्य चल रहा होता है वहां के लोगों के जीवन के हर पहलू को प्रभावित करता है। क्योंकि सरकारी निर्माण कार्य शुरू तो कर दिये जाते हैं पूरे कब तक होगें
इसकी कोई गारंटी नहीं होती।



सालों साल ऐसे निर्माण कार्यों के चलते ट्रेफिक जाम और प्रदूषण जैसी समस्याओं से वहां के लोगों को ही दो चार होना पङता है। इन निर्माण कार्यों के दौरान अनगिनत दुर्घटनायें घटित होती हैं। कई तरह के प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग होता है। पेङ पौधे काटे जाते हैं। क्या सिर्फ इसलिए कि बाद में उसे ध्वस्त किया जाना है............? सचमुच कितने अफसोस की बात है देश के नीति-निर्माताओं के द्वारा श्रम और धन का यों अपव्यय किया जाना ।

आदर्श हाउसिंग सोसायटी को ढहाने का आदेश हमारी सरकारों की पूरी कार्यप्रणाली पर ही प्रश्र चिन्ह है । देश के लिए जान न्योछावर करने वाले शहीदों के परविारों का हक छीनने वाले भ्रष्ट अफसरों और नेताओं को सजा देने के बजाय इस इमारत को गिराने का निर्णय बहुत व्यथित करने वाला है।

13 January 2011

साहस नहीं तो दुस्साहस सही.....


रूपम पाठक ने जो किया वो समाज के लिए एक नया अध्याय जरूर है पर इसकी विषयवस्तु नई नहीं है। राजनीतिक गलियारे हों या ग्लैमर की दुनिया , कॉरपोरेट वर्ल्ड की बात करे या खेलों की। हर कहीं महिलाओं का यौनशोषण आम बात है। पिछले कुछ सालों से महिला यौन उत्पीड़न से जुड़े  अपराधों का ग्राफ बढता ही जा रहा है।

सवाल यह है कि देश के नेता हों या स्कूल के अध्यापक, खेल के कोच हों या किसी दफ्तर के बॉस। हर कोई यह क्यों समझने लगा है कि महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करने से उन्हें कोई हानि नहीं हो सकती। ना कानून उनका कुछ बिगाड़ सकता है और न ही समाज उन्हें कोई सजा देने वाला है। सबसे ज्यादा अफसोस की बात तो यह है कि पुलिस या प्रशासन में बैठा कोई न कोई व्यक्ति ऐसे लोगों का बचाव करता पाया जाता है। ऐसे में कोई महिला कहाँ किसी न्याय की उम्मीद कर सकती है ? आज किसी भी परिवेश या क्षेत्र की बात करें, महिलाओं के यौनशोषण की खबरें सुर्खियां बन रहीं हैं। हम सबके लिए रूपम और मधुमिता के साथ हुईं घटनाएं विचारणीय हैं क्योंकि किसी न किसी क्षेत्र से किसी न किसी घर की बेटी या बहू को जुड़ना तो  है ही ।


सवाल यह भी है कि जब कानून और समाज यहां तक ऐसे मामलों में कई बार परिवार भी साथ नहीं देते तो किसी भी महिला का दुस्साहिक कदम उठाना हम सबको हैरान क्यों करता  है ? रूपम ने भी वैसा ही किया । हर जगह गुहार लगाई और फिर भी बात न बनी तो हथियार उठा लिया। सोच समझ कर एक ऐसे कृत्य को अंजाम दिया जो इस बात का प्रमाण है कि उसके लिए बर्दाश्त करना सच में मुश्किल हो गया था। हर शिक्षित और सभ्य इंसान रूपम की इस मनोवैज्ञानिक स्थिति को महसूस कर सकता है। ऐसी मानसिक स्थिति, जब घुटन होने लगती है अपने ही जीवन से और क्रोध चरम पर होता है। कहा जाता है कि क्रोध से जो आठ विकार मन में जन्म लेते हैं उनमें दुस्साहस भी एक है।

सोच समझ कर दुस्साहस भी वही कर सकता है जो निर्भय हो । मन में किसी भी बात का भय न रखता हो । यह निर्भयता तब दस्तक देती है जब बर्दाश्त करना मुश्किल हो जाता है और खुद की सत्यता का प्रमाण देने का कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता। मन और मस्तिष्क की छटपटाहट की यह स्थिति किसी दूसरे विचार को आने ही नहीं देती और अंजाम वही होता है जो रूपम ने किया।

रूपम का कदम पूरे समाज के लिए वैचारिक मंथन और महिलाओं को दबी सहमी समझ कर प्रताड़ित करने वालों लिए डरने का विषय है। सब कुछ सहने की पराकाष्ठा किसी के भी मन में इस विचार को जन्म दे सकती है कि साहस नहीं तो दुस्साहस सही......!