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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

22 November 2010

उग्रता बनाम दृढ़ता ...!


आज की युवापीढ़ी एक खास तरह की मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक समस्या से ग्रसित नज़र आ रही है.... वो है उग्रता । ऊँची आवाज़ में बात करना ...... किसी भी इंसान का किसी भी बात पर मजाक बनाना...दूसरों को नीचा दिखाना ....असभ्य भाषा ..... और मैं ही सही हूँ की सोच के साथ जीना ..... उन्हें आत्मविश्वास यानि सेल्फ कोंफिड़ेंस लगता है। नईपीढ़ी को लगता है की जो नौजवान या नवयुवती ( जी हाँ इस समस्या से लड़के ही नहीं लड़कियां भी ग्रसित हैं ) ऐसा नहीं कर सकते उनमे ना तो आत्मविश्वास का गुण है और ना ही आगे बढ़ने की काबिलियत ।

सच कहूं तो हमारी यह पीढ़ी दृढ़ता और उग्रता के अंतर को भूल गयी है। अपने व्यवहार और विचार की उग्रता उन्हें दृढ़ता लगती है .... आत्मविश्वास की कुंजी लगती है। जबकि सच तो यह है दृढ और उग्र सोच में ज़मीन आसमान का फर्क होता है। विचार और व्यवहार में दृढ़ता ना केवल हमें प्रोफेशनल फ्रंट पर कामयाबी दिलाती है बल्कि हमारे एक जिम्मेदार इंसान और नागरिक बनने के लिए भी ज़रूरी है जबकि उग्रता जीवन के हर क्षेत्र में आपको पीछे ही धकेलती है। उग्र व्यक्ति हमेशा अपनी ही बात कहने और मनवाने में विश्वास रखता है जबकि दृढ व्यक्ति अपने विचार रखने के साथ ही दूसरों के विचारों को भी धैर्य के साथ सुनता ,समझता और सम्मान देता है।

विचारों की उग्रता बहुत जल्दी हमारे व्यवहार में भी जगह बना लेती है । क्योंकि मन -मस्तिष्क जैसा सोचता है वैसे ही हम कर्म करते हैं और जैसे कर्म करते हैं वैसे ही परिणाम हमारे सामने होते हैं। तभी तो इस उग्र सोच के साथ बड़ी हो रही इस पीढ़ी के कृत्य आये दिन अख़बारों की सुर्खियाँ बनते हैं। कभी बातों बातों किसी परिवार को चलती ट्रेन से नीचे फेंक देने के लिए तो कभी शराब पीकर लोगों को कुचल देने के लिए। इस उर्जावान और आत्मविश्वासी नई पीढ़ी का यह उग्र चेहरा आप बस, ट्रेन , सड़क , पार्क, कालेज, घर यहाँ तक की किसी सामाजिक समारोह में भी देख सकते हैं। उनके लिए सेन्स ऑफ ह्यूमर और प्रभावी व्यक्तित्व के मायने हैं उदंडता और औरों के आत्मविश्वास को ठेस पहुंचाना।


विचारों में स्थायित्व और दूसरों के प्रति सम्मानजनक भाषा एवं व्यवहार व्यवसायिक ही नहीं सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर भी स्वयं को सफल बनाने और बनाये रखने के बहुत ज़रूरी हैं। यह बात इस जनरेशन को समझना बहुत ज़रूरी है । आमतौर पर देखने में आता है की उग्रता विचारों को नकारात्मक दिशा देती है। क्योंकि हर हाल में खुद को सही साबित करने की धुन तटस्थ वैचारिक प्रवाह को अवरुद्ध कर देती है। नतीजा अक्सर गलत निर्णय पर आकर रुकता है। यह निर्णय परिवार , प्रोफेशन या दोस्ती किसी चीज़ से जुड़ा हो सकता है। जो की उग्र व्यवहार से ग्रसित इंसान को सिर्फ पश्च्याताप की सौगात देता है.......... !

13 November 2010

चलो माँ बनकर जियें...एक अपील


आज बाल दिवस है यानि बच्चों को समर्पित एक दिन, इसीलिए आज के दिन बस एक अपील .......उन सब बहनों से जो माँ हैं या माँ बनने जा रहीं हैं कृपया ..... कुछ समय के लिए बस माँ बनिये सिर्फ माँ ! अपने बच्चों को पूरा समय दीजिये उनके साथ खेलिए............गाइये...... गुनगुनाइए...... बरसात कि बूंदों में भीगिए...... सुबह जब वो आँख खोले उसके सामने रहिये और रात को उसे अपने सीने में छुपाकर इस बात का अहसास करवाइए कि आप हमेशा उसके पास हैं.......उसके साथ हैं । कभी कभी उसे लेकर यूँ ही टहलने निकल जाइये वो जिधर इशारा करे चलते रहिये । कुछ समय के लिए समय की पाबन्दी को भूलकर बस ! माँ बन जाइये।

हाल ही में एक खबर सुनने में आई कि एक कामकाजी जोड़े की बच्ची ने आया की देखरेख में अपनी सुनने की ताकत हमेशा के लिए खो दी। कारण यह था कि परेशानी से बचने के लिए आया बच्ची को कमरे में बंद कर टीवी काफी तेज आवाज़ में चला देती थी।

हम आगे बढ रहे हैं , प्रगतिशील हो रहे हैं और ऐसी घटना इसी तरक्की की बानगी भर है। बच्चे को दुनिया में लाने से पहले ही आज के परेंट्स हर तरह की प्लानिंग कर लेते हैं पर उसे समय देने के मामले पर विचार कम ही होता है। पिछले कुछ सालों में वर्किंग मदर्स की संख्या में जितना इज़ाफा हुआ है मासूम बच्चों की मुश्किलें भी उतनी बढ़ी हैं। क्रेच और बेबी सीटर जैसे शब्द आम हो गए हैं। अगर संयुक्त परिवार है तो दादी-नानी बच्चों की माँ बन रही हैं (आजकल ऐसे परिवार बस गिनती के हैं ) नहीं तो इन नौनिहालों की परवरिश पूरी तरह नौकरों के भरोसे है।


बड़े शहरों में ज्यादातर कामकाजी जोड़ों के बच्चे पूरे दिन अकेले आया के साथ गुजार रहे हैं। सोचने की बात यह है की जो बच्चा आपकी गैर-मौजूदगी में उसके साथ होने वाले दुर्व्यवहार के बारे में बोलकर बताने के लायक भी नहीं है उसे यों अकेला छोड़ना कहाँ तक उचित है ? मेरे विचारों को जानकर कृपया यह न सोचें कि मैं कामकाजी महिलाओं को उलाहना दे रही हूँ या उनकी परिस्थिति नहीं समझती । मैं उनके जज़्बे को सलाम करती हूँ जिसके दम पर वे घर और दफ्तर की ज़िन्दगी में तालमेल बनाकर चलती हैं। पर मैं मानती हूँ की माँ होने की जिम्मेदारी से बढ़कर कोई काम नहीं हो सकता। माँ बनना और अपने बच्चे के विकास को हर लम्हा जीना एक विरल अनुभूति है। जिसे महसूस करना हर माँ का हक़ भी है और जिम्मेदारी भी।


कई अध्ययन यह साबित कर चुके हैं कि बच्चे का मनोविज्ञान जैसा उसकी माँ के साथ होता है किसी और के साथ नहीं होता.....दादी-नानी के साथ भी नहीं। ऐसे में एक अजनबी (आया) के साथ बचपन बीतना बच्चों के किये कितना तकलीफदेह हो सकता है यह समझना मुश्किल नहीं है। हम लाख दलीलें देकर भी इस बात को नहीं झुठला सकते कि माँ का विकल्प मनी या आया नहीं हो सकता, कभी भी नहीं। माँ बच्चे के जीवन की धुरी होती है । उसकी हर छोटी बड़ी समझाइश बच्चे के जीवन की दिशा बदल सकती है । लेकिन मौजूदा दौर में तो मांओं के पास वक़्त ही नहीं है तो फिर समझाइश कैसी ? ज़ाहिर सी बात है कि नौकरों के सहारे पलने वाले बच्चों की परवरिश में प्यार और संस्कार की कमी तो है ही मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना भी कुछ कम नहीं है। बचपन के इन हालातों का असर बच्चे की पूरी ज़िन्दगी पर पड़ता है और आगे चलकर हमारे इन्हीं बच्चों का व्यव्हार समाज की दिशा व दशा तय करता है।


आज हमारे समाज में औरतों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार और भेदभाव से तकरीबन हर महिला को शिकायत है। ऐसे में माँ होने के नाते आप एक जिम्मेदारी उठायें । अपने बच्चे की परवरिश की , वो बच्चा जो इस समाज का भावी नागरिक होगा शुरू से ही उसे सही सीख देकर एक सुनागरिक बनायें। बेटी को हौसले से जीने का पाठ पढ़ायें और बेटे को घर हो या बाहर औरतों की इज्ज़त करना सिखाएं। ज़ाहिर सी बात है की ऐसी परवरिश के लिए उनके साथ समय बिताना, उन्हें समझना और समझाना बहुत ज़रूरी है। तो फिर मातृत्व को जीने और बच्चों के पालन-पोषण को सही मायने देने के लिए चलो........कुछ समय के लिए बस माँ बनकर जीयें



(यह पोस्ट मैंने काफी समय पहले लिखी थी...... शायद उस समय ज्यादा लोगों ने पढ़ा भी नहीं था ...... आज बाल दिवस के मौके पर बच्चो के लिए कुछ लिखने का सोचा तो लगा माओं से जुड़ी पोस्ट ज्यादा ज़रूरी है।)

बाल दिवस की हार्दिक शुभकामनायें.....




11 November 2010

इन्साफ से मौत....!


मेरी पिछली पोस्ट निजता का मोल में मैंने रियलिटी टीवी शोज की टीआरपी के लिए चैनल्स और उनमे भाग लेने वाले प्रतिभागियों के द्वारा अपनाये जा रहे हथकंडों की बात की। आप सभी की अर्थपूर्ण टिप्पणियों के ज़रिये मुझे यह लगा की इनकी चाल को हम सभी अच्छे से समझ रहे हैं ...... यह जानकर सुखद अनुभूति हुई ही थी कि..................
आज टीआरपी के खेल की एक और शर्मनाक खबर पढने को मिली। इन दिनों किसी चैनल पर ' राखी का इन्साफ ' नाम का एक कार्यक्रम दिखाया जा रहा है.... कौन सा चैनल इसकी मुझे जानकारी नहीं है क्योंकि यह प्रोग्राम अब तक मैंने नहीं देखा।
बहरहाल खबर यह थी की इस कार्यक्रम में राखी से अपने पारिवारिक झगड़े को सुलझाने और इंसाफ पाने की उम्मीद में आये एक युवक ने भद्दी टिप्पणियों से क्षुब्ध होकर अपनी जान दे दी..... उसे राखी ने कुछ ऐसे शब्द कहे की खाना पीना छोड़ वह अवसाद में चला गया..... और कल उसकी मौत हो गयी।

पहले तो यह कार्यक्रम नहीं देखा था पर इस समाचार को पढ़कर सोचा की जान ही ले ले ऐसा क्या शो है..... ? ज़रा देखा जाये। आप सबको जानकर यह बिल्कुल भी हैरानी नहीं होगी कि मैं इस भोंडे और फूहड़ता से भरपूर कार्यक्रम को दो मिनट भी नहीं देख पायी। निसंदेह यह बात ज़रूर समझ आ गयी कि इस शो में राखी जो भाषा और हावभाव रखती हैं वो किसी भी संवेदनशील इंसान की जान लेने के लिए काफी है।

उसी समय मन में कुछ भी सवाल आये...........!


ये कौन लोग हैं जो राखी सावंत से अपने घर के झगड़े सुलझाने की आशा लिए नेशनल टेलीविजन पर चले आते हैं..... या फिर दाम देकर बुलाये जाते हैं.......?

टीआरपी की होड़ में फूहड़ता परोसने की चाह रखने वाले निर्माताओं की सोच कैसी होगी......? जिन्होंने उस राखी सावंत के नाम के आगे इन्साफ जोड़कर शो रच डाला जिनके अपने जीवन की कोई आचार संहिता नहीं है.......!

आखिर वे कौन लोग हैं जिन्हें यह लगता है कि राखी उनकी किसी समस्या का समाधान कर सकती है....वो राखी जो खुद पूरे समाज के लिए किसी समस्या कम नहीं......?

08 November 2010

निजता का मोल....!

हमारे देश में सेलिब्रिटी होना अपने आप में बहुत खास है और उससे भी ज्यादा खास हैं इस सेलिब्रिटी स्टेटस को बनाये रखने के हथकंडे। हमारा देश इस लिए कह रही हूँ क्योंकि होता तो ऐसा दुनिया भर में है पर भारत में तो किसी टीवी सीरियल के दो एपिसोड में काम करके भी लोग लोकप्रियता के फलक छूने लगते हैं। अखबार के पन्नों में इन्हें विशेष जगह मिल जाती है और सारे ज़रूरी या गैर ज़रूरी मुद्दे छोड़ न्यूज़ चेनल्स इन्हें प्राइम टाइम के मेहमान बनाने लगते हैं। अगर मामला सेलिब्रिटी की शादी, अफेयर या तलाक का हो तो तमाशा बड़ा खास होता है। फिर कोई शो हो , सीरियल हो या न्यूज़ चैनल सब उसे भुनाने के खेल में शामिल हो जाते हैं।

आजकल चल रहे रियलिटी शो बिग बॉस में लड़ाई झगड़े और घर में रह रहे लोगों के बीच आपसी विवादों के अलावा जो चीज़ सबसे ज्यादा बिक रही है वो है निजता। हर कोई अपनी ज़िन्दगी से ऐसे कुछ ऐसे किस्से ज़रूर साथ लाया है जो उनके निजी जीवन से जुड़े हैं। जिस अनुपात में यह व्यक्तिगत मुद्दे कभी रो कर तो कभी हंसकर कार्यक्रम के ज़रिये दुनिया तक पहुंचाए जा रहे हैं उसी अनुपात में चेनल का मुनाफा भी बढ़ रहा है। गौर करने की बात यह है की यहाँ कोई और नहीं बल्कि ये चर्चित चेहरे स्वयं अपनी निजता का अतिक्रमण कर रहे हैं। यक़ीनन इस निजता का मोल तो ज़रूर तय हुआ होगा वरना क्यों कोई नेशनल टीवी पर अपनी बीवी से ना बनने की बात करेगा और क्यों कोई अपनी शादी ही बिग बॉस हाउस में करना चाहेगा.....?


जी हाँ सारा खान तो इस शो में शादी ही करने जा रही हैं। यानि अपने जीवन के सबसे निजी पलों जिन्हें परिवार या दोस्तों के साथ बांटा जाता है उनका ही सौदा कर डाला। खबर तो यह भी है की अली ने शो में शादी करने के लिए मोटी रकम वसूली है। यानि शादी तो करार में ही तय हो गयी थी। तीन महीने पहले से एक जाने माने डिजाइनर इनके कपड़े डिजाइन कर रहे हैं। इन सब के बावजूद यह एक रियलिटी शो है यानि ना इसकी स्क्रिप्ट है और ना कल क्या होगा इसका अंदाज़ा। तभी तो देखिये ना सारा के साथी जिनसे वो नेशनल टीवी पर शादी करने जा रही हैं अचानक कार्यक्रम का हिस्सा बन जाते हैं और बात बात में झगड़ने वाली डॉली खुद दूसरों के व्यक्तिगत किस्से छेड़ने में ही व्यस्त रहती है। अब इस शो में क्या और कितना रीयल है इसका अंदाज़ आप खुद लगा सकते हैं।


सभी में एक होड़ लगी है अपने जीवन हर घटना का जिक्र कर अपना पक्ष प्रस्तुत करने की। हर कोई अपने किस्से सुनाकार जनता से सहानुभूति और निर्माताओं से धन वसूलने में लगा है। यह निजता उनकी अपनी है जिसे वे मुहमांगे मोल बेच रहे हैं। और ना जाने क्यों लोगों को भी यह सब बहुत लुभा रहा है । ऐसा हो भी क्यों नहीं टीआरपी के लिए आडम्बर रचने का यह खेल दर्शकों के मनोविज्ञान के मुताबिक ही तो खेला जाता है। इसी का परिणाम है कि निजी जीवन की कुछ निधियां जो कभी अनमोल हुआ करतीं थीं उन सब रिश्तों- नातों का बाजारीकरण के इस दौर में तयशुदा मोल है..........


एक समय में सेलिब्रिटीज़ की सबसे बडी इच्छा यही हुआ करती थी कि मीडिया उनके निजी जीवन तक ना पहुंचे। आजकल सब उल्टा हो रहा है। जनता जरा चेहरा पहचानने लगती है कि अपने मेकअप के गुरों से लेकर जीवन साथी तक हर भले-बुरे पहलू का बखान सेलिब्रिटीज़ खुद करने लगते हैं। ऐसा होने की वजह भी साफ़ है व्यवसायीकरण की दौड़ और टीआरपी की होड़। हर आंसू.... हर लफ्ज़..... के दाम अच्छे मिल जाते हैं।

02 November 2010

हर आँगन बिखरे आलोक

प्रकाश पर्व के पावन अवसर पर आज बात एक ऐसी परंपरा की जिसमें स्नेह, सद्भाव और सदाचार से जीने का संदेश समाहित है। इस रिवाज़ को दीपदान कहा जाता है। राजस्थान के कई हिस्सों दीपदान की परंपरा दीवाली के त्योंहार का अहम हिस्सा है। हमारी लोकसंस्कृति के सुंदर अर्थ लिए इस परंपरा का निर्वहन आज भी गांवों और शहरों में पूरी आस्था और विश्वास के साथ किया जाता है।

दीपावली के दिन सांझ ढलते ही अपने घर में दीप जलाने के बाद घर की बहू या बेटी अपने आस-पास के घरों के द्वार पर जाकर दीपक रखकर आती हैं। घर-घर जाकर दीपक रखने के लिए पारंपरिक परिधानों में सजी महिलाएं हाथों में जलते दीपों का थाल लेकर निकलती हैं और इस रिवाज को पूरे मन से निभाती हैं।

आज के दौर में जहां लोगों की सोच और दुनिया सिर्फ अपने आप तक सिमट कर रह गयी है वहां त्योंहार के अवसर पर अपने घर की जगमगाहट के साथ ही दूसरों के घरों को भी आलोकित करने की यह परंपरा सचमुच कितनी प्यारी और प्रासंगिक है.......! दीवाली के दिन हर दरवाजे पर किसी दूसरे घर की बहू या बेटी के हाथों रौशन किया गया दीपक इस बात का साक्षी बनता है कि अपना ही नहीं समाज का हर आँगन रौशन रहे। ईश्वर से प्रार्थना है कि प्रेम और सद्भाव का संदेश देने वाली रौशनी की यह रवायत सदा यूं ही चलती है।
आप सभी को दिवाली की हार्दिक शुभकामनायें