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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

26 October 2010

परदेस में खिलती परंपरा......!

अपनी माटी से दूर जा बसे हिन्दुस्तानी अपनी संस्कृति और परम्पराओं के बहुत करीब हैं। यह देखकर बहुत सुखद अनुभूति होती है की जहाँ भी भारतवासी रह रहे हैं अपने देश के तीज-त्योंहार और परम्पराओं को पूरे मन और मान से निभा रहे हैं । त्योंहारों के अवसर पर तो अपनी धरती से दूर जा बसे हिन्दुस्तानियों का उत्साह देखते ही बनता है ।
करवाचौथ के मौके पर मुझे यह सुखद अहसास जीवंत देखने को मिला जब कैलगिरी (कनाडा)में महिलाओं को सुहाग के इस पर्व पर पूजा-अर्चना करते देखा। मेहंदी लगे हाथों में सुंदर सजी पूजा की थालियाँ.........पारंपरिक परिधान और व्रत की कथा-कहानी कहने सुनने का अंदाज़...... पल भर को लगा मानो अपने देश में ही हूँ..... आप भी देखिये दूर देश में अपने देश में की मनोहारी झलक........



शुभकामनायें समेटे पूजा की सुंदर थाली......!



थाली पर अटकी मेरी निगाहें..... कितनी सुंदर है ना...!


एक साथ बैठ कर सुनी गयी करवा चौथ की कथा ...



पूजा में थाली फेरने की रिवाज निभाती महिलाएं.....


पूरे उत्साह से किया करवा चौथ का पूजन....!


हर भाव में छलका हिन्दुस्तानी रंग......!



परम्पराओं की रोशनी का दीपक .....!

हमारे देश की परम्परा और संस्कृति की यह झलक मेरे तो मन में उतर गयी........जिस पर मुझे गर्व है........


21 October 2010

ओवर कम्युनिकेशन यानि नॉन कम्युनिकेशन...!

हर वक्त ऑनलाइन रहते हैं..... आवाज़ ही अब चेहरा भी देखा जा सकता है।/ यानि ना इंतजार ना तड़प।

घर से बाज़ार के बीच मियां बीबी की फोन पर पांच बार बातचीत हो जाती है।/ जब घर पर होते हैं एक इन्टरनेट पर व्यस्त है तो दूसरा टीवी देखने में ।

देश हो या विदेश .... किसी भी त्योंहार की तस्वीरें मिनटों में अपनों तक पहुँच जाती हैं।/ पर जब मिलना होता है तो ना अपनापन दिखता है ना खुशियाँ बांटने की तलब ।
आपके जानने वाले लोग आपका ब्लॉग पढ़कर आपके विचारों के लिए सुंदर टिप्पणी भी लिखने में देर नहीं करते।/ पर उसी विषय पर कुछ समय आपके साथ बैठकर आपको सुन नहीं सकते ।


यानि पहले से कहीं ज्यादा संवाद और सम्पर्क....ऐसा लगता है कि हम ओवर कम्यूनिकेशन के दौर में आ गए हैं। शायद इसी का परिणाम है की जितना संवाद बढ़ा है उससे कहीं इजाफा हुआ है आपसी दूरियों में ....... आभासी रिश्तों की इस नई दुनिया में हालात कुछ ऐसे बन गए हैं की बात तो होती है पर बात नहीं होती.........!

गेजेटस के वर्चुअल वर्ल्ड ने इंसान की जिंदगी में क्या क्या बदलाव ला दिए हैं इसके बारे में तो कई बहुत कुछ लिखा जा चुका है। पर मुझे जो महसूस हो रहा है उसमें सामाजिक पक्ष की ज्यादा बात करना चाहूंगी । इसीलिए इस विषय पर अगर सीमित शब्दों कहूँ मुझे लगता है की इन गेजेट्स ने हमारी सबसे बड़ी शक्ति छीन ली है..... और वो है इन्सान की इन्सान को बर्दाश्त को करने की शक्ति।

इन गैजेट्स ने हमारे जीवन में सुविधा की जगह हथियार का स्थान पा लिया है। आपसी कम्युनिकेशन इतना बढ़ गया है कि नॉन कम्युनिकेशन जैसी स्थिति बन गयी है। साथ बैठकर बात करना , सुख दुःख बाँटना और संवेदनशील होकर किसी के मनोभावों को समझना अब हमारी सोच और व्यवहार दोनों से नदारद है। संवाद का स्वरूप एकतरफा हो गया है। मोबाइल फोन पर जिससे बात करनी है फोन उठायें वरना ना उठाये....... कोई ईमेल मिली है जवाब देना चाहे तो दें नहीं तो ना दें ...... फोन पर अपनी मौजूदगी जिस जगह बताना चाहें बता दें..... चूंकि आमने-सामने बैठकर बात नहीं होती इसलिए विचारों और संवादों में कोई मेल ना भी तो चलता है। आजकल कहा कुछ जाता ...... सोचा कुछ और किया तो कुछ और ही जाता है। सब कुछ आभासी हो चला है। भले ही फोन और इन्टरनेट के माध्यम से हम एक दूसरे के साथ पहले से कहीं ज्यादा संपर्क में रहते हैं पर हकीकत यह भी है कि घर हो या बाहर साथ साथ बैठना .... बातें करना और विचार साझा करना कहीं पीछे छूट रहा है।

उदहारण के तौर पर बात करें तो हमें व्यक्तिगत रूप से जानने वाले भी कई लोग हमारे ब्लॉग का विषय पढ़कर एक बेहतरीन सा कमेन्ट ज़रूए लिख जाते हैं पर उन्हीं लोगों से उसी विषय पर अगर आप बात करना चाहें तो शायद ही आपको ऐसा रेस्पोंस मिले..... या उनके लिए बहुत मुश्किल होगा आपको कुछ समय देना, सुनना , समझना और फिर अपने विचार उसी खूबसूरती से आपके सामने रखना जैसा कि किसी पोस्ट की टिप्पणी के तौर पर होता है। वजह साफ़ है.... एक तरफा संवाद की आदत । यानि मन करे तो सुनें... मन करे तो कहें.....जिसका सीधा सा अर्थ यह भी है की सामने वाले इंसान के मन को समझने की तो सोचनी ही नहीं है......!

नई पीढ़ी तो दो कदम और भी आगे है। फेसबुक और औरकुट जैसी साइट्स और मोबाइल पर टेक्स्ट मसेजिंग में घंटों बीत जाते हैं ..... एक जगह बैठकर सारी दुनिया से कनेक्ट हैं पर अपने ही घर के लोगों की बात सुनने के लिए कान से ईयरफोन तक नहीं निकालते। मोबाइल हो या आईपॉड दो बटन कानों में लगाओ और दुनिया से कट जाओ । या यों कहें कि बाहर की इस आभासी दुनिया से इतना जुड़ गए हैं कि घर- परिवार , समाज यहाँ तक हम अपने आप से भी दूर हो रहे हैं। कमाल है ना..... बस यही है वर्चुअल वर्ल्ड... जिसमें नजदीकियां इतनी बढ़ गयी हैं .... कि दूरियां बन गयी हैं।

12 October 2010

क्यूँकि मैं एक पिता हूँ......!



मेरे हिस्से ना आया...... !
तुम्हारा गीला बिछौना, रातों का रोना
ना ही आईं थपकियाँ, न लोरी, न पालने की डोरी
न आंसू बहाना, ना तुम्हें गोदी में छुपाना.....
न साज-संभाल करने वाले हाथ, न ही कोई उनींदी रात
क्यूँकी मैं एक पिता हूँ..............!


मेरे हिस्से आया.........
अल-सुबह घर से निकलना
कुछ तिनकों की तलाश में
एक नीड़ सहेजने की आस में
ताकि सांझ ढले जब लौटूं
तो गुड़िया, मुनिया और छोटू
सबके चहरे पर हो खिलखिलाहट
सुनकर मेरे कदमों की आहट
तब मेरा तन भले ही मैला हो
बस...! हाथ में खिलौनों भरा थैला हो
इन पलों में मैं भी बचपन को जीता हूँ...
क्यूँकी मैं एक पिता हूँ........!

मुझे तो समझनी है.......
तुम्हारी हर इच्छा, हर बात
लाकर देनी है तुम्हें हर सौगात
खिलौने, गुब्बारे और मिठाई
कपड़े , किताबें, रोशनाई
तुम्हारा हर स्वप्न करूँ पूरा
नहीं तो मैं रहूँगा अधूरा
बस ! इसी सोच के साथ जीता हूँ...
क्यूँकी मैं एक पिता हूँ.......!


मुझे बनना है घर का हिमालय
बलवान, अडिग और अटल
मज़बूत कंधे मौन संबल
तुम्हारा आदर्श, जीवन का मान
तुम्हारी जीत पर गर्वित
और हार पर धैर्यवान.....!

मेरे कम शब्द और गहरी आवाज़
अनुशासन , अभिव्यक्ति का राज़
वक़्त की धूप में पककर तुम समझ पाओगे
फिर मेरे मन के करीब आओगे.... और जान जाओगे
इतना सब होकर भी मैं भीतर से रीता हूँ........
क्यूँकी मैं एक पिता हूँ .....!

01 October 2010

इंसानियत गढ़ती है स्त्री....!


इंसानियत गढ़ती है स्त्री...ये शब्द हैं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के , जिनके विचार हर दौर में प्रासंगिक थे पर आज असमानता और हिंसा भरे समाज में कुछ ज्यादा ही प्रासंगिक प्रतीत हो रहे हैं। आज के दिन उन्हें नमन करते हुए उनके सद्विचारों की बात....



गांधीजी हमेशा से ही सर्वोदय यानि समग्र विकास की सोच को लेकर आगे बढे, जिसमें पूरे समाज की उन्न्ति की बात की गई। बापू का मानना था कि ‘ महिला और पुरूष के बीच कोई भेद नहीं समझा जाना चाहिए, वे सिर्फ शारीरिक तौर पर एक दूसरे से भिन्न हैं। ’ गौरतलब है कि आज भी हमारे समाज में महिलाएं कई तरह के भेदभाव का शिकार होती है। ऐसे में उनकी यह प्रेरक विचारधारा पूरे समाज को नई राह दिखाने के लिए आज भी प्रासंगिक है। बापू के शब्दों में ‘ पत्नी पति की गुलाम नहीं बल्कि एक साथी और मददगार है जो उसके सुख-दुख में बराबर की भागीदार होने के साथ-साथ पति के समान ही अपने रास्ते स्वयं चुनने के लिए भी स्वतंत्र है। ’ हालांकि हमारे संविधान में भी महिलाओं को पुरुषों के समान ही अधिकार दिये हैं पर सच यह भी है कि इस दिशा में अभी लंबा सफर तय करना बाकी है । उनका मानना था की ‘ स्त्री जीवन के समस्त धार्मिक एवं पवित्र धरोहर की मुख्य संरक्षिका है। ’ जिसका सीधा सा अर्थ यह है कि औरत इंसानियत को गढ़ती है। उसके व्यक्तित्व में प्रेम, सर्मपण, आशा और विश्वास समाया हुआ है। खासकर यदि हमें एक गैर हिंसक समाज का निर्माण करना है तो महिलाओं की क्षमता पर भरोसा करना आवश्यक है। ‘ स्त्री को अबला कहना अपराध है। यह पुरूष का स्त्री के प्रति अन्याय है। यदि शक्ति का अर्थ बर्बर शक्ति है तो अवश्य ही स्त्री पुरूष की अपेक्षा कम बर्बर है। यदि शक्ति का अर्थ नैतिक शक्ति है तो स्त्री पुरूष से कई गुना श्रेष्ठ हैं। यदि हमारे अस्तित्व का नियम अहिंसा है तो भविष्य स्त्री के हाथ है।’ यानि बापू ने जिस सद्भावपूर्ण समाज की परिकल्पना की थी उसका आधार वे महिलाओं को मानते थे। क्योंकि महिलाएं बच्चों कि परवरिश के दौरान ही ऐसे विचारों के बीज उनके मन में बो सकती हैं जो उनके अंतस को प्रकाशवान कर उन्हें सही मार्ग पर ले जायें । आज दुनिया के हर हिस्से में हो रहे खून-खराबे के दौर में महिलाओं से जुड़े बापू के यह विचार सचमुच साबित करते हैं कि स्त्री किस तरह से एक गैर हिंसक समाज की रीढ़ बन सकती है।



बापू ने हर क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका को अहम् माना। उनका सोचना था की संसार केवल घर तक ही सीमित क्यों ? यह भी कहना था बापू का। जिन्होने बरसों पहले ही रूढिवादी समाज में महिलाओं की घुटन को महसूस कर लिया था। बापू मानते थे कि देश के राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक उत्थान में महिलाओं की अहम भूमिका है। बापू ने इस बात की पुरजोर वकालत की कि महिलाओं को सिर्फ चूल्हे-चौके तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। गांधीजी सहशिक्षा के भी समर्थक थे। उनका मानना था कि लड़के लड़कियों को साथ पढने और मिलने-जुलने का मौका देना चाहिए। वे लड़कियों को तालों में बंद रखने में विश्वास नहीं करते थे। शायद यही वजह थी कि बापू ने महिलाओं से देश के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने का भी आग्रह किया था। बापू के ये विचार इतने वर्ष बीत जाने के बाद हमें इस बात की याद दिलाते हैं कि उन्होंने हमेशा महिलाओं को असहाय की छवि से न केवल बाहर निकालने की कोशिश की बल्कि उनमें सामाजिक विषमताओं और विद्रूपताओं से लड़ने की आशावादी सोच को भी जागृत किया।

दहेज जैसी कुरीति को समाप्त करने के बारे में बापू का कहना था की "विवाह अभिभावकों के द्धारा पैसे के लेनदेन की व्यवस्था नहीं होना चाहिए । विवाह में एकमात्र सम्मानजनक आधार परस्पर प्रेम और परस्पर स्वीकृति होती है।" इसीलिए बापू ने एक बार कहा था कि " अभिभावक लडकियों को यह सिखायें कि वे विवाह के लिए पैसे मांगने वाले युवक से शादी करने से इंकार करें। इन अपमानजनक शर्तों पर विवाह से बेहतर है कि वे अविवाहित रह जायें।" इतना ही नहीं बापू का मानना था कि महिलाएं सांप्रदायिकता, जातिवाद और छुआछूत जैसी कुरीतियों से निजात पाने में भी भूमिका निभा सकती है। यकीयनन आज हमारे देश बढ़ रही दहेज हत्या, घरेलू कुछ और दूसरी सामाजिक कुरीतियों के चलते महिलाओं के जीवन में आनें वाली कठिनाइयों के इस दौर में ये विचार पूरी तरह प्रासंगिक और व्यवहारिक हैं। बस जरुरत है तो इस बात की कि हम इन बुराइयों का प्रतिकार करने की क्षमता विकसित करें यही सच्ची श्रधांजलि होगी बापू के लिए जिन्होंने हमेशा यही माना की जीवन का आधार है स्त्री.........!