हमारी बेटी अच्छी खासी तनख्वाह लाती है उसका घर के काम में रूचि लेना कोई ज़रूरी नहीं.......!
आज के ज़माने में खुलकर बोलना ज़रूरी है..... किसी से दबकर क्यों रहेगी .......!
देखो बेटी तुम्हें तो अपने बच्चे और अपने पति से मतलब है...... परिवार से नहीं ......!
अरे..... खुद कमाती हो तुम किसी पर निर्भर नहीं हो........!
आज के ज़माने में खुलकर बोलना ज़रूरी है..... किसी से दबकर क्यों रहेगी .......!
देखो बेटी तुम्हें तो अपने बच्चे और अपने पति से मतलब है...... परिवार से नहीं ......!
अरे..... खुद कमाती हो तुम किसी पर निर्भर नहीं हो........!
यह एक बानगी भर है उन वाक्यों की जो आजकल अधिकतर माता-पिता अपनी पढ़ी -लिखी कमाऊ बेटियों से और बेटियों के बारे में कहते सुने जा सकते हैं। क्योंकि उन्हें लगता है की उनकी बेटियां पढ़ लिख गयी हैं ....कमाऊ हैं.......आत्मनिर्भर हैं......काबिल बन गयी हैं। तो मानो जीवन की सभी समस्याओं का हल एक साथ ही निकल आया है। पर सच तो यह है की हमारे समाज में और घरों में आज भी बहू के रोल में लड़की से काफी उम्मीदें रखी जाती हैं। खैर मेरे मन में जो सवाल है वो यह की आजकल बेटियों को आत्मविश्वास और हौसले के नाम पर जो कुछ भी बताया और सिखाया जाता है वैसे ही वाक्यों को सुनकर पली बढ़ी बहू को कितने लोग स्वीकार कर पायेंगें ?
ऐसे में यह बात थोडा हैरान भी करती है और थोड़ा परेशान भी जो गुण और स्वभाव हमारे परिवार बहू में चाहते हैं वैसा ही बेटी को क्यों नहीं सिखाया जा रहा ? और अगर सचमुच ज़माना बदल गया है तो फिर बहू और बेटी दोनों के ही इन गुणों को स्वीकार किया जाना चाहिए। क्यों आज भी यह दोयम दर्जा कायम है ........? यानि बेटी ऐसी है तो बहू वैसी क्यों चाहिए.......?
यह एक शाश्वत सत्य है की किसी घर बेटी ही किसी दूसरे घर की बहू बनती है.....तो फिर आप खुद ही सोचिये की बहू के रूप आने वाली लड़की वो विचार तो अपने साथ ही लाएगी ना जो उसने बेटी के रूप में जाने और समझे है।
बस...! यहीं से शुरू होता है वो द्वन्द जो आज दौर में हमारे परिवारों के हालात को रेखांकित करता है। बतौर बेटी जो गुण आत्मविश्वास कहा जाता है बहू बनते ही उदंडता कहलाने लगता है......जो माता पिता यह बात गर्व से कहते हैं हमारी बेटी को घरेलू जिम्मेदारियों में कोई रूचि नहीं वे अपने ही घर में उतनी ही काबिल बहू को घरेलू दायित्वों के निर्वहन में कोई छूट देना पसंद नहीं करते । जो माता पिता अक्सर यह कहकर बेटी का समर्थन करते हैं कि घर का काम करने के लिए बहुत नौकर मिल जाते हैं उन्हें नौकरीशुदा बहू के नौकर रखने पर पता चलता है की नौकर रख लेना समस्या का हल नहीं है बल्कि खुद एक बड़ी समस्या भी हो सकता है। उन्हीं लोगों का सोचना उस समय कुछ और हो जाता है जब घर कि नई पीढ़ी आया या क्रेच के सहारे पलती है ।
मैं यह नहीं कहती की लड़कियों का आत्मविश्वासी और आत्मनिर्भर होना गलत है पर इतना ज़रूर मानती हूँ की दृढ़ता की जगह उग्रता नहीं आनी चाहिए। उग्रता जिसका आधार सिर्फ यह हो की आप इतनी सेलरी घर ला रहीं हैं या फिर आपको किसी की ज़रुरत नहीं क्योंकि आप आत्मनिर्भर हैं । यह जीवन की सबसे बड़ी हकीकत है की घर-परिवार और सामाजिक जीवन में एक दूसरे पर निर्भरता हमेशा बनी रहती है। यह बात महिलाओं और पुरुषों दोनों पर बराबर लागू होती है क्योंकि पारिवारिक जीवन में सामंजस्य का मूल आधार यह निर्भरता ही है। यह बात आज के दौर में बड़ी हो रही बेटियों को जानना ज़रूरी है फिर भले ही वे कामकाजी बनें या गृहणी। इसीलिए मैं मानती हूँ की हर माता पिता के लिए यह आवश्यक है कि बेटियों को जीवन के इस पहलू से भी रूबरू कराएँ कि मोटी तनख्वाह के तिलिस्म के आगे एक पत्नी, माँ और बहू के किरदार की अहमियत कम नहीं हो जाती ।