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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

11 December 2010

अभावों से जन्मते जीतने के भाव......!

मोची के बेटे का आईआईटी की परीक्षा में सफलता हासिल करना। तमाम अभावों के बावजूद अपने लक्ष्य को पाने का वाले अभिषेक के घर बिजली नहीं है, पूरा परिवार छोटे से कमरे में रहता है और जरूरत पङने पर अभिषेक खुद भी मजदूरी करने जाता था............... !

झुग्गी में अभावों के बीच परवरिश, पिता मजदूर, मां का काम घर-घर चौका बर्तन करना। स्कॉलरशिप से पढाई की और हरीश ने आईएएस में पहले प्रयास में सफलता अर्जित की.... !

हालांकि ये दोनों खबरें कुछ पुरानी हैं पर हमारे देश में तो हर दिन कोई न कोई कर्मठ युवा ऐसी ही कहानी गढ रहा है। अभावों के बीच जीने वाले ऐसे नौजवानों की परेशानियां भले ही सुर्खियां न बनें पर इनकी उपलब्धि यकीनन अखबारों और समाचार चैनलों के लिए हेडलाइन्स बनती हैं। पता नहीं क्यूं..........जब भी ऐसी कोई खबर जानने सुनने को मिलती है इन अनदेखे अनजाने चेहरों के लिए मन गौरान्वित हो उठता है और खुशी होती है यह सोचकर की न जाने कितने ही युवा इनसे प्ररेणा लेकर नया इतिहास रचने की राह पर चल पङेंगें। बस अफसोस होता है उन नौजवानों को लेकर जो सारी सुख-सुविधाएं पाकर भी कुछ ऐसे कृत्य करते हैं जो समाज और परिवार दोनों को शर्मिंदा करें। ऐसे में यह यकीन भी पुख्ता होता है कि जीवन की सही समझ के लिए अभाव यानि की कमियों के बीच जीना भी जरूरी है।


अभिषेक और हरीश जैसे कई युवा हर साल यह साबित करते हैं कि लालटेन की रौशनी में पढाई और उधार की किताबों वाली बातें सिर्फ फिल्मी कहानियों और किताबों के पन्नों तक सिमटी नहीं हैं। इतना ही नहीं आए साल देश के कई छोटे गांवों और कस्बों के होनहार कामयाबी की दौङ में नामी स्कूलों
के बच्चें को पीछे छोङकर हमें याद दिलाते हैं कि प्रतिभा सुविधा और संसाधनों की मोहताज नहीं होती।

बुनियादी सुविधाओं के अभाव के बीच भी अपनी इच्छाशक्ति को बनाये रखना आसान नहीं हैं। जीवन के प्रति सकारात्मक रवैया और लक्ष्य को पाने की ललक बहुत आवश्यक है। सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता। शायद यही वजह है कि जमाना चाहे कितना ही बदल गया हो एक चीज कभी नहीं बदल सकती। वो यह कि कङी मेहनत और लगन से सफलता पाने की प्रतिबद्धता हो तो चमत्कार आज भी होते हैं और अभावों के अंधेरों से सफलता की रौशन राहें भी निकलती हैं।

07 December 2010

बच्चों का व्यवहार बदलते विज्ञापन....!


आज के दौर में बचपन हजार खतरों से घिरा है। उनमें से एक विज्ञापनों की वो भ्रामक दुनिया भी है जो बिन बुलाये मेहमान की तरह हमारे जीवन के हर हिस्से पर अधिकार जमाये बैठी है। चाहे अखबार खोलिए या टीवी, इंटरनेट हो या रेडियो, इतना ही नहीं एक पल को घर की छत या बालकनी में आ जाएं जो साफ सुथरी हवा नहीं मिलेगी पर दूर- दूर तक बङे बङे होर्डिंग्स जरूर दिख जायेंगें जो किसी न किसी नई स्कीम या दो पर एक फ्री की जानकारी बिन चाहे आप तक पहुचा रहे हैं। यानि हर कहीं कुछ ऐसा जरूर दिखेगा जो दिमाग को सिर्फ और सिर्फ कुछ न कुछ खरीदने की खुजलाहट देता है। जिसका सबसे बङा शिकार बन रहे है वो मासूम बच्चे जिनमें इन विज्ञापनों की रणनीति को समझने का न तो आत्म बोध है और न ही जानकारी।


हालांकि इस विषय पर कई बार पढने-सुनने को मिलता है पर आजकल अभिभावकों के विचार और बच्चों के व्यवहार को देखकर तो लगता है बिन मांगे परोसी जा रही यह जानकारी बच्चों को शारीरिक , मानसिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर बीमार बना रही है। खासतौर पर टीवी पर दिखाये जाने वाले ललचाऊ और भङकाऊ विज्ञापनों ने बच्चों के विकास की रूपरेखा ही बदल दी है। खाने से लेकर खेलने तक उनकी जिंदगी सिर्फ और सिर्फ अजब गजब सामानों से भर गयी है। बच्चों को विज्ञापनों के जरिये मिली सीख ने जीवन मल्यों को ही बदल कर रख दिया है । इसी का नतीजा है कि बच्चों के स्वभाव में जरूरत की
जगह इच्छा ने ले ली है। इच्छा जो हर हाल में पूरी होनी ही चाहिए नहीं तो............ नहीं तो क्या होता है हर बच्चे के माता-पिता जानते हैं........ :)

व्यावसायीकरण के इस दौर में हर कंपनी के लिए उपभोक्ता संस्कृति ही परम ध्येय है। इसके लिए अपनाई गई रणनीति यानि हार्ड एडवरटाईजिंग का सॉफ्ट टार्गेट हैं बच्चे। करोङों अरबों डॉलर की खरीद फरोक्त के बाजारू जाल ने बच्चों के मन में भौतिक वस्तुओं को बटोरने की अनचाही ललक पैदा कर दी है । बच्चों के मन में यह बात घर कर गई है फलां फलां कंपनी का उत्पाद अगर उनके पास नहीं है तो वो कहीं पीछे छूट जायेंगें। हीनता और कमतरी का यह भाव नये तरह के जीवन मल्यों को भी जन्म दे रहा है जहां बच्चे किसी को आंकने का जरिया भौतिक वस्तुओं को समझने लगे हैं।

हमारे देश में हार्ड एडवरटाईजिंग का यह खेल खेलना न केवल आसान है बल्कि यह काफी फल फूल भी रहा है। क्योंकि विज्ञापनों के नकारात्मक प्रभावों को लेकर न सरकार गंभीर है और न ही अभिभावक। दुनिया भर के कई देशों में एक खास उम्र के बच्चों को संबोधित विज्ञापन बनाने पर ही रोक है पर हमारे यहां इसके लिए कोई प्रभावी कानून नहीं है। इतना ही नहीं जन जागरूता लाने वाले मीडिया ने भी बच्चों के जीवन में नकारात्मक प्रभाव डाल रहे विज्ञापनों के गंभीर मसले को जीवित रखने का प्रयास नहीं किया। उल्टे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वे भी इस काम में भागीदार बन रहे हैं क्योंकि उनकी सोच भी पूरी तरह कॉमर्शियल हो चली है।


जहां तक बात अभिभावकों की है जब तक उन्हें यह भान होता है कि बच्चे विज्ञापनों के इस कुचक्र में फंस गये हैं बहुत देर हो चुकी होती है। इसकी पहली वजह तो यह है कि विज्ञापनों को सबसे प्रभावी और आकर्षक ढंग से परोसने वाला टीवी उन्हें बच्चों के टाइमपास का आसान और सुरक्षित जरिया लगता है और दूसरी वजह यह है कि शुरूआत में माता-पिता भी अपनी बात मनवाने , खाने पीने और बातचीत का व्यवहार ठीक करने के लिए बच्चे को रिश्वत के तौर पर वे ही साजो-सामान लाकर देते है जिन्हें बङे वैभवशाली ढंग से विज्ञापनों में दिखाया जाता है। इसी के साथ समय न दे पाने के अपराधबोध के चलते हर दिन नौनिहालों के सामने कुछ नया और आकर्षक भी परोसा जाता है। नतीजा बच्चा आज ये तो कल वो वाली सोच के साथ बङा होता है और जीवन में स्थायित्व की सोच को स्थान ही नहीं मिलता।

सचमुच यह एक विचारणीय विषय है की दो सैकंड में दी गयी जानकारी एक बच्चे का पूरा जीवन ही बदल दे। इस प्रयोजन में भले ही व्यावसायिक सोच रखने वाले लोग सफल हैं पर समाज के भावी नागरिकों के व्यक्तित्व का यों विकसित होना अफ़सोस जनक तो है ही ।