हर वक्त ऑनलाइन रहते हैं..... आवाज़ ही अब चेहरा भी देखा जा सकता है।/ यानि ना इंतजार ना तड़प।
घर से बाज़ार के बीच मियां बीबी की फोन पर पांच बार बातचीत हो जाती है।/ जब घर पर होते हैं एक इन्टरनेट पर व्यस्त है तो दूसरा टीवी देखने में ।
देश हो या विदेश .... किसी भी त्योंहार की तस्वीरें मिनटों में अपनों तक पहुँच जाती हैं।/ पर जब मिलना होता है तो ना अपनापन दिखता है ना खुशियाँ बांटने की तलब ।
आपके जानने वाले लोग आपका ब्लॉग पढ़कर आपके विचारों के लिए सुंदर टिप्पणी भी लिखने में देर नहीं करते।/ पर उसी विषय पर कुछ समय आपके साथ बैठकर आपको सुन नहीं सकते ।
यानि पहले से कहीं ज्यादा संवाद और सम्पर्क....ऐसा लगता है कि हम ओवर कम्यूनिकेशन के दौर में आ गए हैं। शायद इसी का परिणाम है की जितना संवाद बढ़ा है उससे कहीं इजाफा हुआ है आपसी दूरियों में ....... आभासी रिश्तों की इस नई दुनिया में हालात कुछ ऐसे बन गए हैं की बात तो होती है पर बात नहीं होती.........!
गेजेटस के वर्चुअल वर्ल्ड ने इंसान की जिंदगी में क्या क्या बदलाव ला दिए हैं इसके बारे में तो कई बहुत कुछ लिखा जा चुका है। पर मुझे जो महसूस हो रहा है उसमें सामाजिक पक्ष की ज्यादा बात करना चाहूंगी । इसीलिए इस विषय पर अगर सीमित शब्दों कहूँ मुझे लगता है की इन गेजेट्स ने हमारी सबसे बड़ी शक्ति छीन ली है..... और वो है इन्सान की इन्सान को बर्दाश्त को करने की शक्ति।
इन गैजेट्स ने हमारे जीवन में सुविधा की जगह हथियार का स्थान पा लिया है। आपसी कम्युनिकेशन इतना बढ़ गया है कि नॉन कम्युनिकेशन जैसी स्थिति बन गयी है। साथ बैठकर बात करना , सुख दुःख बाँटना और संवेदनशील होकर किसी के मनोभावों को समझना अब हमारी सोच और व्यवहार दोनों से नदारद है। संवाद का स्वरूप एकतरफा हो गया है। मोबाइल फोन पर जिससे बात करनी है फोन उठायें वरना ना उठाये....... कोई ईमेल मिली है जवाब देना चाहे तो दें नहीं तो ना दें ...... फोन पर अपनी मौजूदगी जिस जगह बताना चाहें बता दें..... चूंकि आमने-सामने बैठकर बात नहीं होती इसलिए विचारों और संवादों में कोई मेल ना भी तो चलता है। आजकल कहा कुछ जाता ...... सोचा कुछ और किया तो कुछ और ही जाता है। सब कुछ आभासी हो चला है। भले ही फोन और इन्टरनेट के माध्यम से हम एक दूसरे के साथ पहले से कहीं ज्यादा संपर्क में रहते हैं पर हकीकत यह भी है कि घर हो या बाहर साथ साथ बैठना .... बातें करना और विचार साझा करना कहीं पीछे छूट रहा है।
उदहारण के तौर पर बात करें तो हमें व्यक्तिगत रूप से जानने वाले भी कई लोग हमारे ब्लॉग का विषय पढ़कर एक बेहतरीन सा कमेन्ट ज़रूए लिख जाते हैं पर उन्हीं लोगों से उसी विषय पर अगर आप बात करना चाहें तो शायद ही आपको ऐसा रेस्पोंस मिले..... या उनके लिए बहुत मुश्किल होगा आपको कुछ समय देना, सुनना , समझना और फिर अपने विचार उसी खूबसूरती से आपके सामने रखना जैसा कि किसी पोस्ट की टिप्पणी के तौर पर होता है। वजह साफ़ है.... एक तरफा संवाद की आदत । यानि मन करे तो सुनें... मन करे तो कहें.....जिसका सीधा सा अर्थ यह भी है की सामने वाले इंसान के मन को समझने की तो सोचनी ही नहीं है......!
नई पीढ़ी तो दो कदम और भी आगे है। फेसबुक और औरकुट जैसी साइट्स और मोबाइल पर टेक्स्ट मसेजिंग में घंटों बीत जाते हैं ..... एक जगह बैठकर सारी दुनिया से कनेक्ट हैं पर अपने ही घर के लोगों की बात सुनने के लिए कान से ईयरफोन तक नहीं निकालते। मोबाइल हो या आईपॉड दो बटन कानों में लगाओ और दुनिया से कट जाओ । या यों कहें कि बाहर की इस आभासी दुनिया से इतना जुड़ गए हैं कि घर- परिवार , समाज यहाँ तक हम अपने आप से भी दूर हो रहे हैं। कमाल है ना..... बस यही है वर्चुअल वर्ल्ड... जिसमें नजदीकियां इतनी बढ़ गयी हैं .... कि दूरियां बन गयी हैं।