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19 May 2011

छुट्टीयाँ ...जी, वो तो छुट्टी पर हैं......!



साल भर की मेहनत के बाद आने वाली गर्मी की छुट्टीयां बच्चों के लिए किसी ईनाम से कम नही होतीं । अगर अपना समय सोचें तो छुट्टी यानि दादी-नानी के घर में धमा-चौकङी और गांव के खेतों की पगडंडी याद आती है। कुछ ऐसी यात्राओं का स्मरण होता है जिनकी ना तो प्री-प्लानिंग होती थी और ना ही जिनसे कुछ अपेक्षाएं रखी जाती थीं।


अब तो हाल यह है कि छुट्टीयां आने से पहले ही प्री-प्लानिंग हो जाती है कि बच्चा अब के साल क्या सीखेगा..............? या यों कहूं कि क्या-क्या सीखेगा...? खासकर मम्मियां तो इस कदर इस मिशन में जुट जाती है कि बच्चों को स्कूल  के दिनों की व्यस्त दिनचर्या भी इन तथाकथित छुट्टीयों से बेहतर लगती है। छुट्टियाँ शुरू होने के पहले ही एक निश्चित समय सारणी बना दी  जाती है और बच्चों के हर पल को कुछ सीखने के लिए तय कर दिया जाता है।



छुट्टियों में मिलने वाले समय में बच्चे कुछ सीखें  और समय का सदुपयोग करें यह अच्छा है पर  इतना कुछ सीखें कि उम्र के साथ समझने और जानने के लिए कुछ न बचे  तो क्या लाभ ....? पापा की पसंद क्रिकेट और स्विमिंग तो मम्मी की पसंद पेंटिंग और डांस | उनकी अपनी पसंद और कल्पनशीलता तो जबरन थोपे गए अनगिनत क्लासेस के नीचे दम तोड़ देती है | ऊपर यह अपेक्षाएं भी जो कोर्स करवाए जा रहे हैं उनमें भी अव्वल रहें | न जाने क्यों मुझे तो यही लगता है सब कुछ सीखने की इस जद्दोज़हद ने  बच्चों की सोचने-समझने की शक्ति को छीन लिया है | 


जब बात यह होती है कि बच्चा क्या सीखे......? तो निश्चित तौर पर उसकी रूचि को जानना और उसकी क्षमता की सोचना तो अभिभावकों को बेकार ही लगता है क्योंकि बच्चा तो बच्चे की तरह ही सोचेगा। भावी की जीवन रूपरेखा तैयार कर हॉबी क्लास ज्वाइन करने के गुर उसको इस उम्र में कहां से आयेंगे ...? इसलिए इसका निर्णय पूरी तरह से मम्मी पापा पर ही होता है कि क्या कोर्स किए जाएं......? मम्मी पापा का निर्णय आमतौर पर दो बातों से बहुत प्रभावित होता है.......



जो मैं नहीं कर पाया वो मेरा बेटा या बेटी जरूर करेगा चाहे बच्चे की रूचि उस चीज में हो या नहीं......


आस-पङौस में किसके बच्चे क्या कर रहे हैं....? अरे पीछे थोङे ही रहना मिसेज फलां फलां के बच्चे से..........!


कई बार तो लगता है कि बच्चों की छुट्टीयां भी दिखावा संस्कृति की भेंट चढ गईं हैं। एक बार बच्चा कोर्स ज्वाइन तो करे..... हर नाते रिश्तेदार को बाकयदा फोन करके बताया जाता है कि छोटू क्रिकेट सीख रहा है या अबैकस की क्लासेस कर रहा है। गुङिया आजकल हॉर्स राइडिंग सीख रही है या भरतनाट्यम डांस। कितनी फीस दे रहे हैं और हमारे बच्चे छुट्टीयों को किस तरह एन्ज्वॉय कर रहे हैं। उधर बच्चों के मन यह  मलाल है कि उनकी छुट्टियाँ तो इस साल भी छुट्टी पर हैं :(

मैं भी मानती हूं कि बच्चे हमारे घर-परिवार के प्रतिनिधि होते हैं पर उन्हें घर के बङों की पसंद की गतिविधियों का शो केस बना देना कहां तक उचित है ?


उन बच्चों के मन में तो झांकिए जिन्हें साल भर के बाद यह फुरसत मिली है । वे तो बचपन में ही भूल रहे है कि बचपन क्या होता है ? बाकी समय नहीं तो कम से कम स्कूल की छुट्टीयों का समय तो उन्हें जीने को मिले। कुछ मन मर्जी का करने की छूट हो। ताकि उनका मन दुखी ना हो कि गर्मियां तो आती है पर छुट्टीयां नहीं आती.........!

101 comments:

Minoo Bhagia said...

sahi hai monika , garmi to aati hai par chutiyan nahin.

virendra sharma said...

डॉ .साहिबा !आपने मूल समस्या पर चोट की है .आज बच्चों का "मी टाइम "ला -पता है गायब है .इसीलिए बच्चे ओब्सेसिव ईटिंग कर रहें हैं ,दूसरे छोर पर कुछ भी खाने से मुकर रहें हैं .ये इसदौरकी त्रासदी है जबकि तमाम जीवन शैली रोगों की नींव इसी बचपन की रहनी सहनी तनाव ,गलत खानपान में पड़ जाती .इस दौर की समस्याओं को कुरेदते आपके लेखन को नमन .

SANDEEP PANWAR said...

हर कोई चाहता है, अवकाश,

virendra sharma said...

शुक्रिया ,डॉ .मोनिका शर्माजी !

विशाल said...

मोनिका जी,बहुत विचारणीय पोस्ट है.
हम आज कल बच्चों पर इतना कुछ थोपते जा रहे हैं कि बचपन ही छिन गया है उनसे.
आप ने बढ़िया राह दिखाई है.
आभार.

Arvind Jangid said...

घर तो बड़े होते जा रहें हैं मगर आँगन छोटे, ये करो ....ये मत करो..शायद इसी में बचपन उलझ कर रह गया है, आपके विचार तारीफ़ के काबिल हैं. कभी तो बच्चे को भी उसके हाल पर खेलने दिया जाए, सिखने दिया जाय.

आभार.

सुज्ञ said...

वास्तव में तो माता-पिता अपनी महत्वकांक्षा की कुंठा में बच्चों के बचपन को कुंद कर देते है।

कई बार तो जानते समझते भी महत्वकांक्षाओं के वश हो जाते है।

Smart Indian - स्मार्ट इंडियन said...

कहीं तो माँ-बाप इतने व्यस्त हैं कि बच्चों को व्यस्त रखना मजबूरी है और कहीं वे इतने चिंतित हैं कि बच्चों को प्रतियोगिता में रखना ज़रूरी है।

रश्मि प्रभा... said...

सर्वगुण सम्पन्न हों ना हों - प्रयास जारी है अपनी जीत के लिए , ओह अपनी बेबुनियादी सोच के लिए बच्चों को रोबोट बनाने पर तुले हैं सब

Coral said...

मोनिका जी सच में विचारणीय पोस्ट है....जैसे ही छुट्टिय सुरु होती है उनके मानसिक विकास के नाम पर इस लिए हम उन्हें क्लास में भेज देते है...और इसबात को स्टेटस सिम्बोल बना लिया है....

हमने जैसे अपना बचपन खुल के जिया है उन्हें भी वही हक है ....

Vaanbhatt said...

बिलकुल सही फ़रमाया...छुट्टी को छुट्टी ही रहने देना चाहिए...हौबी क्लास्सेज तो बच्चों की इच्छा से ही ज्वाइन करने चाहिए...पर स्कूल वाले भी कब मानते हैं...काफी होम वर्क दे देते हैं...

Unknown said...

आपने मूल समस्या पर चोट की

अवकाश बच्चों का प्रिय विषय है, और घूमना फिरना सर्वप्रिय , परेंट्स की महत्वाकान्छा ने मासूमियत छीन ली , काश: आपकी बात समझें कुछ ही

Rakesh Kumar said...

छुट्टियों में बच्चों को मौज करनी चाहिये.यदि इसी मौज मौज में स्वाभाविक ढंग से कुछ रचनात्मक सीखना भी मिले तो कोई बुरी बात नहीं है.माँ बाप बच्चों की रूचि,भविष्य की संभावना,आसानी से उपलब्ध रुचिकर प्रोग्राम्स को ध्यान में रख बच्चों को उचित सहयोग प्रदान कर सकते है.वर्ना लक्ष्यहीन छुट्टियाँ बेकार भी हो सकती हैं,जिसमें बच्चे मौज भी नहीं ले पाते.

Shikha Kaushik said...

poori tarah sahmat hun aapse .vastav me dikhava sanskriti ka bolbala sab or hai .sarthak aalekh .

Shikha Kaushik said...

our net is not working well these days .so that we are unable to give comments on our favourite posts .so please do'nt mind .

अरुण चन्द्र रॉय said...

बच्चो के मनोविज्ञान का अच्छा अध्यनन.. हमने तो पूरी छुट्टी दे दि है... किताबें बाँध दी है... स्कूल होम वर्क १५ जून के बाद करेंगे.... अभी वे फुर्सत में हैं... सुबह जो छः बजे पार्क गए हैं सो लौटे नहीं हैं.... देख रहा हूँ कि फूटबाल के साथ पसीने में सने हैं.... बढ़िया आलेख !

Shah Nawaz said...

आपकी बातों से शत-प्रतिशत सहमत हूँ... वैसे मेरा विचार तो यह है कि बच्चा हमेशा माहौल से सीखता है...

Suman said...

मोनिका जी,
अच्छा लगा आपका आलेख पढ़कर
आजकल समर कैंप भी बच्चोंके के लिए
स्कुल से कम परेशानिका नहीं है,
उसे मनमुताबिक छुट्टियाँ एंजॉय करने
दीजिये !

Anonymous said...

सही बात.......बच्चो में वो बचपन अब नहीं रहा.....इसके पीछे बड़ो का ही हाथ है.......अपेक्षाओं ने बच्चो से उनका बचपन छीन लिया है.......बहुत सुन्दर पोस्ट .............ये शब्द मुझे बहुत सही लगा - "दिखावा संस्कृति"- सच बिलकुल सहमत हूँ इस शब्द से |

प्रवीण पाण्डेय said...

बच्चे चार चीजें सीख रहे हैं और उन्हे चारों में बराबर का उत्साह आ रहा है।

Maheshwari kaneri said...

आज का माहौल ही येसा बनता जारहा है , बच्चो के सोच को सकारात्मक दिशा देने के लिये उन्हें व्यस्त रखना जरुरी सा हो गया है ,वरना इस चकाचौध की दुनिया में कहीं खो ना जाए । ये डर भी माता पिता के लिए जायज है । पहले भरा पूरा परिवार होता था । बच्चा उन्हीं में व्यस्त रहता था ,आज अकेला करे भी तो क्या करें ।वास्तव में देखा जाए तो इस दिखावे की जिन्दगी में हमारे बच्चों का बचपना कहीं खोगया है। इस दौर की समस्या को उजागर करने के लिए धन्यवाद ।

SAJAN.AAWARA said...

SAHI LIKHA HAI APNE . HUMKO B CHUTTI CHAHIYE FOJ SE. . . . . . . JAI HIND JAI BHARAT

Yashwant R. B. Mathur said...

बहुत सही बात कही आपने.

सादर

Dr (Miss) Sharad Singh said...

बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है आपने...सचमुच, बच्चों से उनका बचपन छिनता जा रहा है...
महत्वपूर्ण चिन्तन के लिए साधुवाद...

संजय भास्‍कर said...

मोनिका जी
...छुट्टियों में बच्चों को मौज करनी चाहिये

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

क्या बात है, बहुत सुंदर। ये तो घर घर की कहानी आपने बता दिया। पता है बाहर जाने की इतनी जल्दी है बच्चों को महीने भर को होमवर्क हफ्ते भर में ही निपटाने में जुटे हैं। आफिस से जब भी घर पहुंचता हूं, बच्चों का पहला सवाल पापा आपको छुट्टी मिल गई, और रिजर्वेशन हुआ या नहीं है। हाहाहहा

आशुतोष की कलम said...

ये सब फालतू की देखादेखी छोड़कर बच्चों को छुट्टियों में तनावमुक्त खेलने एवं आनंद मनाने देना चाहिए,,
ये क्या टर्र टर्र हम लगते हैं की मेरा बेटा फल कोर्स कर रहा है तेरा बेटा फल कोर्स..छुटियाँ होती है बच्चों को तनावमुक्त करने के लिए..
यहाँ तो हम अपनी उम्मीदों का तनाव और दोगुना कर रहें हैं..बच्चे के विकास में बाधक है ये सरे पाश्चात्य अनुकरण..
बहुत सुन्दर विषय पर लेख ..

कुमार राधारमण said...

समझा जा सकता है कि बच्चे क्यों बच्चे नहीं रहे!

Urmi said...

छुट्टियों का रहता है हर किसीको बेसब्री से इंतज़ार! पर क्या करें जब छुट्टी न मिले तो हम हो जाते हैं निराश! बच्चों की गर्मी की छुट्टी शुरू गयी बस अब तो खूब मस्ती है! बहुत बढ़िया आलेख! पढ़कर बहुत अच्छा लगा!

Anonymous said...

उन बच्चों के मन में तो झांकिए जिन्हें साल भर के बाद यह फुरसत मिली है ... आपका यह आलेख लोगों की आँखें खोले , यही दुआ है

shikha varshney said...

बहुत ही सही बात कही है आपने.इस दिखावे के चलते बच्चों से उनका बचपन तो छीन ही रहे हैं हम बल्कि उनके व्यक्तित्व को भी कन्फ्यूज कर रहे हैं.
हमने स्कूल तो पश्चिम की तर्ज़ पर बना लिए नाम भी रख दिए इंटरनेशनल. परन्तु मानसिकता नहीं बदल पाए.

Rajesh Kumari said...

jo main kahna chahti hoon sabhi logon ne kah diya.simply ur article is suparb.vicharniye lekh hai.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

गर्मियों की छुट्टियों में भी बच्चों को अवकाश नहीं ... समसामयिक अच्छा लेख ...इस आपाधापी में बच्चों का बचपना खो गया है

संध्या शर्मा said...

बिलकुल सही कहा है ...छुट्टी को छुट्टी ही रहने देना चाहिए... उन्हें भी कुछ दिन जी भर के खेलने मस्ती करने देना जरूरी है...आपने.तो बच्चों के मन की बात कह दी ...

Aditya Tikku said...

satik - utam***

naresh singh said...

महत्वकांक्षा में बचपन खोता जा रहा है | एक वो बचपन है जब रोजाना शाम को जी भर कर धूल में नहा कर आते थे |एक आजकल के बच्चे है जो बिना प्रेस कीए हुए कपडे नहीं पहनते |

Amrita Tanmay said...

छुट्टियाँ शुरू होते ही आपका सुन्दर पोस्ट पढ़ने को मिला.काश..... सभी अभिभावक अपने बच्चों को रेस का घोडा बनाने से बचा पाते .. तो बच्चें और बेहतर ही करते .

रंजू भाटिया said...

बहुत बढ़िया पोस्ट लिखी है आपने ...सही समस्या एक बारे में लिखा है आपने ....आज की जीवन शैली ही यही बन के रह गयी है

Dr Varsha Singh said...

वर्तमान समय में यही culture पनप गया है....जिसमें बदलाव लाना मुश्किल है.
सही कहा है आपने कि बच्चों की छुट्टीयां भी दिखावा संस्कृति की भेंट चढ गईं हैं।
लेख बहुत अच्छा है...... विचारणीय है।
अच्छी प्रस्तुति के लिए बधाई तथा शुभकामनाएं !

निवेदिता श्रीवास्तव said...

मोनिका बिलकुल सच लिखा ...अब तो बच्चों के पास खाली समय बचता ही नहीं ....काफ़ी सारा समय तो स्कूल से मिलने वाले होमवर्क की भेंट चढ़ जाता है और बाकी का अभिभावकों के अधूरे सपनों को पूरा करने में ......शुभकामनायें !

तरुण भारतीय said...

आपकी इस पोस्ट की सहमती में हमको भी शामिल करियेगा ...................................धन्यवाद

rashmi ravija said...

माता-पिता में एक होड़ सी लगी होती है कि बच्चों को क्या क्या ना सीखा दें...

गर्मी छुट्टियाँ शुरू होने के बाद भी बच्चे सुबह-सुबह...स्कूल जाते दिखते हैं...अलग-अलग एक्टीविटीज़ के लिए...बस यूनिफॉर्म नहीं होता...बैग-पानी की बोतल-टिफिन सब होता है.

अगर किसी क्लासेज़ में डालना भी है तो कम से कम पंद्रह दिनों की छूट तो दे ही दें..ताकि बच्चे सुबह देर से उठें...और अपने मन मुताबिक़ समय व्यतीत कर सकें.

G.N.SHAW said...

बहुत ही बढ़िया सुझाव , विचार करने लायक ! लोग समयानुकूल सोंचने पर मजबूर हो जाते है !

मदन शर्मा said...

बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है आपने...
बिलकुल सही फ़रमाया...छुट्टी को छुट्टी ही रहने देना चाहिए...
अच्छी प्रस्तुति के लिए बधाई तथा शुभकामनाएं !

मदन शर्मा said...

बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है आपने...बिलकुल सही फ़रमाया...छुट्टी को छुट्टी ही रहने देना चाहिए...
अच्छी प्रस्तुति के लिए बधाई तथा शुभकामनाएं !

सु-मन (Suman Kapoor) said...

bahut badhiya post...

Patali-The-Village said...

अब तो बच्चों के पास खाली समय बचता ही नहीं| धन्यवाद|

Manav Mehta 'मन' said...

sahi kha aapne....

Shalini kaushik said...

monika ji bachche aajkal maa-baap ka star hain apne dikhave poore karne ko unhone bachchon ko product bana dala hai .aur isme bachchon ka bachpan chhin gaya sa kagta hai.vicharniy post.

Roshi said...

baccho ko machine bana diya hai hamne''''''''''''''''
bachpan khatam ho gaya hai

Anonymous said...

एकदम सही कहा मोनिका जी "वे तो बचपन में ही भूल रहे है कि बचपन क्या होता है" इस आपाधापी की ज़िंदगी में हम उनकी ज़िंदगी भी घड़ी की सुई से बांध कर मशीनी कर रहे हैं. मै वीरू जी के "मी टाइम" की बात से पूरी तरह सहमत हूँ... बच्चों को उनका "मी टाइम" देना होगा उनके स्वाभाविक सर्वांगीण विकास के लिए

anshumala said...

मैंने भी सोचा था की छुट्टियों में बेटी को किसी क्लास में जरुर डालूंगी किन्तु वजह ये थे की वो कही नहीं गई तो घर में सारे दिन बोर हो जाएगी बाहर जाएगी १ घंटे के लिए तो मन उसका बहला रहेगा | घूमने तो वही तीन चार दिनों के लिए ही गए फिर क्या करेगी | लेकिन उसके कजन घर आ गए तो क्लासेस की छुट्टी हो गई छुट्टिया अब ख़त्म होने को है पूरा सिर्फ खेलते हुए गुजार दिया अब बड़ी होगी तो खुद सोचेंगे की क्या करना है |

amit kumar srivastava said...

har bachche ke dil ki baat kar di aapne ..

bahut khub..

ज्योति सिंह said...

न जाने क्यों मुझे तो यही लगता है सब कुछ सीखने की इस जद्दोज़हद ने बच्चों की सोचने-समझने की शक्ति को छीन लिया है |
monika ji bilkul pate ki baat kahi hai ,ab chhuttiya hokar bhi nahi rahi aur apne anusaar bachcho par shauk laad dete hai ,ati uttam

Anonymous said...

rightly said
we should not force children to do this or that
hum apani salaah de sakte hain
par un par thop nahisakte
nice blog
iam following it
and thanks for a visit to my blog
i hope that u will visit again

SKT said...

बहुत सही कहा आपने मोनिका जी , मगर बच्चों की मनमर्जी भी कई बार उनके दोस्तों से प्रभावित होती है!!

ashish said...

बच्चो पर अपनी इच्छाए लादकर उनकी छुट्टियों की छुट्टी कर देते है माता पिता . सार्थक आलेख.

SKT said...

बहुत सही कहा आपने मोनिका जी , मगर बच्चों की मनमर्जी भी कई बार उनके दोस्तों से प्रभावित होती है!!

दिवस said...

बहन मनिका जी...सच में आजकल बच्चो की तो छुट्टियां भी छुट्टी पर चली गयी हैं...बेचारे बच्चे भी क्या करें?
मुझे याद है मेरी गर्मियों की छुट्टियाँ हमेशा मेरे ननिहाल में ही बीतती थीं| परीक्षाएं समाप्त होते ही अगले ही दिन मामाजी लेने आ जाते| उनके साथ मैं और मेरे बड़े भैया चले जाते और दो महीने वहीँ धमाचौकड़ी|
किन्तु अब तो अरसा बीत जाता है नानी के पास गए हुए|
फिलहाल बच्चों के लिए ऐसा नहीं होना चाहिए| छुट्टियों में तो उन्हें उनका अधिकार मिलना ही चाहिए|

Urmi said...

टिप्पणी देकर प्रोत्साहित करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!

डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह said...

Rightly said Monika ji.yahi baat child psychologist bhi kah rahe hai ki baccho ko apna swabhavik jeevan jine de.You raised a very important issue,my congrats.
Heartly thanks for coming to my blog and making a very positive and encouraging comment as always.Thanks,
regards,
dr.bhoopendra singh
rewa
mp

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

बिलकुल सही लिखा है आपने....

आधुनिकता की अंधी दौड़ में संवेदनाओं का सतत ह्रास हो रहा है ..

बच्चों को मित्रवत समझकर उनके मन को भी पढना चाहिए हमें |

RAJPUROHITMANURAJ said...

बच्चों से उनका बचपन छिनता जा रहा है...
महत्वपूर्ण चिन्तन के लिए साधुवाद...

Minakshi Pant said...

ये पोस्ट पढ़ कर ख़ुशी भी हुई और दुःख भी | ख़ुशी इसलिए की मुझे अपनी बात कहने का मौका मिला और दुःख बच्चो की लाचारी देख कर | हाँ तो मैं आपकी इस पोस्ट से बिल्कुल सहमत हूँ और देखो न हम पूरी जिंदगी अपनी जिंदगी कहाँ जीते हैं हम तो बचपन से ही उधार की जिंदगी जीने लगते हैं माँ ने एसा कहा तो ऐसा करो पिता ऐसा कह रहें हैं तो ऐसा ही करना होगा और ये बचपन से शुरू हुआ सिलसिला बाद में हमारी आदत ही बन जाता है और हम इसी को अपनी जिंदगी समझ बैठते हैं | और कोई भी फैसला दुसरे की मर्जी के बिना ले ही नहीं पाते |
बहुत खुबसूरत विषय चुना दोस्त |

सुधीर राघव said...

बहुत विचारणीय पोस्ट है.

जयकृष्ण राय तुषार said...

डाक्टर मोनिका जी बहुत सुन्दर आलेख बधाई

Dinesh pareek said...

बहुत ही सुन्दर लिखा है अपने इस मैं कमी निकलना मेरे बस की बात नहीं है क्यों की मैं तो खुद १ नया ब्लोगर हु
बहुत दिनों से मैं ब्लॉग पे आया हु और फिर इसका मुझे खामियाजा भी भुगतना पड़ा क्यों की जब मैं खुद किसी के ब्लॉग पे नहीं गया तो दुसरे बंधू क्यों आयें गे इस के लिए मैं आप सब भाइयो और बहनों से माफ़ी मागता हु मेरे नहीं आने की भी १ वजह ये रही थी की ३१ मार्च के कुछ काम में में व्यस्त होने की वजह से नहीं आ पाया
पर मैने अपने ब्लॉग पे बहुत सायरी पोस्ट पे पहले ही कर दी थी लेकिन आप भाइयो का सहयोग नहीं मिल पाने की वजह से मैं थोरा दुखी जरुर हुआ हु
धन्यवाद्
दिनेश पारीक
http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/
http://vangaydinesh.blogspot.com/

Dinesh pareek said...

बहुत ही सुन्दर लिखा है अपने इस मैं कमी निकलना मेरे बस की बात नहीं है क्यों की मैं तो खुद १ नया ब्लोगर हु
बहुत दिनों से मैं ब्लॉग पे आया हु और फिर इसका मुझे खामियाजा भी भुगतना पड़ा क्यों की जब मैं खुद किसी के ब्लॉग पे नहीं गया तो दुसरे बंधू क्यों आयें गे इस के लिए मैं आप सब भाइयो और बहनों से माफ़ी मागता हु मेरे नहीं आने की भी १ वजह ये रही थी की ३१ मार्च के कुछ काम में में व्यस्त होने की वजह से नहीं आ पाया
पर मैने अपने ब्लॉग पे बहुत सायरी पोस्ट पे पहले ही कर दी थी लेकिन आप भाइयो का सहयोग नहीं मिल पाने की वजह से मैं थोरा दुखी जरुर हुआ हु
धन्यवाद्
दिनेश पारीक
http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/
http://vangaydinesh.blogspot.com/

Kailash Sharma said...

बच्चों की छुट्टियों का किस तरह उपयोग किया जाये इसका बहुत सार्थक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण..बहुत ज़रूरी है कि बच्चों को कम से कम कुछ समय के लिये बच्चों की तरह जीने दिया जाये. बहुत सुन्दर पोस्ट..

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

अपने बच्चों को उत्तम बनाने के चक्कर में शायद हम उनका सर्वोत्तम छीन रहे हैं.प्रकृति ने उम्र के अनुसार ही स्वभाव प्रदत्त किये हैं.बचपन के साथ खेल ,शरारत ,मस्ती जुडी हैं.कम से कम छुट्टियों में अपनी महत्वकांक्षाएं उन पर न लादें,उन्हें मनचीता करने दें.ज्वलंत विषय पर आपने लेखनी चलाई है.

Brijendra Singh said...

aaj kal hamaare samaj mai thought control ke siva kuchh nahin hota hai..bachapan se hi bachchon ko creativity aur innovation ke scope se mahroom rakha jata hai..mujhe to "Pink Floyd" ke lyrics yaad aa rahe hain.."we dont need no education, we dont no THOUGHT CONTROL"..

महेन्‍द्र वर्मा said...

छुट्टियों का उपयोग बच्चे की पसंद और रुचि के अनुसार होना चाहिए।
सामयिक और सभी पालकों के लिए विचारणीय मुद्दा।
बढ़िया आलेख।

Sawai Singh Rajpurohit said...

आदरणीय डॉ .मोनिका शर्माजी
नमस्कार

आपकी बात सही है!

Sushil Bakliwal said...

बहुत सामयिक सोच । उम्मीद है इसे पढने वाले पेरेण्ट्स अपने बच्चों के प्रति लिये जाने वाले फैसलों पर फिर से सोचें ।

Kunwar Kusumesh said...

आपकी बात से सहमत हूँ.

Jyoti Mishra said...

this is something very wrong prevailing in our society these days.

Nice post !!

नश्तरे एहसास ......... said...

hamare blog par aane k liye bahut-bahut shukriya....aapke is lekh se shayad bahut log jaan paaye bachon ka bachpan vo andekhe mein hi sahi par cheen lete hai vo-icecreams,vo ghumna,vo dhoop chuttiyaan jo apne ghar aur ghar walon specially ma-papa k saath k liye milti hai.i m nw a follower of ur"s.

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

छुट्टियां, छुट्टियां, छुट्टियां....
और हम तंग है बच्चों के शोर से :)

रचना दीक्षित said...

छुट्टी है भाई छुट्टी है. आप ने बढ़िया राह दिखाई है. आभार.

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

Bachchon ke liye chhuttiyaan matlab khushiyon ka khazana.

............
खुशहाली का विज्ञान!
ये है ब्लॉग का मनी सूत्र!

Vivek Jain said...

बहुत बढिया!
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

डॉ. नागेश पांडेय संजय said...

सुन्दर प्रस्तुति .

कल था सृजन का जन्म दिन . बाल मंदिर में पढ़िए जन्म दिन आपको मुबारक हो

http://baal-mandir.blogspot.com/

smshindi By Sonu said...

very nice post

Rachana said...

sahi likha hai jab me padhati thi to
yahi sochti thi .aap ne mere man ki baat likhi hai .
rachana

गिरधारी खंकरियाल said...

ab to chhutiyan mrit prayah ho chuki hai adhunikta ke rang mein.

रंजना said...

बहुत बहुत बहुत सही कहा आपने...शब्दशः सहमत हूँ आपसे...

खुद और अपने बच्चों को सबसे अलग सबसे बेहतर बनवाने और सबके बीच यह साबित करने के चक्कर में खुद अभिभावक बच्चों की स्वाभाविक प्रतिभा तथा सहज चपलता को कुचल कर रख देते हैं...यह नहीं सोच पाते कि इस चक्कर में वे खुद ही अपने बच्चों को बोनसाई बना रहे हैं...

अनुभूति said...

बहुत ही सुन्दर लेख ... बचपन में ही परिपक्व होने की मजबूरी ...

समय चक्र said...

बच्चों पर बढ़िया अभिव्यक्ति... सचमुच ऐसा लगता है की आजकल समय से पहले ही बच्चों का बचपन खो जाता है ..आभार

कमलेश खान सिंह डिसूजा said...

बहुत ही सुन्दर लेख ||

Urmi said...

टिप्पणी देकर प्रोत्साहित करने के लिए शुक्रिया !

Arunesh c dave said...

बात तो सच है बच्चो को छूट मिलनी चाहिये पर दिन भर वीडियो गेम्स और कार्टून की इजाजत देना भी ठीक नही बीच का रास्ता निकालना ही ठीक है

Arunesh c dave said...

आपकी बात सही है ।

priyadarshini said...

badhiya lekh....mai to apne bachcho kp poori chhutti un ke anusar bitane deti hoo....yah alag baat hai ske liye mujhe poori family se panga lena pdta hai..

​अवनीश सिंह चौहान / Abnish Singh Chauhan said...

आप ऐसे विषयों को चुनकर प्रस्तुत करती हैं जो घर-परिवार से, जिम्मेदारियों से जुड़े होते हैं. इस हेतु आपको साधुवाद.

--

दिगम्बर नासवा said...

सच कहा है ... विचार करने वाली बात है ... हम बड़े खुद ही बच्चों में आज बचपना नही रहने देते ...

Anonymous said...

विचारणीय एवं सार्थक प्रस्तुति - आपके द्वारा चुने हुए विषय और उनका प्रस्तुतीकरण गज़ब का होता है

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

अभिभावक न जाने किस अनजाने भय से डरे हुए हैं.गर्मी की छुट्टियाँ बच्चों को खुल कर मनाने दें.मामा ,नाना के घर कम से कम १५ दिनों के लिए छोड़ कर आयें.बच्चे को आयु के अनुसार ही बढ़ने दें. स्वाभाविक विकास ही जीवन को सफल बनाता है.

डॉ. मोनिका शर्मा said...

इस विषय को विस्तार देने और अपने विचारों को कमेन्ट के रूप में साझा करने का आभार

virendra sharma said...

पहले बीवियां ही पद प्रतिष्ठा की तालिका में आती थीं,अब बच्चे भी आगएं हैं .इसी स्थिति पर एक बड़ा मौजू शैर है -
होश के लम्हे नशे की कैफियत समझे गए हैं ,
फ़िक्र के पंछी ज़मीं के मातहत समझे गएँ हैं .
नाम था अपना पता भी ,दर्द भी इज़हार भी पर हम हमेशा ,

दूसरों की मार्फ़त समझे गए हैं ।
ये नन्ने के पिताजी ही यह काकू की माताजी हैं अब बड़ों का परिचय यहीं तक रहने जारहा है .

Arvind Mishra said...

उनकी छुट्टियाँ तो इस साल भी छुट्टी पर हैं :(
बिलकुल सही -
नए शिक्षा और अवसर के तौर तरीकों और अभिभावकों के दमित आग्रहों ने बच्चों से उनका
बचपन छीना है !

viram Singh said...

Bahut shandar likha

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